Atmadharma magazine - Ank 055
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: १०८ : आत्मधर्म : ५५
ज्ञान इंद्रियो के रागादिथी थतुं नथी पण आत्मा पोते ज सहज ज्ञानस्वभावे परिणमीने सर्वने जाणे छे.
आत्माने ज्ञान साथे ज एकपणुं होवाथी आत्मा स्वयमेव ज्ञान छे. आ रीते, जेम सूर्य पोतानी
स्वभावशक्तिथी स्वयमेव प्रकाशवाळो छे तेम आत्मा पोतानी स्व–पर प्रकाशक सहज शक्ति साथे एकमेक
होवाथी पोते ज ज्ञान छे–एम एक वात सिद्ध करी.–१.
हवे बीजा बोलमां आत्मा पोते स्वभावथी ज सुख छे–ए वात जणावे छे. जेम–लोखंडनो गोळो कोईक
वार अग्निनुं निमित्त पामीने उष्ण थाय छे परंतु सूर्य तो कोईना निमित्त वगर पोताना स्वभावथी ज सदाय
स्वयमेव उष्णतारूपे ज परिणमेलो छे तेम आ भगवान आत्मा कोई पण निमित्तोनी अपेक्षा राख्या वगर
पोताना स्वरूपथी ज, आत्मतृप्तिथी उपजतुं जे संपूर्ण अनाकुळ सुख तेमां सुस्थित होवाने लीधे, सुख छे.
आत्मानुं साचुं सुख पोताना स्वरूपमां तृप्तिथी ज छे, कोई परद्रव्यना भोगवटाथी आत्मतृप्ति थती नथी ने
सुख थतुं नथी. जेने पोतानी आत्मतृप्ति थती नथी ते जीव विषयोथी तृप्ति करवानुं माने छे, अने विषयोनी
आकुळताथी दुःखी थाय छे. आत्मतृप्तिथी परिनिर्वृत्ति उपजे छे एटले के विषयोथी पराग्मुख थईने
आत्मस्वरूपमां स्थिरता करवाथी संपूर्ण मोक्षसुख उपजे छे, ते संपूर्ण आकुळतारहित छे. सम्यग्द्रष्टि जीवोने
आत्माना स्वयमेव सुख स्वभावनुं भान थयुं होय छे ने अंशे तेवुं सुख अनुभव्युं होय छे. साधक धर्मात्माने
पोताना पूर्ण निवृत्त स्वरूपनी श्रद्धा–ज्ञान ने अनुभव होय छे पण हजी परिनिर्वृत्ति नथी केम के संपूर्ण
स्वरूपस्थिरता नथी. सिद्ध भगवंतोने पोताना निवृत्त आत्मस्वरूपमां संपूर्ण स्थिरता वडे सुखनी परिपूर्णता
थई छे, तेनाथी जे संपूर्ण अनाकुळता प्रवर्ते छे तेमां आत्मा पोते ज तन्मय छे तेथी आत्मा पोते ज सुख छे.
अज्ञानी जीव विषयोमां सुखबुद्धिने लीधे विषयोमां ज स्थित छे अर्थात् परने भोगववानी आकुळतामां
ज ते स्थित छे. ज्ञानी जीवो तो आत्मतृप्तिथी उपजतुं जे विषयातीत सुख तेमां ज सुस्थित छे. सिद्धभगवंतो
सदाय एम ने एम अनाकुळतामां ज स्थित होवाथी तेओ पोते ज सुख छे. जे पोते ज सुख छे तेने सुख माटे
बीजा कोनी जरूर होय? ‘ सिद्ध दशामां तो शरीर नथी, कुटुंब नथी, लाडी नथी, वाडी नथी, पैसा नथी, बाग–
बगीचा के मोटर नथी, खावापीवानुं कांई नथी, राग नथी, एकला आत्मस्वभाव सिवाय बीजु कांई नथी.
स्वभावथी ज आत्मा सुखी छे. ’ एम सांभळीने जे जीव कहे छे के– ‘बस, एकलो आत्मा? एकला आत्माने
अद्धर लटकी रहेवुं तेमां शुं सुख? सारी सारी वस्तुओना भोगवटा वगर आत्माने सुख कई रीते होय? –’
तेणे (–एम कहेनार जीवे) आत्माने ज कबुल्यो नथी, तेने आत्माना स्वभाव सुखनो विश्वास नथी पण
ईन्द्रियोना विषयोमां सुखनो विश्वास छे. आत्मानो पोतानो स्वभाव ज सुख छे ने आत्मा पोते सुखरूप थाय
छे एनी मूढ अज्ञानीने खबर नथी एटले ते पर संयोगने जुए छे. जेणे एक पण पर विषयमां सुख मान्युं छे
ते जीवने अनंता पर विषयोमां आसकित छे. अज्ञानी जीवने पण संयोगना कारणे सुखनी कल्पना नथी ए
वात तो प्रथम ज सिद्ध करी छे. अज्ञानी पोते ज मिथ्या कल्पनाथी परमां सुख मानीने ते कल्पनारूपे परिणमे
छे, पण कांई ते साचा सुखरूपे परिणमतो नथी. ने विषयो तेने सुखनुं कारण थता नथी. जे कल्पनारूप सुख छे
ते पण कायमी नथी, एक ज्ञेय पदार्थनुं लक्ष छूटीने बीजा ज्ञेय पदार्थ उपर लक्ष जतां ते सुखनी कल्पना बदली
जाय छे. अज्ञानी जुदा जुदा विषयोनुं लक्ष करीने तेमां सुख कल्पे छे, खरेखर तो ते वर्तमान ज अत्यंत दुःखी
छे. जो दुःखी न होय तो तेनो उपयोग विषयोमां केम भमे? विषयोने ग्रहण करवानी आकुळतानुं दुःख तेने एक
ज प्रकारनुं छे, मात्र तेनो विषय बदलाव्या करे छे. ज्ञानीओ प्रथम तो, आत्मानो सुख स्वभाव ज छे, ने कोई
पण पर पदार्थोमां सुख नथी–एम भेदज्ञानवडे जाणीने, आत्मस्वभावमां संपूर्ण स्थिरता प्रगट करीने आत्माथी
ज स्वयं सुखरूप थाय छे. त्यां सुखनी कल्पना नथी पण आत्मा पोते स्वभावथी ज साक्षात् सुखरूपे परिणमी
गयो छे. आत्माना सुखमां कोई पण पर पदार्थो कांई ज करता नथी. आ रीते, सूर्यनी उष्णतानी माफक आत्मा
पोते ज सुख छे.–२.
ए रीते, आत्मा स्वयमेव ज्ञान छे अने आत्मा स्वय–मेव सुख छे ए बे वात समजावी. हवे कहे छे के–
जेम आकाशमां, कोई बीजा कारणनी अपेक्षा राख्या वगर, सूर्य स्वयमेव देवगति नामकर्मना धारावाही उदयने
वशवर्ती स्वभाव वडे देव छे तेम भगवान आत्मा पण, बीजा कोई पण कारणनी अपेक्षा राख्या वगर
स्वयमेव, पोते दिव्य आत्मस्वरूपवाळो होवाने लीधे देव छे. जेम सिद्ध