जीवने तेमां सुखना साधनपणानी मिथ्या कल्पना थई छे. परंतु, जेम मृगजळ ते खरेखर पाणी नथी पण
पाणीना आभासमात्र छे, अने तेने पाणी मानीने तेनाथी तृषा छीपाववा माटे ते तरफ दोडनारा मृगलाने तृषा
वधारवानुं ज ते कारण छे, तेम आ आत्माने बहारना विषयो शांतिनुं साधन नथी पण अज्ञानी जीवने
शांतिना आभासमात्र छे. पर विषयो आभासमात्र सुखनां साधनो दूरथी (अज्ञान–भावे) देखाय छे पण
खरेखर ते दुःखनां ज निमित्तो छे. विषयोने सुखनां साधन मानीने, तेना वडे पोतानी आकुळता मटाडवा माटे
जे जीव आत्मस्वभावथी च्यूत थईने पर विषयो तरफ पोताना उपयोगने दोडावे छे ते जीवने मात्र
आकुळतारूप दुःख ज थाय छे. माटे एवा ईन्द्रिय विषयोथी बस थाव, बस थाव.
सम्यग्द्रष्टि जीवे आत्माना अतीन्द्रिय सुखनो स्वाद चाख्यो छे, ते गृहस्थ–दशामां होय तोपण अंतरमां योगी
जेवा छे, आखा विश्वना बधाय पदार्थोमांथी सुखबुद्धि ऊडी गई छे, एक आत्मस्वरूपना सुख सिवाय बीजे
क्यांय तेमनी रुचि ठरी शकती नथी.–आवी आत्मदशा प्रगटे तेनुं ज नाम धर्म छे, अने अल्पकाळमां ज संपूर्ण
पारमार्थिक सुख प्रगटवानुं ते साधन छे. हे आत्मा! कांई बहारना पदार्थोमां तारा सुखनो भंडार भरेलो नथी,
तारो आत्मा पोते ज सुखनो भंडार छे. पोताना आत्माने छोडीने बहारना पदार्थोमां सुख माटे झांवा नांखवा
ते तो आकुळता छे–दुःख छे. पोताना आत्माने ओळखीने तेमां एकमेक थाय तो पोताना पूर्ण सुखनो प्रगट
अनुभव थाय.
ते कोई संयोगनी के रागनी प्रीति धर्मात्माने नथी, ए बधायने लक्षमांथी छोडी दईने वारंवार पोताना
परमानंदमय स्वभावमां ढळी जवानो प्रयत्न करे छे. स्वभावनो ज आदर करता करता अने राग रही जाय
तेनो निषेध करता करता धर्मात्मा जीव साधकभावमां आगळ वधे छे. अने छेवटे स्वभावनी एकाग्रताना जोरे
संपूर्ण रागादिनो अभाव करीने पोते पूर्ण सुखी सिद्ध थई जाय छे.
सुखार्थी जीवो विषयालंबी भाव छोडीने निरालंबी परमानंद स्वभावे परिणमो.
करे छे के – हे जगतना सुखार्थी जीवो! विषयोमांथी आत्माने सुख नथी मळतुं, पण आत्माने पोताना
स्वभावथी ज सुख छे एम बराबर समजो अने विषयालंबी सुखबुद्धि छोडीने आत्मानी रुचि करीने आत्माना
निरालंबी परमानंदमय स्वाधीन सुखरूपे परिणमो. एकला निज चैतन्यस्वरूपने अवलंबनारो भाव ते ज सत्य
सुख छे, तेमां आकुळता नथी. ए सिवाय जगतना बधाय पदार्थोने अवलंबनारो भाव ते दुःख ज छे, शरीर–
पैसा–स्त्री आदिने अवलंबतो भाव हो के देव–गुरु–शास्त्र ने अवलंबतो भाव हो – ते भाव पोते पराधीन
अने दुःखरूप छे, विषयालंबी कोई भावमां सुख नथी. दिव्यध्वनिनुं श्रवण करवानो भाव ते पण विषयालंबी
भाव छे ने तेमांय आकुळता छे, माटे सर्व विषयोथी भिन्न अने विषयालंबी भावोथी पण भिन्न एवा,
स्वयमेव ज्ञान अने सुखरूप निज आत्मतत्त्वने ओळखीने स्वावलंबी भाव वडे आत्माना साचा सुखने पामो.
एक पोतानो आत्मा ज सुखनुं साधन छे, माटे आत्मानी ओळखाण करीने श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र वडे तेनुं ज
अवलंबन करो. ते ज धर्म छे अने ते ज आत्माना पारमार्थिक सुखनो उपाय छे.