चैत्र : २४७४ आत्मधर्म : ८९ :
देशनुं कांई करुं, पर जीवोनुं कांई करुं–एवी मान्यतावाळा जीवोने मिथ्यात्वरूपी सर्पनुं झेर चडयुं छे. ते झेर कई
रीते ऊतरे? ‘सर्व जीव छे सिद्ध सम, जे समजे ते थाय.’ बधा जीवो परिपूर्ण परमात्मा छे; जे पोताना
आत्माने तेवा स्वरूपे ओळखे तेने मिथ्यात्वरूपी झेर ऊतरी जाय ने ते सिद्ध थाय. माटे पोताना आत्मानी
समजण ए ज एक धर्मनो उपाय छे. पोताना आत्मानी समजण सिवाय जात्रा, पूजा, भक्ति, दया, दान वगेरे
शुभरागथी धर्म थतो नथी.
धर्म करवा माटे शुं करवुं? तेनो उत्तर ए छे के, आत्माने सिद्ध समान ओळखवो. हुं शरीरनुं कांई
करनार छुं के विकार जेटलो छुं एम न मानवुं पण शरीर रहित अने विकारथी पण रहित शुद्ध परमात्मा छुं–
एम पोताना आत्माने ओळखीने, मिथ्याश्रद्धानी ऊलटी करीने सवळी श्रद्धा करवी. पोताना आत्माने सिद्ध
समान श्रद्धामां लीधो पछी तेनुं ज माहात्म्य करीने क्रमे क्रमे स्वरूपमां स्थिर थाय ने रागादिनो त्याग करे. साची
समजण थया पछी जे रागादि रहे तेने पोताना स्वरूपमां मानतो नथी तेथी ते टळवा खातर ज छे. साची
समजण थया पछी, जे राग थाय तेने आदरणिय नथी मानता पण पोताना शुद्ध स्वरूपने ज आदरणिय
मानीने तेमां स्थिर थता जाय छे, अने क्रमे क्रमे संपूर्ण स्थिरता प्रगट करीने सिद्ध थाय छे. आ समजणनुं फळ
छे. जे पोताना आत्माने विकारी माने के शरीरवाळो माने तेने विकार वधे छे ने नवा नवा शरीरनो संयोग
रह्या करे छे. अने जे पोताना आत्माने सिद्ध समान माने छे ते सिद्ध थाय छे. आत्मानी साची समजण अने
तेनुं फळ बतावीने, हवे साचा निमित्त कारणोनी ओळखाण करावे छे.
सर्व जीव छे सिद्ध सम, जे समजे ते थाय,
सद्गुरु आज्ञा जिनदशा निमित्त कारणमांय.
बीजी लीटीमां निमित्तकारणनुं ज्ञान कराव्युं छे. जीवने पोतानुं मूळ स्वरूप समजवामां आत्मज्ञानी गुरु
ज निमित्त तरीके होय. कोई एम कहे के आत्मज्ञानी गुरु मळ्या वगर हुं मारी मेळे समजी जउं–तो ते स्वच्छंदी
छे. पोतानुं साचुं स्वरूप अनंतकाळथी नथी समज्यो, तेथी ते स्वच्छंदे समजी शकाय नहि. सद्गुरुनी आज्ञाए
ज समजाय. सद्गुरुनी आज्ञा ते ज शास्त्र छे. आमां पराधीनता नथी. पहेलांं सद्गुरु प्रत्ये अर्पणता आव्या
वगर आत्मस्वभाव समजाशे नहि. जेने आत्मस्वभाव समजवानी अपूर्व तैयारी होय तेने सद्गुरु प्रत्ये
अत्यंत दीनतापूर्वक अर्पणता होय ज. ए रीते सद्गुरुनी आज्ञा ते निमित्तकारणमां छे. पहेलांं तो उपादान
समजावीने पछी निमित्त ओळखावे छे.
जिनदशा ते पण निमित्तकारण छे. वीतरागी जिन चैतन्यबिंब रागरहित आत्मस्वभाव छे, जिनदशा
जेवो शुद्धचैतन्य आत्मस्वभाव छे तेने ज गुरु आज्ञा बतावे छे अर्थात् पोताना आत्माने वीतरागी जिन
स्वरूपे ओळखवो ते सद्गुरुनी आज्ञा छे.
अथवा तो, ‘जिनदशा’ एटले वीतरागी जिनदशा वाळी प्रतिमा ते निमित्त छे. जाणे के चैतन्य बिंब ज
होय–एवी जिनदशावाळी प्रतिमा ते आत्म स्वभाव समजवानुं निमित्त छे. जेना ज्ञानमां आवी सद्गुरुनी
आज्ञा समजाय छे तेने वीतरागी जिनमूद्रा निमित्तरूप होय छे.
ज्ञानीनी आज्ञा ए छे के हे चैतन्य! तुं जिन वीतराग था. पहेलांं एवी श्रद्धा कर के हुं वीतरागी स्वरूप छुं,
मारुं चैतन्यस्वरूप विकार रहित छे. राग होवा छतां आवी श्रद्धा करवी ते धर्म छे. पहेलांं तो श्रद्धामां तुं वीतराग
थई जा. एवी सम्यक्श्रद्धा पछी पण जिनेन्द्रदेव प्रत्ये बहुमान, भक्ति तेमज सद्गुरुनी आज्ञानुं श्रवण–मनन,
अर्पणता वगेरे शुभराग होय छे. विकल्पदशा होवा छतां जो देव–गुरु प्रत्ये भक्ति–बहुमान न होय तो ते जीव
स्वच्छंदी छे. जो सर्वथा राग ज न होय अने वीतरागदशा थई गई होय तो देव–गुरु प्रत्ये बहुमाननो शुभभाव न
आवे; अने कां तो स्वच्छंदी होय तो देव–गुरु प्रत्ये बहुमान ने अर्पणता न आवे. पण नीचली भूमिकामां पात्र
जीवने तो देव–गुरु प्रत्ये अर्पणता होय ज. माटे अहीं यथार्थ निमित्तकारण सिद्ध कर्युं छे.
पोताना स्वभावथी बधाय जीवो सिद्ध समान छे ज. पर्यायमां कोईने ओछुं ज्ञान होय ने कोईने वधारे
होय, पण स्वभावथी बधाय जीवो सरखां छे. एवा आत्माने समजवो ते सिद्ध थवानो उपाय छे. माटे हे जीव!
तुं तारा आत्माने सिद्ध जेवो ओळख. श्री गुरुनी ए ज आज्ञा छे, शास्त्रो पण ए ज बतावे छे अने वीतरागी
प्रतिमा पण ए ज स्वभाव बताववामां निमित्त छे.