Atmadharma magazine - Ank 055
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: ११२ : आत्मधर्म : ५५
धर्मात्मानो समभाव–
‘भगवानश्री कुंदकुंद प्रवचन मंडपोद्घाटन’ वार्षिकोत्सव दिने
परमात्म–प्रकाश गाथा १०४ उपर परम पूज्य श्री कानजी स्वामीनुं प्रवचन
धर्मी जीवनी द्रष्टि आत्माना स्वभाव उपर होय छे तेथी तेने बधाय भावो उपर समभाव होय छे. ते
आत्माना त्रिकाळी स्वरूपने माने छे, पण पर्याय जेटलुं स्वरूप मानतो नथी, अने बीजा जीवोने पण पर्याय
जेटला स्वरूपे मानतो नथी, तेथी ते कोई जीवने शत्रु के मित्र तरीके जोतो नथी. माटे तेने बीजाने देखीने राग–
द्वेष थता नथी, पण समभाव ज रहे छे.
हुं बीजानुं करी शकुं के बीजा मारुं कांई करी शके एम तो कदी बनतुं ज नथी. हुं कोईनो शत्रु के मित्र
नथी, ने बीजा कोई मारा शत्रु के मित्र नथी, केमके हुं तो जाणनार ज्ञायकमूर्ति स्वभावसंपन्न तत्त्व छुं, ने बधाय
जीवो पण तेवा ज छे. –आम धर्मात्मा जाणे छे. धर्मी जीवने आवी स्वभावद्रष्टिमां पुण्य–पापनो पण स्वीकार
नथी. पर्यायमां अस्थिरताने लीधे अल्प राग द्वेष थाय छे, पण ते बीजाने शत्रु के मित्र मानीने थता नथी, ने
तेने स्वभावमां स्वीकारता नथी, अने ते राग–द्वेष वखतेय ज्ञान स्वभावनी एकता ने श्रद्धा छूटती नथी; तेथी
खरेखर तो ज्ञानीने रागद्वेष थता ज नथी पण स्वभावनी एकता ज थाय छे.
ज्ञानी जीवने पोताना स्वभावनी श्रद्धा ने एकाग्रता छूटीने राग–द्वेष थता नथी, राग–द्वेष थाय ते
पर्याय जेटलो आत्माने मानता नथी; ए रीते पोतामां पर्यायद्रष्टि टळी गई छे तेथी पर जीवने पण पर्याय
जेटलो जाणता नथी, माटे परनी पर्याय देखीने ज्ञानीने रागद्वेष थता नथी. आ रीते ज्ञानीने पर्यायबुद्धिनुं कार्य
आवतुं नथी माटे ज्ञानी जीव पर्यायने देखे छे–एम खरेखर कही शकातुं नथी. पोताना आत्मामां पर्यायबुद्धि
टळीने स्वभावद्रष्टि थई छे तेथी, हुं राग–द्वेष करनार छुं’ एम ज्ञानीने भासतुं नथी; माटे पर जीवोमां पण
रागादि पर्याय देखीने तेमने राग–द्वेष थतो नथी, तेमनुं ज्ञान रागथी अधिक ज रहे छे. आनुं ज नाम समभाव
छे, ने आज धर्म छे.
अज्ञानी जीवने पर्यायबुद्धिमां एकला रागद्वेष ज भासे छे. रागद्वेष रहित पोतानो त्रिकाळी स्वभाव छे
तेने बुद्धिमां लीधो नथी तेथी ते पोताने पर्याय जेटलो ज भाळे छे. ‘आ राग थयो ते हुं, राग में कर्यो, हुं
रागरूप थयो, हुं माणस, अमुक जीव मारो मित्र, अमुक जीव मारो शत्रु’ एम अज्ञानी जीवने पर्यायबुद्धि ज छे
अने तेथी तेने पर्यायबुद्धिना अनंत रागद्वेष थाय छे. पर्यायबुद्धिने लीधे ज भगवानने देखीने राग ने
निगोदादिने देखीने द्वेष थाय छे. ज्ञानी जीवोने पर्यायनुं ज्ञान तो थाय छे परंतु पर्यायबुद्धि थती नथी. तेथी ते
बधाय जीवोने परमात्मा ज जाणे छे. –आ सम्यग्द्रष्टिनुं चिन्ह छे. ज्ञानी जीवने, पर्यायने जाणवा छतां
पर्यायबुद्धिना रागादि जरा पण थता नथी, माटे खरेखर तो ज्ञानी जीवो पर्यायने जाणता ज नथी–एम अहीं
स्वभावद्रष्टिनुं जोर छे.
आत्म स्वभाव उपर जेनी द्रष्टि नथी ते जीव बधा आत्माओने समान जाणतो नथी, पण शरीरना
भेदथी ते जीवमां भेद पाडे छे, तेथी ते बीजाने शत्रु अने मित्र माने छे. तेने कोई रीते समभाव होतो नथी. हुं
ज्ञान स्वभाव छुं ने बधाय जीवो ज्ञानस्वभावी ज छे–एवी द्रष्टिमां ज्ञानीने बधाय उपर समभाव ज छे, कोई
पण जीवने जोतां तेना उपर राग–द्वेष थतो नथी, केम के ते जाणे छे के ज्ञानस्वभावमां कोई पर द्रव्य लाभ के
नुकशान करतुं ज नथी.
पोताना स्वभावना आश्रये ज बधा उपर समभाव रहे छे. भगवाननी महेरबानी थाय तो मने
समभाव रहे–एम माननार गृहीत मिथ्याद्रष्टि छे. हुं अने बधा जीवो पूर्ण परमात्म स्वरूपे ज छीए एवी
द्रव्यद्रष्टि वगर समभाव रही शके नहि. भगवाननी कृपा थाय तो मने समभाव रहे एम माननारे पोताना
परिणामनुं स्वाधीनपणुं मान्युं नथी. वर्तमान पर्यायनी स्वाधीन हयाती पण न मानी, ने पर्यायना आधारभूत
त्रिकाळी द्रव्यने तो शेनो माने? त्रिकाळीद्रव्यना आधार वगर पर्यायबुद्धि टळे नहि ने समभाव आवे नहि. शत्रु
प्रत्येना द्वेष परिणाम के मित्र प्रत्येना राग परिणाम ते विकार छे, ते आत्मानी हालतमां थाय छे, ने आत्मा ते
करे छे, अने ते टाळीने समभावरूप वीतराग परिणाम पण आत्मा ज