जेटला स्वरूपे मानतो नथी, तेथी ते कोई जीवने शत्रु के मित्र तरीके जोतो नथी. माटे तेने बीजाने देखीने राग–
द्वेष थता नथी, पण समभाव ज रहे छे.
जीवो पण तेवा ज छे. –आम धर्मात्मा जाणे छे. धर्मी जीवने आवी स्वभावद्रष्टिमां पुण्य–पापनो पण स्वीकार
नथी. पर्यायमां अस्थिरताने लीधे अल्प राग द्वेष थाय छे, पण ते बीजाने शत्रु के मित्र मानीने थता नथी, ने
खरेखर तो ज्ञानीने रागद्वेष थता ज नथी पण स्वभावनी एकता ज थाय छे.
जेटलो जाणता नथी, माटे परनी पर्याय देखीने ज्ञानीने रागद्वेष थता नथी. आ रीते ज्ञानीने पर्यायबुद्धिनुं कार्य
आवतुं नथी माटे ज्ञानी जीव पर्यायने देखे छे–एम खरेखर कही शकातुं नथी. पोताना आत्मामां पर्यायबुद्धि
टळीने स्वभावद्रष्टि थई छे तेथी, हुं राग–द्वेष करनार छुं’ एम ज्ञानीने भासतुं नथी; माटे पर जीवोमां पण
रागादि पर्याय देखीने तेमने राग–द्वेष थतो नथी, तेमनुं ज्ञान रागथी अधिक ज रहे छे. आनुं ज नाम समभाव
छे, ने आज धर्म छे.
रागरूप थयो, हुं माणस, अमुक जीव मारो मित्र, अमुक जीव मारो शत्रु’ एम अज्ञानी जीवने पर्यायबुद्धि ज छे
अने तेथी तेने पर्यायबुद्धिना अनंत रागद्वेष थाय छे. पर्यायबुद्धिने लीधे ज भगवानने देखीने राग ने
निगोदादिने देखीने द्वेष थाय छे. ज्ञानी जीवोने पर्यायनुं ज्ञान तो थाय छे परंतु पर्यायबुद्धि थती नथी. तेथी ते
बधाय जीवोने परमात्मा ज जाणे छे. –आ सम्यग्द्रष्टिनुं चिन्ह छे. ज्ञानी जीवने, पर्यायने जाणवा छतां
पर्यायबुद्धिना रागादि जरा पण थता नथी, माटे खरेखर तो ज्ञानी जीवो पर्यायने जाणता ज नथी–एम अहीं
स्वभावद्रष्टिनुं जोर छे.
ज्ञान स्वभाव छुं ने बधाय जीवो ज्ञानस्वभावी ज छे–एवी द्रष्टिमां ज्ञानीने बधाय उपर समभाव ज छे, कोई
पण जीवने जोतां तेना उपर राग–द्वेष थतो नथी, केम के ते जाणे छे के ज्ञानस्वभावमां कोई पर द्रव्य लाभ के
नुकशान करतुं ज नथी.
द्रव्यद्रष्टि वगर समभाव रही शके नहि. भगवाननी कृपा थाय तो मने समभाव रहे एम माननारे पोताना
परिणामनुं स्वाधीनपणुं मान्युं नथी. वर्तमान पर्यायनी स्वाधीन हयाती पण न मानी, ने पर्यायना आधारभूत
त्रिकाळी द्रव्यने तो शेनो माने? त्रिकाळीद्रव्यना आधार वगर पर्यायबुद्धि टळे नहि ने समभाव आवे नहि. शत्रु
करे छे, अने ते टाळीने समभावरूप वीतराग परिणाम पण आत्मा ज