: ९२ : आत्मधर्म चैत्र : २४७४
बेठा हता त्यारे कमठे महा उपसर्ग कर्या, परंतु तेमणे तो आत्माना स्वरूपनी एकाग्रतारूप उत्तमक्षमा धारण
करीने अंतर्मुहूर्तमां केवळज्ञान प्रगट कर्युं. उपसर्ग करनार कमठ उपर द्वेषनो विकल्प नथी, ने सेवा करनार ईन्द्र
उपर रागनो विकल्प नथी, एकरूप स्वभावमां लीनता थतां संपूर्ण वीतरागभाव प्रगटीने केवळज्ञान थाय छे.
आवो वीतरागी भाव ते ज उत्तमक्षमा छे. आत्मानुं स्वरूप समजीने तेनुं बहुमान करवुं ते ज उत्तमक्षमानी
आराधनानुं साचुं पर्व छे. मारो ज्ञानस्वभाव अंतरमां सहज क्षमा स्वरूप छे, क्रोधनी वृत्ति मारामां छे ज नहि–
आम पोताना स्वभावना अने क्रोधना भेदज्ञानपूर्वक, स्वभावनी एकाग्रता ते सहज क्षमा छे, ने ते ज धर्म छे.
एवो क्षमाभाव जे आत्मा पोतामां प्रगट करे ते ज पर्वनुं साचुं आराधन करनार छे.
उत्तमक्षमाने धारण करनारा धर्मात्मा केवी भावना करे छे ते हवे बतावे छे–
–शार्दूल विक्रीडित–
तिष्ठामो बयमुज्वलेन मनसा रागादि दोषोज्झिता
लोकः किंचिदपि स्वकीय हृदये स्वच्छाचरो मन्यताम्।
साध्या शुद्धिरिहात्मनः शमवतामत्रापरेण द्विषा
मित्रेणापि किमु स्वचेष्टितफलं स्वार्थः स्वयं लप्स्यते।।८४।।
धर्मात्मा जीव उत्तमक्षमाधर्मनुं चिंतवन करतां एम भावना करे छे के, आ स्वेच्छाचारी लोक पोताना
हृदयमां मने भलो के बूरो – गमे तेवो माने, पण हुं तो राग–द्वेष रहित थईने मारा उज्वळ ज्ञानमां ज स्थित
रहीश. उत्तमक्षमाना धारक पुरुषोने एक पोताना आत्मानी शुद्धि ज साध्य छे. आ जगतमां बीजो वेरी हो के
मित्र हो–तेथी मारे शुं? वेरी के मित्र मारुं तो कांई करी शकता नथी. जे द्वेषरूप के प्रीतिरूप परिणाम करशे तेने
स्वयं तेनुं फळ मळी जशे.
धर्मात्मा भावना करे छे के अमारा स्वभावमां राग–द्वेष नथी. मित्र उपर राग के दुश्मन उपर द्वेष
करवानुं अमारा हृदयमां नथी. खरेखर आ जगतमां कोई कोईनो शत्रु के मित्र ज नथी. स्वेच्छाचारी आ लोक
अमने भला कहो के बूरा कहो–तेथी अमने शुं? कोई वेरी मारा आत्माने नुकशान करवा समर्थ नथी, ने कोई
भक्तो मारा आत्माने लाभ करता नथी. भक्तो भक्ति करे ते तेना पोताना शुभरागने लीधे, ने दुश्मन निंदा
करे ते तेना पोताना द्वेष परिणामने लीधे करे छे. हुं तो बंनेनो जाणनार छुं. मारा ज्ञानमां तो बंने ज्ञेय रूप छे.
आम पोताना ज्ञानस्वभावनी भावनाना बळे ज्ञानी–संतोने रागद्वेषरहित क्षमाभाव होय छे, ते ज उत्तमक्षमा
धर्म छे. जेने पोताना ज्ञानस्वभावनी भावना न होय ते जीवने कदाच बहारमां शुभ परिणाम देखाता होय
परंतु ते शुभरागने आत्मानुं स्वरूप मानीने ते ज्ञानस्वभावना अनादररूप अनंत क्रोधभावने सेवे छे.
सम्यग्दर्शन पूर्वकनी क्षमा ते ज उत्तम क्षमा छे, ने ते ज धर्म छे.
उत्तमक्षमा धर्मने धारण करनारा धर्मात्मा केवा प्रकारनुं चिंत्तवन करे छे ते हवे विशेषपणे बतावे छे–
* स्रग्धरा *
दोषानाधुष्य लोके मम भवतु सुखी दुर्जनश्चेद्धनार्थी
मत्सर्वस्वं गृहीत्वा रिपुरथ सहसा जीवितं स्थानमन्यः।
मध्यस्थस्त्वेवमेवाखिलमिह हि जगज्जायतां सौख्यराशि–
र्मत्तो माभूदसौख्यं कथमपि भविनः कस्यचित्पूत्करोमि।।८५।।
मारा दोषोने बधानी सामे प्रगट करीने संसारमां दुर्जनो सुखी थाव, धनना अर्थी मारुं सर्वस्व ग्रहण
करीने सुखी थाव, वेरी मारुं जीवन लईने सुखी थाव अने जेने मारुं स्थान लेवानी अभिलाषा होय ते स्थान
लईने सुखथी रहे, तथा जेओ रागद्वेष रहित मध्यस्थ थईने रहेवा चाहे तेओ मध्यस्थ रहीने सुखी रहे.– आ
प्रमाणे समस्त जगत सुखथी रहो, परंतु कोई पण संसारी जीवने माराथी दुःख न पहुंचो– एम हुं बधानी सामे
पोकार करुं छुं.
आखा जगतना जीवोथी निरपेक्ष थईने, पोताना आत्मामां वीतराग भावे रहेवानी आमां भावना छे.
मारा ज्ञानमां राग–द्वेष करवानो स्वभाव ज नथी. पोते पोताना आत्मानी आराधनानी उग्रता करता थका
मुनि पोकार करे छे के आ जगतना जीवो तेमने सुख उपजे तेम वर्तो पण हुं मारा ज्ञाताभावरूप क्षमाने नहि
छोडुं. कोई मारा दोष काढीने, के पींछी–कमंडल लईने, के स्थान लईने भले सुख माने अने बीजा कोई वीतराग
भाव पणे रहीने सुखी थाय–पण मने बंने उपर समभाव छे. समस्त जगत सुखी रहो. जगतमां कोई जीव
दुःखी थाय तेवी भावना नथी, एटले खरेखर पोते वीतरागपणे रहेवा मागे छे.
मुनिओ पासे धन वगेरे तो होतां नथी, पण पींछी कमंडळ के पुस्तक होय छे. ते कोई लई जाय तो भले
लई जाव. पींछी वगेरे मारां नथी ने तेना लई जनार