Atmadharma magazine - Ank 055
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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वैशाख : २४७४ : १०५ :
माराथी जुदा छे–आवा अभिप्रायमां बधाय परभावोनो त्याग आवी गयो, अने शुद्धात्मानुं ग्रहण थयुं, आ
चोथा गुणस्थाननी–सम्यग्दर्शन पामवानी–धर्मी थवानी वात छे. ज्यां सुधी आवा शुद्ध आत्मस्वभावने न
समजे त्यां सुधी जीवनां बधा साधन खोटां छे.
हुं आत्मतत्त्वनो अत्यंत अजाण छुं; देव–गुरु–शास्त्रना अने धर्मात्माना दासनो पण हुं दास छुं, तेमना
चरणनी रजनो पण हुं दास छुं–एवी अर्पणता वगर तत्त्वनुं परिणमन थाय नहि. कोईक पासेथी सांभळीने के
शास्त्रो वांचीने वातो करे तेथी कांई अंतरमां परिणमे नहि. ज्ञानीओ पासेथी श्रवण करेली वात पोताना नामे
चडावीने जगतने कहेवा मांडे अने ए रीते मान पोषे ते तो मोटा स्वच्छंदी छे, अनंत संसारी छे. आ तो
अध्यात्मना अजर प्याला छे, अपात्र जीव ते पचावी शके नहि. अंतरमां जेने आत्मानी खटक छे, आत्माना
हित सिवाय बीजुं कांई ज प्रयोजन नथी, समजीने बीजा पासेथी मोटाई नथी लेवी पण पोताना आत्मा माटे
ज समजे छे एवा मोक्षार्थी जीवनी वात छे. आ जेटली कहेवाणी तेटली बराबर पात्रता प्रगट करे पछी ज
शुद्धात्मानुं अंतर परिणमन थाय. सत् सांभळीने तेना वडे जे विषयकषायने पोषे छे ते महा पापी अनंत
संसारी छे, सत्नुं श्रवण करवाने पण ते पात्र नथी, तेने तो व्यवहारनी लायकात पण नथी, ए तो सीधा
दुर्गतिमां जाय छे.
जेणे तीव्र पाप छोडी दीधुं छे, स्वच्छंद छोडी दीधो छे, पुण्यभाव पण जता करवा छे, विषयोमां जेने
उत्साह नथी, सद्गुरुना लक्षे–तेमनी आज्ञामां वर्ते छे अने बधुं जतुं करीने एक शुद्धचैतन्यस्वभाव ज राखवो
छे ते ज आत्मार्थी छे, अने ते जीव शुद्धात्मानुं सेवन करीने मोक्ष पामे छे. आत्मामांथी स्वच्छंदता छोडे नहि ते
जीव ‘हुं शुद्धात्मा छुं’ एवा सम्यक्अभिप्रायनुं सेवन करी शके नहि. माटे स्वच्छंदने जेणे अत्यंतपणे छोडी दीधो
छे एवा मोक्षार्थी जीवोए शुद्धात्मानी ओळखाण करीने तेनुं ज सेवन करवुं. शुद्धात्मानी ओळखाण वगर जीव
अनंतवार द्रव्यलिंगी साधु थयो अने मेरुं पर्वत जेवडो ढगलो थाय एटला मोरपींछी ने कमंडळ धारण कर्या,
पण शुद्धात्मानुं सेवन न कर्युं तेथी आत्मानुं जराय कल्याण थयुं नहि. एक शुद्धात्माना सेवन सिवाय बीजा
बधाय भावोनुं सेवन जीवे अनंतकाळथी कर्युं छे. व्यवहारना जेटला प्रकार छे तेनुं सेवन कर्युं छे पण
निश्चयस्वभाव एकरूप चैतन्यमय परिपूर्ण छे तेनुं कदी सेवन कर्युं नथी. शुद्धात्मा सिवाय तीर्थंकरगोत्र पण
सेववायोग्य नथी. तीर्थंकरगोत्र तो जड कर्म छे ते तो परद्रव्य छे ज, पण जे भावथी तीर्थंकरगोत्र बंधाय ते
भाव पण मारा आत्माथी परद्रव्य छे; हुं तो शुद्ध चिन्मात्र छुं. एवा सिद्धांतनुं सेवन करवुं ते मुक्तिनो उपाय
छे. माटे श्री आचार्यदेव कहे छे के–
हे मोक्षार्थी जीवो! तमे आ सिद्धांतनुं सेवन करो के ‘ हुं तो शुद्ध चैतन्यमय एक परमज्योति ज सदाय छुं;
अने आ जे भिन्न लक्षणवाळा विविध प्रकारना भावो प्रगट थाय छे ते हुं नथी, कारण के ते बधाय मने
परद्रव्य छे. ’
आत्मानो सुख स्वभाव
श्री प्रवचनसार गाथा ६७–६८ उपर परम पूज्य श्री कानजी स्वामीना व्याख्याननो सार
:::– सां. २४७२ : पोष सुद प –:::
आत्मा पोतानी मेळे ज सुख परिणामनी शक्तिवाळो छे, तेथी बहारना विषयो तेने कांई ज करता
नथी. एम बतावे छे–
जो द्रष्टि प्राणीनी तिमिरहर, तो कार्य छे नहि दीपथी;
ज्यां जीव स्वयं सुख परिणमे, विषयो करे छे शुं तहीं? ६७.
अर्थ:–जो प्राणीनी द्रष्टि तिमिरहर होय तो (एटले के अंधारामां देखी शके एवी ज आंख होय तो)
दीवाथी कांई प्रयोजन नथी अर्थात् दीवो कांई करतो नथी, तेम ज्यां आत्मा स्वयं सुखरूप परिणमे छे त्यां
विषयो शुं करे छे?
जीव पोतानी दशाथी ज सुखरूप थाय छे. सामग्रीओ तेने कांई करती नथी. अहीं ‘आनंद–अधिकार’
होवाथी सुखनी वात करी छे. सुखनी जेम दुःखरूपे पण जीवनी दशा थाय छे, तेमां प्रतिकूळ सामग्री कांई करती
नथी. जे जीवनी आंखनी शक्ति ज अंधाराने हणनारी छे तेने पदार्थो जाणवा माटे दीपकनी जरूर नथी, ते