Atmadharma magazine - Ank 053
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 5 of 17

background image
: ६८ : आत्मधर्म : फागण : २४७४ :
लागणी नथी, स्वभावमां रहीने शुभ के अशुभ लागणी कर्या वगर जाणवुं ते ज मारूं स्वरूप छे. जे शुभ
लागणी थई ते मारुं कर्तव्य नथी अने तेनाथी आत्मानुं कल्याण नथी. मारा स्वभावना लक्षे जेटली वीतरागता
थई तेटलो मने लाभ छे. क्रोधनी के क्षमानी लागणी कोई परना कारणे थती नथी. धर्मीने कदाच क्रोध थई आवे
तो पण जाणे छे के खरेखर आ क्रोधनो हुं ज्ञाता छुं, पण तेनो कर्ता नथी.
क्षणिक क्रोधनी लागणी थई ते मारा स्वरूपनी चीज नथी. अने परने कारणे क्रोध थयो नथी, तेथी तेओ
ते वखते खरेखर क्रोधनी लागणी प्रत्ये उदासीन वर्ते छे. ‘हुं क्रोधनो ज्ञाता छुं’ एम वारंवार गोखवुं पडतुं नथी,
परंतु वीतरागी ज्ञान स्वभावनुं भान थतां एवुं परिणमन सहज होय छे. ज्ञानस्वभावमां ज एकत्वपणे
परिणमे छे तेथी क्रोधादि सर्वे भावोना ज्ञाता ज छे. क्रोध थतां तेमने स्वरूपमां संदेह पडतो नथी तेम ज
सम्यग्दर्शनादिमां पण शंका पडती नथी, पण ते ज वखते क्रोधथी भिन्नपणानुं भान चालु छे–एटले ते अपेक्षाए
तो क्रोध वखते पण तेमने स्वभावना लक्षे अंशे सहनशीलता प्रगट छे.
() िक्त स्रू : आत्माना ज्ञानस्वभावनी ओळखाण वगर परमार्थे सहन शक्ति होय ज
नहि. ‘सहन करवुं’ ते दुःखरूप नथी पण आनंद अने वीतरागतारूप छे. जेटले अंशे शुभ के अशुभ राग थाय
तथा दुःख लागे तेटले अंशे सहनशक्तिनो अभाव छे. स्वभावना भानपूर्वक आनंदनी एकाग्रताथी जेटला
रागद्वेष क्रोधादि टळ्‌या तेटली साची सहनशक्ति छे. परंतु जेओ शुभरागमां संतोष माने छे तेओने साची
सहनशक्ति नथी, केमके पुण्य प्रत्ये राग अने पाप प्रत्ये द्वेष एवो विषमभाव तेने सदाय वर्ते छे. पुण्यनी रुचि ते
ज स्वरूप उपरनो महा क्रोध छे. पुण्य–पाप रहित स्वभावना भानपूर्वक जे पुण्य–पापनो अने संयोगनो मात्र
ज्ञाता रही गयो तेने ज साचो समताभाव छे अने तेने ज साची सहनशक्ति छे. एवी वीतरागी सहनशक्ति
सम्यग्दर्शन वगर होय नहि. शुभभावरूप क्षमा तो जीवे अनंतवार करी छे पण पुण्य अने पाप बंने मारूं स्वरूप
नथी, ज्ञान स्वरूपमां राग करवापणुं नथी, एम स्वभावना लक्षे वीतरागी क्षमा कदी पण करी नथी.
() म्ग्र् : एक सेकंडनुं सम्यग्दर्शन अनंत जन्ममरणनो नाश करे छे.
सम्यग्दर्शन प्रगट करतां ज आत्मानुं परिणमन निर्मळ थवा मांडे छे, अने अल्पकाळे मोक्ष थाय छे. ते
सम्यग्दर्शननो उपाय आत्मानी साची समजण करवी ते ज छे, परंतु कोई रागनी क्रिया वडे के करोडो रूपिया
खरचवाथी सम्यग्दर्शन थतुं नथी. सम्यग्दर्शन सहज छे, पोताना स्वभाव साथे तेनो संबंध छे. जे भाव
जरापण कष्टदायक लागे के अरुचिकर लागे ते भावमां धर्म नथी, धर्म भाव तो शांतिदायक छे.
–१६–
वीर सं. २४७२ : वैशाख वद १४
(गाथा – १७)
(१७५) सम्यग्दशन करणरूप जनवचन : – सम्यर्ग्दशन ते कल्याणनुं मूळ छे, एम कह्युं. हवे
श्रीआचार्यदेव कहे छे के आवुं सम्यग्दर्शन जिनवचनथी पमाय छे, माटे ते जिनवचन ज सर्व दुःखने हरनार छे.
जिनवचन छे ते औषध छे; ते औषध अनादिथी जीवने ईन्द्रियोना विषयभूत पदार्थोमां जे सुखबुद्धि छे ते
छोडावे छे. ते जिनवचनो अमृत सरखां छे केमके ते जन्म–जरा–मरणरूपी रोगने हरनारां छे अने सर्व दुःखोनो
क्षय करनारां छे. अहीं मात्र यथार्थ निमित्तनुं ज्ञान कराव्युं छे, पण ते निमित्तथी सम्यग्दर्शन थाय छे एम
समजवुं नहि. पण जे जीव सम्यग्दर्शन प्रगट करे तेने निमित्त तरीके जिनवचन ज होय छे एम समजवुं.
जीव पोताना स्वरूपने भूलीने विषयोमां सुखबुद्धि करे छे तेथी ते दुःखी थाय छे. जिनवचनवडे स्व–
परनुं भेदविज्ञान थतां विषयोमां सुखबुद्धि टळी जाय छे; ए रीते जिनवचनरूपी औषधवडे अज्ञान–मिथ्यात्वनुं
विरेचन थाय छे. जेम रोगोमां औषधि निमित्त छे तेम विषय सुखनुं विरेचन कराववामां जिनवचनो रूपी
औषध निमित्त छे, तेने उपचारथी उपकारी पण कहेवाय छे. सम्यग्दर्शन वडे आत्मस्वभावना सुखनो अनुभव
प्रगटे त्यारे विषयो प्रत्ये सहजे वैराग्य थाय छे. ज्यांसुधी सम्यग्दर्शनवडे स्वभावसुखने न अनुभवे त्यांसुधी
विषयो प्रत्ये साचो वैराग्य आवे नहि.
() ि म्ग्र् ? : अहीं आचार्यभगवान सम्यग्दर्शनना साचा
निमित्तने ओळखावे छे. सम्यग्दर्शनमां निमित्तरूप कोई कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्रना वचनो न होय पण जिनदेवनां
वचनो