पण नथी मानतो. तेथी शत्रुने देखीने एकताबुद्धिनो द्वेष ने मित्रने देखीने एकताबुद्धिनो राग तेने थाय छे, तेने
अनंतो विषमभाव छे. ज्ञानी जाणे छे के मारा आत्मस्वभावमां विकार नथी, परने कारणे विकार थतो नथी,
मारी वर्तमान दशानी नबळाईथी राग–द्वेष थाय छे, तेटलो हुं नथी. आवी मान्यताथी ज्ञानीने समभाव छे.
समभाव न होय.
एम मान्युं एटले भगवान उपर रागभाव अने बीजा उपर द्वेषभाव एवो विषमभाव तेना अभिप्रायमां ज
आवी गयो.
जाणनारुं जे वर्तमान ज्ञान छे ते ज्ञानना आधारे पण नथी केम के हुं ते क्षणिक ज्ञान जेटलो नथी पण त्रिकाळी
स्वतंत्र विकाररहित पूरो ज्ञानस्वभाव छुं. आ रीते परनी द्रष्टि छोडीने, विकारनी द्रष्टि छोडीने अने पर्यायनी
द्रष्टि पण छोडीने पोताना एकरूप स्वभावने ज्ञानी देखे छे अने बीजा आत्माओने पण तेवा ज देखे छे तेथी
ज्ञानीने बधाय उपर समभाव छे; पोतानो के परनो पर्याय देखीने तेमने पर्यायबुद्धिना रागद्वेष थता नथी केम
के तेमने पर्यायमां एकताबुद्धि नथी, पर्याय जेटलो ज आत्मा तेओ मानता नथी.
आत्मानी प्रतीति करीने तेना आश्रये जे समभाव प्रगट्यो तेनो कर्ता आत्मा पोते छे, बीजो कोई समभाव
करावनार नथी. क्षणिक पर्याय जेटलो ज आत्माने न मानतां आत्माना त्रिकाळी स्वभावने मानवो तेने शास्त्रो
द्रव्यद्रष्टि कहे छे, ते ज समभाव छे, ते ज धर्म छे. अनादि अनंत ज्ञान–मूर्ति आत्मा छे ते ज हुं छुं, वर्तमान
हालतमां जे राग–द्वेष थाय ते मारुं कायमनुं स्वरूप नथी, बीजो कोई ते रागद्वेष करावतो नथी, मारा पुरुषार्थनी
स्वभावना आश्रये धर्मी जीव कोईने पण शत्रु के मित्र मानता नथी, पण बधाय आत्माओने पोताना जेवा
परिपूर्ण चैतन्यमूर्ति ज माने छे, तेथी तेने सर्वे उपर समभाव ज छे.
पोताना स्वभावने ते रागथी जुदो ने जुदो ज अनुभवे छे, तेथी ज्ञानीने खरेखर राग थतो ज नथी. पण
स्वभावनी एकता ज वधे छे.
प्रगट्यो. त्रण काळमां कोई कोईनुं भलुं के बूरुं करवा समर्थ नथी, स्वभावथी बधाय आत्माओ समान छे.
आवी श्रद्धा ज्यां सुधी जीव न करे त्यां सुधी तेने साची समता न होय– एटले के धर्म न होय. कोई शरीरना
कटका करी नाखे छतां. ‘भगवाननी मरजी प्रमाणे थाय’ एम मानीने शुभ भाव राखे. क्रोध न करे, तोपण तेने
खरेखर समभाव नथी, क्षमा नथी. भगवान मने समभाव रखावे एम जे माने छे तेने आत्मानी प्रतीति
नथी. अथवा कोई जीव भगवानने तो कर्ता न माने पण संयोगोथी मने लाभ के नुकशान थाय एम माने तो
वगर साची समता होती नथी.