Atmadharma magazine - Ank 055
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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वैशाख : २४७४ : ११३ :
करे छे. तेने बदले पोताना समभावनुं के रागद्वेषनुं कारण परने माने ते जीव तो पोताना पर्यायनी स्वतंत्रता
पण नथी मानतो. तेथी शत्रुने देखीने एकताबुद्धिनो द्वेष ने मित्रने देखीने एकताबुद्धिनो राग तेने थाय छे, तेने
अनंतो विषमभाव छे. ज्ञानी जाणे छे के मारा आत्मस्वभावमां विकार नथी, परने कारणे विकार थतो नथी,
मारी वर्तमान दशानी नबळाईथी राग–द्वेष थाय छे, तेटलो हुं नथी. आवी मान्यताथी ज्ञानीने समभाव छे.
आत्माना शांतिरूप परिणाम ते समभाव छे. आत्मा शांतिनो कंद छे, पोते कर्ता थईने स्वतंत्र पणे
स्वभावना आधारे समभावे परिणमे छे. स्वभावनो आश्रय छोडीने बीजाना आधारे समभाव माने तेने कदी
समभाव न होय.
कोई जीव, भगवान मने समभाव रखावे–एम तो न माने, पण भगवानना निमित्ते मने समभाव रहे
अथवा भगवानना लक्षे हुं समभाव राखुं–एम माने तो ते पण अज्ञानी छे. भगवानना लक्षे समभाव रहे
एम मान्युं एटले भगवान उपर रागभाव अने बीजा उपर द्वेषभाव एवो विषमभाव तेना अभिप्रायमां ज
आवी गयो.
ज्ञानी जाणे छे के भगवान तो समभाव रखावे नहि, कोई बीजा निमित्त थईने मने समभाव रखावे
एम पण नहि; मारो समभाव कोई बीजानी अपेक्षाथी नथी पण मारा स्वभावना लक्षे ज मारो समभाव छे.
मारो समभाव शरीरना आश्रये नथी, देव–गुरु–शास्त्रना आधारे नथी, रागना आधारे नथी, ने ते बधायने
जाणनारुं जे वर्तमान ज्ञान छे ते ज्ञानना आधारे पण नथी केम के हुं ते क्षणिक ज्ञान जेटलो नथी पण त्रिकाळी
स्वतंत्र विकाररहित पूरो ज्ञानस्वभाव छुं. आ रीते परनी द्रष्टि छोडीने, विकारनी द्रष्टि छोडीने अने पर्यायनी
द्रष्टि पण छोडीने पोताना एकरूप स्वभावने ज्ञानी देखे छे अने बीजा आत्माओने पण तेवा ज देखे छे तेथी
ज्ञानीने बधाय उपर समभाव छे; पोतानो के परनो पर्याय देखीने तेमने पर्यायबुद्धिना रागद्वेष थता नथी केम
के तेमने पर्यायमां एकताबुद्धि नथी, पर्याय जेटलो ज आत्मा तेओ मानता नथी.
समभावनी वात आवतां अज्ञानीनुं लक्ष पर उपर जाय छे. पण पराश्रये समभाव कदी होय नहि.
अहींतो पोताना पूर्ण स्वभावमां पर्याय परिणमी गई ने पर्यायबुद्धि छूटी गई ते ज समभाव छे. भगवान
आत्मानी प्रतीति करीने तेना आश्रये जे समभाव प्रगट्यो तेनो कर्ता आत्मा पोते छे, बीजो कोई समभाव
करावनार नथी. क्षणिक पर्याय जेटलो ज आत्माने न मानतां आत्माना त्रिकाळी स्वभावने मानवो तेने शास्त्रो
द्रव्यद्रष्टि कहे छे, ते ज समभाव छे, ते ज धर्म छे. अनादि अनंत ज्ञान–मूर्ति आत्मा छे ते ज हुं छुं, वर्तमान
हालतमां जे राग–द्वेष थाय ते मारुं कायमनुं स्वरूप नथी, बीजो कोई ते रागद्वेष करावतो नथी, मारा पुरुषार्थनी
नबळाईथी ते राग–द्वेष थाय छे पण ते नबळाई के रागद्वेषनो मारा स्वभावमां स्वीकार नथी–आम पोताना
स्वभावना आश्रये धर्मी जीव कोईने पण शत्रु के मित्र मानता नथी, पण बधाय आत्माओने पोताना जेवा
परिपूर्ण चैतन्यमूर्ति ज माने छे, तेथी तेने सर्वे उपर समभाव ज छे.
ज्ञानीने जे अल्प रागद्वेष होय छे तेमां एकत्वबुद्धि होती नथी तेथी तेनी गणतरी नथी. परने कारणे
राग मानता नथी, स्वभावमांथी राग आवतो नथी, अने जे राग थाय छे तेमां एकता मानता नथी पण
पोताना स्वभावने ते रागथी जुदो ने जुदो ज अनुभवे छे, तेथी ज्ञानीने खरेखर राग थतो ज नथी. पण
स्वभावनी एकता ज वधे छे.
बधाय जीवो परिपूर्ण सिद्धसमान छे, एवी द्रष्टिथी जोनारने बीजानुं भलुं–बूरुं करवानी मान्यता क्यां
रही? तेने कोईना उपर राग–द्वेष करवानो अभिप्राय न रह्यो एटले तेने अभिप्रायमां अनंत समभाव
प्रगट्यो. त्रण काळमां कोई कोईनुं भलुं के बूरुं करवा समर्थ नथी, स्वभावथी बधाय आत्माओ समान छे.
आवी श्रद्धा ज्यां सुधी जीव न करे त्यां सुधी तेने साची समता न होय– एटले के धर्म न होय. कोई शरीरना
कटका करी नाखे छतां. ‘भगवाननी मरजी प्रमाणे थाय’ एम मानीने शुभ भाव राखे. क्रोध न करे, तोपण तेने
खरेखर समभाव नथी, क्षमा नथी. भगवान मने समभाव रखावे एम जे माने छे तेने आत्मानी प्रतीति
नथी. अथवा कोई जीव भगवानने तो कर्ता न माने पण संयोगोथी मने लाभ के नुकशान थाय एम माने तो
तेने पण समभाव होय नहि. राग–द्वेष रहित साक्षी–स्वरूप मारो स्वभाव ज छे, –एम स्वभावनी प्रतीत–
वगर साची समता होती नथी.
ज्ञानी धर्मात्मा कोईने शत्रु के मित्र मानता नथी. अने खरेखर आत्मानुं जीवन–मरण पण मानता
नथी. देह ज मारो नथी, देहनो संयोग के वियोग ते हुं