Atmadharma magazine - Ank 055
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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वैशाख : २४७४ : १०९ :
भगवान देव छे तेम बधाय आत्माओ दिव्यस्वरूपवाळा होवाने लीधे स्वयमेव देव छे.
भगवान आत्मा देव छे. दिव्य आत्मस्वरूपने देव तरीके कोण स्तवे छे? जेमने आत्मतत्त्वनी उपलब्धि
निकट छे एवा बुध जनोना मनरूपी शिलास्तंभमां दिव्यआत्मस्वरूपनी अतिशय द्युतिनी स्तुति कोतरायेली छे.
आत्मा पोते स्वयमेव देव छे. अज्ञानी जीवने आत्मस्वरूपनी दिव्यता भासती नथी, तेथी तेना हृदयमां
दिव्यआत्मस्वरूपवाळा देवनी स्तुति होती नथी. ते तो अज्ञानपणे विषयोमां सुख मानीने मिथ्यात्वने स्तवे छे.
जेमने आत्मस्वरूपनी दिव्यतानी श्रद्धा–ज्ञान अने अनुभव थयो छे अने जेमने पोतानी केवळज्ञान दशा तद्न
नजीक छे एवा महान संत–मुनिवरो, गणधरो वगेरे सर्वे साधक जीवोना हृदयमां शुद्धसिद्धात्मा समान देव
समाणां छे, ने ते जीवोना हृदयमां तेनी स्तुति निरंतर वर्ते छे. जेम पत्थरना थांभलामां सिद्ध भगवाननी मूर्ति
कोतराई गई होय तेम साधक जीवोना श्रद्धा–ज्ञानरूप शिलास्थंभमां आत्माना सिद्धस्वरूपनी दिव्यतानी स्तुति
कोतरायेली छे. अहीं आचार्य प्रभु ए बतावे छे के साधक जीवोना अंतरमां पोताना आत्मस्वरूपनो ज आदर
छे, बीजा कोईनो आदर होतो नथी. ज्ञानी जनोने आत्मानुं अतींद्रिय सुख अनुभवमां आवी गयुं छे, अने
पोतानो आत्मा सिद्ध भगवान जेवो ज दिव्यस्वरूपी छे एना श्रद्धा–ज्ञान–अनुभव थया छे, तेथी तेमना
ज्ञानरूपी शिलास्थंभमां पोताना आत्मस्वरूपनी दिव्यतानो ज महिमा कोतराई गयो छे के अहो, आत्मस्वरूपी
दिव्यता! कोई पण पदार्थोनी अपेक्षा वगर पोते पोताथी ज परिपूर्ण ज्ञान अने सुखवाळो छे. हुं ज स्वयमेव
ज्ञान–सुख ने देव छुं. मारा ज्ञान अने सुखने कोई पण अन्य द्रव्यनी सहाय नथी. पहेलांं अज्ञानपणे दिव्य
आत्मस्वरूपने भूलीने बहार विषयोमां सुख कल्प्युं हतुं, पण ज्यारे ज्ञानी संतो पासेथी एम सांभळ्‌युं के ‘
इंद्रियोना विषयरहित, आत्माने ज्ञानपरिणमनथी संपूर्ण सुख होय छे;’ अने पोताने एवा आत्मस्वभावनी
श्रद्धा–ज्ञान–अनुभव थईने विषयोमांथी सुखबुद्धि टळी गई त्यारथी धर्मात्माना हृदयरूपी शिलास्थंभमां दिव्य
सिद्धस्वरूपनी स्तुति कोतराई गई छे. पहेलांं विषयोमां एकताबुद्धि हती तेने बदले हवे हृदयस्थंभमां पोताना
भगवान आत्माना दिव्यस्वरूपनी स्तुति कोतराई गई. जेम पत्थरना स्थंभमां कोतरेली मूर्ति भूंसाय नहि तेम
धर्मी जीवोना श्रद्धा–ज्ञानरूपी स्थंभमां आत्मस्वरूपनी जे स्तुति कोतराई गई छे ते कदी भूंसाय नहि एटले के
आत्मस्वरूपना जे श्रद्धा–ज्ञान कर्या ते कदी भूंसाय नहि, अप्रतिहत श्रद्धा–ज्ञान टकीने अल्प काळमां केवळज्ञान
पामे.–आवा भावो आचार्यदेवनी कथनीमां भरेला छे.
निर्लेप सर्वज्ञ सुखस्वभावनुं माहात्म्य तो ज्ञानीओने ज होय छे, ज्ञानीओने पुण्य–पापनुं के शरीरादिनुं
माहात्म्य होतुं नथी. अज्ञानी जीवोने पुण्य–पापनुं अने शरीरादि बाह्य पदार्थोनुं माहात्म्य आवे छे पण अंतरंग
शुद्धात्मस्वभावनुं माहात्म्य आवतुं नथी. जेने कांई पण व्रत–तप नथी एवा सम्यग्द्रष्टि धर्मात्माथी मांडीने श्री
तीर्थंकर प्रभुना धर्म वजीर–ते भवे मोक्षगामी श्री गणधरदेव पर्यंत बधाय साधक जीवोना ज्ञानमां सिद्धनी
स्तुति कोतराई गई छे. जेने अल्पकाळमां सिद्ध थवुं छे एवा साधक जीवो ज सिद्धने ओळखीने तेनी स्तुति करे
छे. पोतानुं दिव्य आत्मस्वरूप छे ते ज खरेखर सिद्ध, देव छे. एवा पोताना सिद्धस्वरूपनी दिव्यशक्तिनुं
माहात्म्य ज्ञानी धर्मात्माओना हृदयमां कोतराई गयुं होवाथी, ज्ञानीओने पोतानो आत्मा ज स्वयमेव देव छे.
सिद्ध भगवान एटले के आत्मानुं संपूर्ण शुद्धस्वरूप ते ज्ञानीओना देव छे. सिद्धभगवान अज्ञानीना देव नथी
पण ज्ञानीओना ज देव छे. अज्ञानीना देव तो पुण्य अने तेना फळरूप विषयो छे केम के शुद्धात्मानी तेने रुचि
नथी पण विषयोमां सुखबुद्धि छे, तेथी तेने पुण्यनो अने तेना फळनो महिमा भासे छे. आत्मानी दिव्यतानो
महिमा भासतो नथी. ज्ञानीने कोई पण बाह्य विषयोनो महिमा नथी; तेमने साधक दशामां शुभ परिणाम थता
होवा छतां तेनी तुच्छता भासे छे, ने पोताना चैतन्यस्वभावनो ज महिमा छे.
जेम बाळकना अंतरमां तेनी मातानुं ज रटण होय छे, माताथी विखूटो पडेलो बाळक रडतो होय ते
वखते कोई तेने रमकडां के सारुं सारुं खावानुं आपे, पण संतोषाय नहि, ‘बस मारी बा, मारी बा’ एम
पोकार करतो होय. तेम अल्प काळमां जेओ केवळज्ञान लेवाना छे एवा धर्मी जीवना अंतरमा ‘मारा सिद्ध–
भगवान, मारी सिद्ध दशा’ एम ज रटण थई रह्युं छे. पोताना स्वभाव सिवाय बीजा कोई पण भावथी तेओ
संतोषाता नथी. अहो, पूर्ण स्वभाव सुखनो विरह ते