Atmadharma magazine - Ank 055
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: ११० : आत्मधर्म : ५५
नबळाई छे; ते नबळाईमां तीर्थंकरगोत्रनां पुण्य थाय तो तेनी पण ज्ञानीने प्रीति नथी, तेनो महिमा नथी.
स्वरूपनी पूर्णानंद दशानी झंखना अने महिमा छे. पर्यायमां अल्प द्वेष के रागभाव थई जाय तो तेनाथी
पोतानुं दिव्यस्वरूप हणाई जशे एवी शंका कदी ज्ञानी करता नथी, पण पोताना हृदयमां सिद्धने स्थाप्या छे तेनी
स्तुतिना जोरे ते राग–द्वेषने हणी नाखे छे.
लोकोमां एवी वात आवे छे के श्रीहनुमाने छाती चीरी त्यां अंदरथी भणकार ऊठया के श्रीराम.....
श्रीराम! तेम धर्मात्माना अंतरमां पर्याये पर्याये भणकार ऊठे छे के सिद्ध भगवान.... सिद्ध भगवान. मोहरूपी
पडदाने–चीरीने अंतरमां शुद्ध आत्मारामना भणकार ऊठया छे. सदाय परिपूर्ण सुख अने ज्ञानमय दिव्य
शक्तिवाळो पोतानो सिद्धस्वभाव धर्मीना हृदयमां कोतराई गयो छे. सिद्ध जेवो त्रिकाळ परिपूर्ण स्वभाव छे ते
सिवाय बीजा कोई भावोना भणकार धर्मीना हृदयमां नथी, अर्थात् पर्याय उपर द्रष्टि ज नथी. धर्मीना हृदयमां
अधूरा पर्यायने स्थान नथी. कोई पुण्य वच्चे आवी जाय तो तेने य स्थान नथी. धर्मीना हृदयमां तो एक
चैतन्यमय सिद्धबिंब ज बिराजमान छे; ज्ञानी तो सिद्धदशानी प्राप्ति करवा माटे ज उत्साहित छे, सिद्धदशाने
प्राप्त करवाना उत्साहमां वच्चे बीजा कोई भावोनो महिमा आववा देता नथी. एक सिद्ध, सिद्ध ने सिद्ध, बीजी
वात नहि. साधकदशामां गमे तेवा ऊंचा पुण्य–भाव आवे तेनी स्तुति ज्ञानीओ कदापि करता नथी. आ
भगवान आत्मा पोते दिव्य आत्मशक्तिवाळो छे अने तेनी दिव्यतानी स्तुति ज्ञानीओनां हृदयमां कोतराई गई
छे तेथी पोते (–आत्मा) स्वयमेव देव छे, तेमां कोई अन्य कारणनी अपेक्षा नथी.–३.
सिद्धदशामां, शरीर अने रागादिथी भिन्न एवुं आ आत्मतत्त्व पोते ज ज्ञान छे, पोते ज सुख छे ने पोते
ज दिव्य शक्तिवाळो देव छे. स्वयमेव ज्ञान, सुख ने देवरूपे थयेला ते आत्मतत्त्वने पोताना ज्ञान, सुख के
दिव्यता माटे कोई बीजा कारणोनी जरूर नथी, पुण्यनी जरूर नथी, संयोगनी जरूर नथी, शरीरनी जरूर नथी.
जे आवा सिद्धने ओळखे ते जीव पोताना आत्माने पण तेवा ज्ञान, सुख अने दिव्य शक्तिमय स्वरूपे ओळखे,
तेवा सम्यग्द्रष्टि जीवना हृदयमां सिद्धनी स्तुति कोतराई गई छे, कोई पुण्यनी के स्त्री आदि संयोगनी जरा पण
स्तुतिने अवकाश नथी. एक सिद्धस्वरूप सिवाय बीजा कोई पण भावोने ज्ञानी उपादेय समजता नथी. अहो!
ज्ञानीओना अंतरमां सम्यक्श्रद्धा–ज्ञानरूपी थांभलामां जेनी अतिशय भव्यतानी स्तुति कोतरायेली छे एवो आ
भगवान शुद्धात्मा पोते ज दिव्यशक्ति–स्वरूप देव छे, एना माहात्म्यने लीधे ज्ञानीओने पुण्य वगेरेनुं माहात्म्य
सहजपणे ज टळी गयुं छे, अने विषयोमां सुखनी मान्यता ज्ञानीओने स्वप्ने पण होती नथी.
धर्मीना अंतःकरणमां सिद्ध भगवाननी दिव्यतानी स्तुति निरंतर कोतरायेली छे; धर्मी जीवो कदी संसारी
जीवना पुण्यनां के पुण्यना फळनां वखाण अंतरथी करता नथी. ज्ञानमूर्ति परमानंद सिद्धदशा ए ज मारे
आदरणीय छे, पुण्यभाव थाय ते मारे आदरणीय नथी, तो पछी पापभाव तो आदरणीय होय ज क्यांथी?
मोटा देवो ने इंद्रो आवीने धर्मी जीवनी सेवा करे तोपण धर्मी जीव तेनाथी पोतानो महिमा मानता नथी,
ईन्द्रपदवीनी प्रशंसा करता नथी. तेमना अंतरमां तो सिद्धपणुं कोतराई गयुं छे के हुं सिद्ध छुं, मारा अने सिद्धना
स्वरूपमां फेर नथी. अहो, हुं तो सिद्धसमान. ‘
सिद्ध समान सदा पद मेरो’ मारुं पद त्रणे काळ सिद्धसमान ज
छे. सिद्धदशा सिवाय बीजो कोई भाव मारुं स्वरूप नथी. हुं तो सिद्ध भगवाननो नंदन छुं. हुं कोई संसारी
बापनो पुत्र नथी परंतु परम पिता सिद्ध भगवाननो पुत्र छुं.
जेम लौकिकमां पतिव्रता स्त्रीना हृदयमां एक पतिने ज स्थान छे, अने जेनुं जीवन सट्टामय छे एवा
सटोडियाने स्वप्ना पण सट्टानां आवे छे, तेम धर्मात्माना हृदयमां एक सिद्ध भगवान सिवाय बीजा कोईने
स्थान नथी, पोताना परिपूर्ण शुद्धात्मस्वरूपनी ज तेने प्रीति–रुचि छे, स्वप्नमां पण सिद्धपणुं भाळे छे,
सिद्धदशानां स्वप्ना आवे छे, ‘हुं सिद्ध छुं’ एवो भणकार ऊठे छे, वातो पण सिद्धदशानी ज वारंवार होंशथी करे
छे. आवा धर्मात्मा ज्ञानीओ आत्मस्वभाव सिवाय बीजे क्यांय सुख मानता नथी. विषयोनी अपेक्षा वगरना
स्वाभाविक सुखने तेओ अनुभवे छे. अहीं आचार्यदेव कहे छे के, जो आत्माने पोताना स्वभावथी ज सुख छे,
ने विषयोथी सुख नथी तो पछी एवा विषयोथी बस थाओ.