Atmadharma magazine - Ank 054
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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चैत्र : २४७४ आत्मधर्म : ९१ :
[वीर संवत २४७३ ना भादरवा सुद प थी १४ सुधीना ‘दस लक्षण पर्व’ ना दिवसो दरमियान
श्री पद्मनंदि पचीसीमांथी उत्तमक्षमा वगेरे दस धर्मोनुं क्रमसर व्याख्यान पूज्य श्री कानजी स्वामीए कर्युं
हतुं, तेमांथी उत्तमक्षमाना व्याख्यानो सार.] अंक ४८ थी चालु –
लेखांक : २
–१२–
चैतन्यस्वरूप आत्मानी रुचि प्रगट करीने शुभाशुभ भावोनी रुचि छोडी देवाथी जे वीतरागी भाव
प्रगटे छे ते उत्तमक्षमा छे, अने ए उत्तमक्षमा साधकजीवने मोक्ष मार्गमां सहचारिणी छे,– ए वात पहेला
श्लोकमां जणावी. हवे, उत्तमक्षमाधर्मथी विरुद्ध एवो जे क्रोधभाव ते मुनीश्वरोए दूरथी ज छोडवो जोईए– एम
श्री आचार्यदेव कहे छे:–
–वसंततिलका–
श्रामण्यपुण्यतरूरत्र गुणौधशाखा
पत्रप्रसूननिचितोऽपि फलान्यदत्वा।
याति क्षयं क्षणत एव धनोग्रकोप
दाबानलात् त्यजत तं यतयोऽत्र दूरम्।।८३।।
श्री पद्मनंदि आचार्यदेव कहे छे के, सम्यग्दर्शनादि गुणो सहित मुनिवरो पवित्र वृक्ष समान छे, अने
उत्तम क्षमा वगेरे गुणो तेनी शाखा–पान अने फूल समान छे; अल्पकाळमां ज ए वृक्ष उपर मोक्षरूपी फळ
आववाना छे. परंतु, जो क्रोधरूपी भयंकर दावानल प्रवेश करी जाय तो ते मुनिदशारूपी वृक्ष कांई पण फळ दीधा
वगर वात वातमां नाश पामी जाय छे; माटे मुनिवरो क्रोधादिने दूरथी ज छोडो.
मुनिराजो वृक्षसमान छे, ने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र तेनी शाखाओ छे, ने मोक्षदशा तेनुं फळ छे.
उत्तमक्षमा वगेरे दसधर्मो सम्यक्चारित्रना ज भेदो छे. सम्यक्चारित्ररूपी वृक्ष वगर मोक्षरूपी फळ आवतुं नथी.
जो ते यति रूपी वृक्षमां क्रोधरूपी अग्नि लागे तो ते झाड नष्ट थई जाय छे, ने मोक्षफळ आवतुं नथी. मुनिदशा
ते मोक्षनी निकटतम साधक छे. मुनि तो मोक्षफळ आववानी तैयारीवाळुं पाकेलुं वृक्ष छे; उत्तमक्षमा वडे मुनिवरो
अल्पकाळमां मोक्ष पामे छे. पण जो आत्मस्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान–पूर्वक क्षमाथी खसीने क्रोध करे तो ते क्रोधरूपी
अग्निवडे यतिरूपी वृक्ष बळी जाय छे. माटे क्रोधने दूरथी ज छोडवा योग्य छे एटले के क्रोध थवा ज न देवो.
अहीं मुख्यपणे मुनिओने उद्देशीने कथन छे, श्रावक–गृहस्थो गौणपणे छे. सम्यग्द्रष्टि गृहस्थने पण अंशे
उत्तम क्षमा धर्म होय छे. विकार थतो होवा छतां ते रहित मारुं स्वरूप छे–एवी ओळखाणपूर्वक स्वभावनो
आदर छे ने विकारनो आदर नथी तेथी तेमने उत्तमक्षमा छे. स्वभावने विकार वाळो मानीने विकारनो आदर
करवो ने विकार रहित ज्ञान स्वभावनो अनादर करवो ए ज क्रोध छे.
सम्यग्दर्शनपूर्वक विशेष स्वरूप स्थिरता करीने जेओ मुनि थया छे, तेओए पोताना चारित्र स्वभावमां
क्रोधने पेसवा देवो नहि. अनंतानुबंधी वगेरे त्रण प्रकारना कषायो तो टाळ्‌या ज छे ने तेटली उत्तम क्षमा तो
प्रगटी ज छे. पण हजी संज्वलन कषाय छे तेनाथी आत्माना गुणनो पर्याय बळे छे. जे त्रण कषाय टाळ्‌या छे ते
तो न ज थवा देवा, अने जे अत्यंतमंद कषाय रह्यो छे तेने पण तोडीने संपूर्ण वीतरागता करवी. अहीं कोई
बीजा पासेथी क्षमा लेवानी नथी. ‘भाई, तमे मने क्षमा करजो’ –एवा शुभ परिणाम ते उत्तमक्षमा नथी. बीजा
पासे क्षमा मागे पण बीजो क्षमा न आपे – तो शुं आ जीव पोते क्षमाभाव न करी शके? खरी क्षमा तो पोते
पोताना आत्माने आपे छे. पूर्वे आत्माने रागवाळो – विकारवाळो मानीने आत्मस्वभाव उपर क्रोध कर्यो ते
दोषनी आत्मा एम क्षमा मागे छे के हे आत्मा, तने क्षमा हो. हवे हुं तने खमावुं छुं. तारा अखंड ज्ञान
स्वभावमां एक विकल्प पण न थवा दउं. हे आत्मा, क्षमा हो तारा परमात्मस्वभावने. हवे हुं तारा आदरने
छोडीने एक विकल्पमात्रनो आदर नहि करुं. आम पोते पोताना स्वरूपने ओळखीने अखंड आनंदपणे टकावी
राखवानी भावना करे छे. तेमां जेटलो राग टळीने वीतरागभाव प्रगट्यो तेटली उत्तमक्षमा छे, ते धर्म छे, ने
तेनुं फळ मोक्ष छे.
उत्तमक्षमानुं पालन करवामां श्री अरिहंत शूरवीर छे. साधकदशामां तेमणे एवी उत्तम क्षमा लीधी के
विकल्पने पण छोडीने वीतरागभाव धारण करीने केवळज्ञान प्रगट कर्युं. श्रीपार्श्वनाथ भगवान मुनिदशामां हता
ने ध्यानमां