: ७८ : आत्मधर्म : फागण : २४७४ :
अर्थ:– आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, पोते ज्ञान ज छे, ते
ज्ञान सिवाय बीजुं शुं करे? आत्मा परभावनो कर्ता छे
एम मानवुं ते व्यवहारी जीवोनो मोह छे.
–आत्मख्याति–
(१३) जीव बंध बन्ने, नियत निज निज लक्षणे
छेदाय छे, प्रज्ञा छीणी थकी छेदतां बन्ने जुदा पडी जाय
छे. जीव बंध ज्यां छेदाय ए रीते नियत निज निज
लक्षणे, त्यां छोडवो ए बंधने जीव ग्रहण करवो शुद्धने.
–समयसार–
(१४) विद्वज्जनो भूतार्थ तजी व्यवहारमां वर्तन
करे, पणकर्मक्षयनुं विधान तो परमार्थ आश्रित संतने.
–समयसार–
(१५) संयम–नियम–तप धारतां आत्मा समीप छे
जेहने, स्थायी सामायिक तेहने भाख्युं श्री केवळीशासने.
–नियमसार
(१६) जेमना ज्ञानदर्पणमां समस्त स्व–पर ज्ञेयो
अत्यंत स्पष्टपणे–प्रत्यक्षपणे प्रतिभासे छे एवा श्री
सीमंधरादि त्रणे काळना जगदुद्वारक तीर्थंकर भगवंतोने
परमोत्कृष्ट भक्तिथी नमस्कार.
(१७) हे परमोपकारी कहान गुरुदेव! आपश्रीए
वीतराग प्रणीत सत्शास्त्रमां निरूपित द्रव्य–गुण–
पर्यायनी स्वतंत्रता, निश्चयव्यवहारनुं गहन रहस्य
अने सम्यग्दर्शननो परम महिमा प्रगट करी अनादि
काळनुं भयंकर भव भ्रमण छेदी शाश्वत स्वरूप सुख
प्राप्त करावनारूं सत्ज्ञान समजाव्युं ते अर्थे आपने परम
भक्तिथी नमस्कार करीए छीए.
(१८) नथी अप्रमत्त के प्रमत्त नथी जे एक
ज्ञायकभाव छे, ए रीते ‘शुद्ध’ कथाय ने जे ज्ञात ते तो
ते ज छे. ६. चारित्र, दर्शन, ज्ञान पण व्यवहार–कथने
ज्ञानीने; चारित्र नहि, दर्शन नहि, नहि ज्ञान, ज्ञायक
शुद्ध छे. ७.
(१९) यह निचोर या ग्रंथकौ,
यहै परम रस पोख।
तजै सुद्धनय बंध है,
गहै शुद्धनय मोख।।
–नाटक–समयसार–
(२०) जो क्रोध–पुद्गलकर्म–जीवने परिणमावे
क्रोधमां, कयम क्रोध तेने परिणमावे जे स्वयं नहि
परिणमे? अथवा स्वयं जीव क्रोधभावे परिणमे–तुज
बुद्धि छे, तो क्रोध जीवने परिणमावे क्रोधमां–मिथ्या बने.
–समयसार–
(२१) आ (ज्ञानस्वरूप) पद कर्मथी खरेखर
दूरासद छे अने सहज ज्ञाननी कळावडे खरेखर सुलभ
छे; माटे निज ज्ञाननी कळाना बळथी आ पदने
अभ्यासवाने जगत सतत प्रयत्न करो. –आत्मख्याति–
(२२) अशुचिपणुं विपरीतता ए आस्रवोनां
जाणीने, वळी जाणीने दुःख कारणो एथी निवर्तन जीव
करे. समयसार
(२३) उपादान निज गुण जहां,
तहां निमित्त पर होय;
भेदज्ञान परवांन विधि, विरला बूझे कोय।
उपादान बल जहँ तहां, नहि निमित्तको दाव;
एक चक्रसों रथ चलै, रविको यहै स्वभाव.
सबै वस्तु असहाय जहां, तहां निमित्त है कौन?
ज्यों जहाज परवाहमैं, तिरै सहज विन पौंन.
उपादान विधि निरवचन, है निमित्त उपदेश;
बसे जु जैसे देशमें करे सु तैसे भेष.
–बनारसी–विलास–
(२४) जे जाणतो अर्हंतने गुण, द्रव्य ने पर्ययपणे,
ते जीव जाणे आत्मने, तसु मोह पामे लय खरे. ८०.
जीव मोहने करी दूर, आत्मस्वरूप सम्यक् पामीने, जो
राग–द्वेष परिहरे तो पामतो शुद्धात्मने. ८१. अर्हंत सौ
कर्मोतणो करी नाश ए ज विधि वडे, उपदेश पण एम
ज करी, निर्वृत थया, नमुं तेमने. ८२. –प्रवचनसार–
(२५) दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी वृद्धिने अर्थे हे
मुनि! दीक्षाप्रसंगनी तीव्र विरती दशाने, कोई
रोगोत्पत्ति प्रसंगनी ऊग्र वैराग्य–अवस्थाने, कोई
दुःख प्रसंगे प्रगटेली उदासीनतानी भावनाने, कोई
सत् उपदेशप्रसंगे थयेली परम आत्मिकभावनाने कोई
पुरुषार्थना धन्य प्रसंगे जागेली पवित्र अंतर
भावनाने स्मरणमां राखजे, निरंतर स्मरणमां राखजे,
भूलीश नहि. –भावप्राभृत–
(२६) श्रामण्यमां सत्तामयी सविशेष आ द्रव्यो
तणी श्रद्धा नहि, ते श्रमण ना; तेमांथी धर्मोद्भव नहि.
आगळ विषे कौशल्य छे ने मोह द्रष्टि विनष्ट छे,
वीतराग–चरितारूढ छे ते मुनि–महात्मा ‘धर्म’ छे.
प्रवचनसार
भूल सुधारो
‘आत्मधर्म’ना गया (परमां) अंकमां पृष्ठ–५३,
पहेली कोलमनी २०–२१ मी लीटीमां नीचे मुजब
सुधारीने वांचवुं–
‘रागमां एकाग्र थवुं ते आत्मध्यान छे’ एम
छाप्युं छे तेने बदले ‘रागमां एकाग्र थवुं ते आर्त्तध्यान
छे’ एम वांचवुं.