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लागणी थई ते मारुं कर्तव्य नथी अने तेनाथी आत्मानुं कल्याण नथी. मारा स्वभावना लक्षे जेटली वीतरागता
थई तेटलो मने लाभ छे. क्रोधनी के क्षमानी लागणी कोई परना कारणे थती नथी. धर्मीने कदाच क्रोध थई आवे
तो पण जाणे छे के खरेखर आ क्रोधनो हुं ज्ञाता छुं, पण तेनो कर्ता नथी.
परंतु वीतरागी ज्ञान स्वभावनुं भान थतां एवुं परिणमन सहज होय छे. ज्ञानस्वभावमां ज एकत्वपणे
परिणमे छे तेथी क्रोधादि सर्वे भावोना ज्ञाता ज छे. क्रोध थतां तेमने स्वरूपमां संदेह पडतो नथी तेम ज
सम्यग्दर्शनादिमां पण शंका पडती नथी, पण ते ज वखते क्रोधथी भिन्नपणानुं भान चालु छे–एटले ते अपेक्षाए
तो क्रोध वखते पण तेमने स्वभावना लक्षे अंशे सहनशीलता प्रगट छे.
तथा दुःख लागे तेटले अंशे सहनशक्तिनो अभाव छे. स्वभावना भानपूर्वक आनंदनी एकाग्रताथी जेटला
रागद्वेष क्रोधादि टळ्या तेटली साची सहनशक्ति छे. परंतु जेओ शुभरागमां संतोष माने छे तेओने साची
सहनशक्ति नथी, केमके पुण्य प्रत्ये राग अने पाप प्रत्ये द्वेष एवो विषमभाव तेने सदाय वर्ते छे. पुण्यनी रुचि ते
ज स्वरूप उपरनो महा क्रोध छे. पुण्य–पाप रहित स्वभावना भानपूर्वक जे पुण्य–पापनो अने संयोगनो मात्र
ज्ञाता रही गयो तेने ज साचो समताभाव छे अने तेने ज साची सहनशक्ति छे. एवी वीतरागी सहनशक्ति
सम्यग्दर्शन वगर होय नहि. शुभभावरूप क्षमा तो जीवे अनंतवार करी छे पण पुण्य अने पाप बंने मारूं स्वरूप
सम्यग्दर्शननो उपाय आत्मानी साची समजण करवी ते ज छे, परंतु कोई रागनी क्रिया वडे के करोडो रूपिया
खरचवाथी सम्यग्दर्शन थतुं नथी. सम्यग्दर्शन सहज छे, पोताना स्वभाव साथे तेनो संबंध छे. जे भाव
जरापण कष्टदायक लागे के अरुचिकर लागे ते भावमां धर्म नथी, धर्म भाव तो शांतिदायक छे.
जिनवचन छे ते औषध छे; ते औषध अनादिथी जीवने ईन्द्रियोना विषयभूत पदार्थोमां जे सुखबुद्धि छे ते
छोडावे छे. ते जिनवचनो अमृत सरखां छे केमके ते जन्म–जरा–मरणरूपी रोगने हरनारां छे अने सर्व दुःखोनो
क्षय करनारां छे. अहीं मात्र यथार्थ निमित्तनुं ज्ञान कराव्युं छे, पण ते निमित्तथी सम्यग्दर्शन थाय छे एम
विरेचन थाय छे. जेम रोगोमां औषधि निमित्त छे तेम विषय सुखनुं विरेचन कराववामां जिनवचनो रूपी
औषध निमित्त छे, तेने उपचारथी उपकारी पण कहेवाय छे. सम्यग्दर्शन वडे आत्मस्वभावना सुखनो अनुभव
प्रगटे त्यारे विषयो प्रत्ये सहजे वैराग्य थाय छे. ज्यांसुधी सम्यग्दर्शनवडे स्वभावसुखने न अनुभवे त्यांसुधी
विषयो प्रत्ये साचो वैराग्य आवे नहि.
वचनो