Atmadharma magazine - Ank 054
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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चैत्र : २४७४ आत्मधर्म : ९३ :
उपर मने द्वेष नथी; हुं तो ज्ञायक छुं. वीतराग भावे मध्यस्थ रहेनार ज्ञानीओ उपर मने राग नथी, ने जीवन
हरनार अज्ञानी उपर द्वेष नथी. मारा निमित्ते कोई दुःखी थशो नहि. हुं तो जगतमां जेम थाय तेने जाण्या करुं
अने मारा आत्माना वीतराग भावमां टकी रहुं.–आ प्रमाणे संपूर्ण परिग्रहरहित ज्ञायकभावनी भावनानो
पोकार कर्यो छे.
मुनिदशामां स्वरूपना अनुभवनी एकाग्रतामां टकीने क्रोधादिभावो थवा ज न देवा ते उत्तमक्षमा छे.
अने गृहस्थने क्रोधादिभावो थाय खरा, परंतु क्रोधादिभावो थवा छतां ‘मारुं ज्ञानस्वरूप आ क्रोधादिथी जुदुं छे,
क्रोध मारा स्वरूपमां नथी, खरेखर मारुं ज्ञान तो क्रोधने पण जाणनार छे’ आम, क्रोधथी भिन्न पोताना
ज्ञानस्वरूपना श्रद्धा ज्ञान टकावी राखवा ते पण उत्तम क्षमा छे. जे रागने पोतानुं स्वरूप माने छे ते पोताना
आत्मानी हिंसा करनार छे, ते अनंतक्रोधी छे. अहीं मुख्यपणे तो मुनिदशाना धर्मनी वात छे, पण गौणपणे
सम्यग्द्रष्टि श्रावकनी क्षमा आवी जाय छे – एम समजवुं.
श्रीपद्मनंदि आचार्यदेवे उत्तमक्षमाधर्म संबंधी पांच श्लोको कह्या छे, तेमांथी चार पूरा थया. हवे,
वीतरागभाव छोडीने जो राग–द्वेषनी वृत्ति ऊठे तो स्वभावनी उग्र भावनावडे ते वृत्ति तोडी नांखवी–ते उत्तम
क्षमा छे–एम छेल्ला श्लोकमां कहे छे:–
–शार्दूल विक्रीडित–
किं जानासि न वीतरागमखिलं त्रैलोक्यचूडामणिं
किं तद्धर्ममुपाश्रितं न भवता किंवा न लोको जडः।
मिथ्याद्रग्भिरसज्जनैरपटुभिः किंचित्कृतोपद्रवा–
द्यत कर्माजनहेतुमस्थिरतया बाधां मनोमन्यसे।।८६।।
पोताना स्वरूपनी वीतरागी स्थिरतामांथी बहार नीकळीने पर सन्मुख वृत्ति जतां कांईक राग के द्वेषनो
विकल्प ऊठे ते तोडीने संपूर्ण वीतरागता प्रगट करवा माटे पोते पोताने संबोधीने कहे छे के, रे मन! मिथ्याद्रष्टि
दुर्जन मूर्खजनो द्वारा करवामां आवतां उपद्रवोथी चंचळ थईने कर्मो आववानां कारणभूत एवी वेदनानो तुं
अनुभव करे छे, तो, त्रणलोकमां सर्वथी श्रेष्ठ पूजनीक एवा तारा वीतराग भावने शुं तुं नथी जाणतो? तेमज
जे धर्मनो तें आश्रय कर्यो छे ते धर्मने शुं तुं नथी जाणतो? अने आ समस्त लोक अज्ञानी–जड छे ते वातनुं शुं
तने ज्ञान नथी? अर्थात्–त्रणे लोकमां वीतराग भाव ए ज सर्व श्रेष्ठ छे एम जाणीने, सम्यग्दर्शन–ज्ञानपूर्वक
वीतराग भावरूप चारित्र ते ज धर्म छे एम जाणीने अने आ लोको जड–मूर्ख छे एम जाणीने हे जीव! मूर्ख
अज्ञानी–ओ वडे करवामां आवतां उपसर्गोथी तुं तारा वीतराग भावने न छोड, तुं राग द्वेष करीने दुःखी न था.
उत्तमक्षमानो संबंध पर जीवो साथे नथी. पर जीवने क्षमा करवी के पर जीवो पोताने क्षमा करे–एवी
क्षमानी वात नथी. ‘बधाय पर जीवो पोताने क्षमा करे त्यारे ज क्षमा थई कहेवाय’–एम जो होय तो, ज्यां
सुधी बीजा जीवो क्रोध टाळीने क्षमाभाव न करे त्यां सुधी पोताने पण वीतरागी क्षमाभाव न थई शके, एटले के
क्षमा तो पराधीन थई. पण पराधीनतामां कदी धर्म होई शके नहि. अहीं तो, पोते पोताना ज्ञान स्वभावने
रागादि विकारोथी जुदो जाणीने, गमे तेवा अनुकूळ के प्रतिकूळ संयोगोमां राग द्वेष न करवो ने वीतरागी
ज्ञाताभावे टकी रहेवुं ते ज उतम क्षमा छे; ए स्वाधीन छे. पर जीवो क्षमा आपे के न आपे तो पण पोते
पोतामां उत्तम क्षमा भाव प्रगटावी शके छे.
अहीं तो मुनिदशामां शुभ के अशुभ विकल्प ऊठे ते पण उत्तम क्षमामां भंग छे, तेने टाळीने
वीतरागभावनी भावना करतां मुनिवर पोते पोताने संबोधीने कहे छे के–रे आत्मा! अज्ञानी जीवो द्वारा
करवामां आवेला उपद्रवोथी तुं दुःखित थईने कलेश करे छे, तो शुं त्रिलोकपूज्य एवा तारा वीतरागीभावने तुं
नथी जाणतो?–के जेथी वीतरागताने छोडीने तुं आवा द्वेषभावने करे छे?
एकलो वीतरागभाव ते ज उत्तमक्षमाधर्म छे. ‘हुं वीतराग थउं, ने राग टाळुं’ एवा विकल्पनी मुख्यता
नथी, विकल्प ते क्षमा नथी, पण स्वभावनी एकाग्रतामां वीतरागी पणे परिणमी जवुं ने रागद्वेषनी उत्पत्ति ज
थवा न देवी ते उत्तमक्षमा छे. जेटलो रागादिनो विकल्प ऊठे तेटलो उत्तमक्षमामां भंग पडे छे. आवुं
उत्तमक्षमाधर्मनुं स्वरूप छे. तेनुं संपूर्णपणे पालन न करी शकाय तोपण तेना यथार्थ स्वरूपने ओळखीने श्रद्धा –
ज्ञान करवां अने रागादिभावो थाय तेनो आदर न करवो ते पण उत्तमक्षमाधर्मनो अंश छे. सम्यग्दर्शन अने
सम्यग्ज्ञानमां अखंड चैतन्यस्वभाव तरफनुं जोर टकी रहेतां क्रोधादिभावो जेटले अंशे न थया तेटले अंशे सहज
क्षमा छे.
वळी आ श्लोकमां आचार्यदेवे लोकोने जड कह्या छे, त्यां लोको उपर द्वेष नथी पण पोताना
आराधकपणानी उग्रता छे. पोतानुं ज्ञान केवळज्ञान थवा माटे ऊछळी रह्युं छे, लोको शुं बोले छे ते जोवानी
जरूर नथी. लोको