: फागण : २४७४ : आत्मधर्म : ६७ :
अष्टप्राभृत – प्रवचन: लेखांक ८
अष्टप्राभृत उपर पूज्य श्री कानजीस्वामीना व्याख्यानोनो टूंक सार: आत्मधर्म अंक ५१ थी चालु
वर स. २४७२ वशख वद – १२
(गाथा – १६)
(१६९) सम्यग्दशर्न थतां शुं शुं थाय छे? : – सम्यग्दर्शन थतां ज सम्यग्ज्ञान थाय छे अने सम्यग्ज्ञानथी
कल्याण अकल्याणनुं स्वरूप जणाय छे–एम पंदरमी गाथामां कह्युं; हवे कल्याण अकल्याणनुं स्वरूप जाणवाथी शुं
थाय छे ते सोळमी गाथामां कहे छे. जे पुरुष कल्याण अने अकल्याण मार्गनुं स्वरूप जाणवावाळा छे ते, जेणे
मिथ्यात्वस्वभावने ऊडाडी दीधो छे एवा अर्थात् मिथ्यात्वनो अभाव कर्यो छे एवा होय छे; तेम ज शीलवंत
कहेतां सम्यक्स्वभावयुक्त पण होय छे तथा ते सम्यक्स्वभावना फळ वडे शुद्धतामां वृद्धि पामे छे, अने
साधकदशामां जे राग रही जाय तेनाथी सम्यग्द्रष्टिने लायक तीर्थंकर–चक्रवर्ती आदि उच्च पदो पण पामे छे. अने
ते अभ्युदय थया पछी निर्वाणने पामे छे–सिद्धदशा पामे छे.
जीव ज्यारे भला–बूरा मार्गनुं स्वरूप जाणे त्यारे, अनादि संसारथी मांडीने जे मिथ्यात्वरूप परिणति छे
ते बदलीने सम्यक्स्वभावरूप परिणति थाय छे, ते परिणति थतां विशिष्ट पुण्य बंधाय छे अने तेथी तीर्थंकर
वगेरेनी अभ्युदयरूप पदवी पामीने जीव निर्वाण पामे छे. तीर्थंकरगोत्र वगेरे अलौकिक पुण्य सम्यग्द्रष्टि जीवोने
ज होय छे.
(१७०) सम्यग्दशर्न वगर िकंिचत् धमर् नथी : – एक मात्र सम्यग्दर्शनना फळमां सिद्धदशा प्रगटे छे, अने
सम्यग्दर्शन वगर जे कांई भावो करे ते बधाय संसारनुं ज कारण छे, तेनाथी आत्माने किंचित् धर्म थतो नथी.
नग्न दिगंबर मुनि थईने पंचमहाव्रत पाळे अने कोई बाळी नांखे तोय तेना उपर क्रोधनी लागणी न करे–एवी
क्षमा पाळे तोपण आत्माना भान वगर तेने किंचित् धर्म नथी.
(१७१) अज्ञानीनी सहन शिक्त : – प्रश्न:– एटलुं बधुं सहन करवानी शक्ति छे तेथी आत्मानी कांईक
ओळखाण तो हशे ने? जो आत्मानी ओळखाण न होय तो आटली बधी सहन शक्ति क्यांथी होई शके?
उत्तर:– ए सहन शक्ति पर लक्षे छे. लोकोमां पण अनेक स्त्रीओ स्वमाननी खातर बळी मरे छे अने
जराय ऊंकारो करती नथी, ते पण सहनशक्ति तो छे ने! जेम ते अशुभना लक्षे सहन करे छे तेम ए द्रव्यलिंगी
मुनि पण आत्माना भान वगर शुभरागना लक्षे सहन करे छे अने क्षमानी शुभलागणी आत्माने लाभ कारक
छे–एम माने छे, तेने किंचित् आत्मलाभ नथी. स्वमानना अशुभरागनी खातर सहन करनार स्त्री अने
शुभरागने खातर सहन करनार द्रव्यलिंगी मुनि–ए बंने परमार्थे एक ज जातना छे, बेमांथी एकेयने कल्याण
थतुं नथी. अज्ञानीओने एम लागे के अहोहो, ए मुनिए घणुं सहन कर्युं! पण खरेखर तेणे शुभ राग अने
तेना अभिमान सिवाय कांई कर्युं नथी.
ते द्रव्यलिंगी मुनिने आत्मानुं तो लक्ष नथी तेथी “गमे तेवा संयोगोमां पण राग करवानो मारो
स्वभाव ज नथी हुं तो ज्ञान स्वरूप छुं” एम ज्ञानस्वभावनी प्रतीतिपूर्वक तेने क्षमाभाव प्रगटता नथी; परंतु
‘मारा पूर्वकर्मना उदय छे तेथी आ प्रतिकूळता आवी छे अने जो अत्यारे क्रोध करीश तो फरी पाछां कर्म बंधाशे’
–एवा भयथी कर्मना लक्षे ते जीव क्षमाभाव राखे छे; पण संयोगोथी अने विकारथी रहित ज मारो स्वभाव
छे–एम स्वभावद्रष्टिथी ते सहन करतो नथी. तेनी ते क्षमा शुभबंधनुं ज कारण छे, पण धर्मनुं कारण नथी. पर
लक्षे थतो कोई पण भाव कां तो शुभ होय, अने कांतो अशुभ होय, पण ते धर्मभाव तो होय ज नहि. ते
अज्ञानी द्रव्यलिंगी जीव एम माने छे के ‘आ मारा पूर्वकर्मनुं फळ छे’ एटले ते जीव पूर्वकर्मनो अर्थात् पूर्वना
विकारी भावोनो अने तेना फळनो धणी थयो, अने वर्तमानमां ए सहन करवाथी मने धर्म थशे–एम मान्युं
एटले के परलक्षे क्षमानी शुभलागणीने धर्म मान्यो ते ज मिथ्यात्व छे. तेणे मात्र शुभभाव कर्यो छे, तेथी
अधिक कांई ज कर्युं नथी. ऊल्टुं ते शुभभावनुं अभिमान करीने अने तेमां धर्म मानीने तेणे आत्माना
अकल्याणनी पुष्टि करी छे.
(१७२) धमार्त्मानी सहनशिक्त : – धर्मात्मा जीवने क्षमानी लागणी थाय त्यारे तेओ एम जाणे छे के मारा
स्वभावमां क्रोधनी के क्षमानी