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आत्माने विकारी माने त्यांसुधी जीवनुं दुःख टळे नहि. चैतन्य जेनुं चिह्न छे एवा आत्माना स्वभावमां कोई
राग के विकारनो प्रवेश नथी, तेथी चैतन्यस्वभावमांथी ते सर्वेने भेदी शकाय छे, पण चैतन्य तो आत्मा साथे
अभेद छे तेथी तेने भेदी शकातुं नथी. आत्माने कई रीते ग्रहण करवो अने बंधभावने कई रीते छोडवा तेनो
उपाय दर्शावतां आचार्यभगवान श्री समयसारजीना १८२ मां कलशमां कहे छे के जे कांई भेदी शकाय ते सर्वने
स्वलक्षणना बळथी भेदीने, जेनो चिन्मुद्राथी अंकित निर्विभाग महिमा छे एवो शुद्ध चैतन्य ज हुं छुं. –एम
प्रज्ञावडे आत्माने ग्रहण कराय छे. प्रज्ञावडे भेदी शकाय ते सर्वने भेदवुं एटले के–आत्माने अने रागादि
निर्भेद छे; माटे ते गुण–गुणी भेदनुं पण लक्ष न करवुं. आत्मस्वभावनो निर्विभाग–महिमा छे एटले
अनंतकाळथी पर्यायमां विकार होवा छतां स्वभावनो महिमा जरा पण घट्यो नथी, अने विकार कदी एक समय
मात्र करतां जरा पण वधी गयो नथी. आत्मामां कांई विकारनां पड उपर पड चडतां नथी अर्थात् एक करतां
वधारे पर्यायोनो विकार कांई भेगो थतो नथी; तेनो स्वभावमहिमा तो सदाय पूरेपूरो विकार रहित वर्तमान
वर्ते छे. पण पोते ऊंधी मान्यता करीने बंधभाववडे एक समयनो संसार उभो कर्यो छे, छतां स्वभावे तो
त्रिकाळ शुद्ध चैतन्यमूर्ति परमात्मा छे. सम्यग्ज्ञानवडे शुद्धस्वभाव अने बंधभाव वच्चेना भेदने जाणीने बंधने
जुदो पाडी शकाय छे, अने स्वभावनुं ग्रहण थई शके छे.
काढ्यो छे. जो स्वभावनां लक्षे एक समय मात्र पण बंधभाव साथेना एकत्वपणानी मान्यता उडाडी दीए तो तेना
बंधभावनो अवश्य नाश थाय ज. परंतु चैतन्यस्वभाव अने बंधभावने भिन्नपणे न जाणे अने स्वभाव तरफ
लक्ष न करे तो कांई बंधभावो एनी मेळे टळी जाय नहि. पोताना स्वभावसामर्थ्यने जाण्या वगर जीवे
अनंतकाळथी पोतानुं निर्माल्य पणुं ज मान्युं छे के ‘कर्मो मने हेरान करे छे अने मारे पर पदार्थोनी सहाय जोईए.’
परंतु ज्ञानीओ तेने भेदज्ञान करावे छे के हे भाई, तुं तो चैतन्य स्वभाव छो, तारा स्वभावमां विकारनो पण
प्रवेश नथी तो पछी जड कर्मो तो होय ज क्यांथी? माटे कर्मोनुं अने विकारनुं पण लक्ष छोडी दईने तुं तारा चैतन्य
स्वभावने जो. एक वार अंतरथी महिमा लावीने तुं तारा चैतन्य सामर्थ्यनी हा पाड. आत्मा आत्मामां छे, कर्मो
तारी पोतानी अज्ञानदशानुं छे, कर्मनुं दुःख तने नथी. दुःखनुं कारण जे तारी विकारी दशा छे ते पण तारुं स्वरूप
नथी माटे तने विकार अने आत्मा वच्चे भेदज्ञान बतावीए छीए, ए भेदज्ञान ज दुःख टाळवानो उपाय छे.
अवस्थानो हुं कर्ता, चैतन्यमांथी हुं करुं, चैतन्यवडे करुं’ ईत्यादि छ कारक भेदना विचार भले आवे पण
यथार्थपणे छए कारकोमां चैतन्यवस्तु एक ज छे, ते चैतन्यमां कोई भेद नथी. आम, चैतन्यस्वभावनी मुख्यता
छे, अने ते ज उपायथी मोक्ष थाय छे.