Atmadharma magazine - Ank 055
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: ११४ : आत्मधर्म : ५५
नथी, देहनी अवस्था तेना पोताना कारणे थाय छे, देहनी अवस्थाने टकाववा के टाळवा कोई समर्थ नथी,
त्रिकाळी आनंद ज्ञानमूर्ति ते ज मारुं स्वरूप छे–आवी बुद्धिमां ज्ञानीने शरीरनां जीवन–मरण देखीने रागद्वेष–
थतो नथी, तेथी तेमने जीवन–मरण उपर समभाव छे.
आत्माने धर्म कई रीते थाय तेनी आ वात चाले छे. क्यांय बहारमां आत्मानो धर्म थतो नथी, अंतरमां
जेवो पोते छे तेवो माने तो धर्म थाय छे. कोई आत्मा कदी पण बीजाने जीवाडी के मारी शकतो नथी. शरीरनो
संयोग के वियोग थाय तेथी आत्मानुं जीवन के मरण नथी, ने तेना कारणे राग के द्वेष थता नथी. धर्मी जीवने
पोतामां त्रिकाळी स्वभावनी द्रष्टि छे तेथी जीवन मरण रहित ज बधायने देखे छे, माटे तेमने पर्यायमां जीवन
मरण देखीने राग–द्वेष थता नथी. अज्ञानी जीव परनां जीवन मरणने देखीने तेना कारणे रागद्वेष माने छे, तेना
रागद्वेष परमां एकत्वबुद्धिसहित छे, ज्ञानीने तेवा राग–द्वेषनो अभाव छे.
प्रश्न:–भगवाननी मरजी प्रमाणे थाय एम मानीने कोईक जीव क्रोध न करे तो तेने समभाव छे के नहि?
केम के तेमां तो पोताने निरभिमानता आवे छे.
उत्तर:–भगवाननी मरजी प्रमाणे थाय एटले के भगवान मारा परिणामना कर्ता छे–ए मान्यता महान
अज्ञान भरेली छे, तेमां अंशमात्र समभाव के निरभिमानता नथी. पोते स्वतंत्र तत्त्व छे तेने न मान्युं.
भगवान मारा कर्ता ने हुं परनो कर्ता–ए मान्यतामां अनंत पर द्रव्यनो अहंकार रहेलो छे. धर्मी जीव समजे छे
के मारा परिणाम हुं जेवा करुं तेवा थाय छे. मारा परिणामनो कोई कर्ता नथी ने हुं बीजा कोईनो कर्ता नथी;
तेथी ज्ञानीओने ज साची निरभिमानता होय छे. हुं बीजाने लाभ–अलाभ करुं के बीजा मने लाभ–अलाभ करे
एम ज्ञानी मानता नथी. धर्मीने अंतर स्वभावनी द्रष्टि छे, पोताना पर्यायनी द्रष्टि पण नथी. जेटली
स्वभावमां एकाग्रता थाय तेटलो धर्मीनो लाभ छे, पैसा के राज–पाटथी धर्मी लाभ मानता नथी. क्षायक
सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा राजा होय, चक्रवर्ती होय ने छ खंडनी साधना करे परंतु तेनाथी आत्माने लाभ नथी
मानता. परथी लाभ छे एवी मान्यतापूर्वक ज्ञानीने किंचित् राग थतो नथी, अने परथी नुकशान छे एवी
मान्यतापूर्वक किंचित् द्वेष थतो नथी, तेथी लाभ के अलाभमां ज्ञानीने खरेखर समभाव छे.
आ कई रीते समभाव कहेवाय छे ते खास समजवायोग्य छे. अहीं स्वभावद्रष्टि सिद्ध करी छे.
स्वभावद्रष्टिनुं कार्य बधा उपर समभाव छे. परनी क्रिया मारी नथी, बीजाने माराथी लाभ–नुकशान नथी, मारी
अवस्थामां राग थाय ते समयपूरतो छे, त्रिकाळी स्वभावमां ते राग नथी, हुं ज्ञानस्वभावे एकरूप छुं–एम
स्वभावद्रष्टिना जोरमां स्वभावनी एकता वधती जाय छे माटे ज्ञानीने बधा उपर समभाव छे.
शरीर वगेरे तो अजीवतत्त्व छे, दया–भक्ति वगेरे परिणाम थाय ते पुण्य छे अने हिंसा–चोरी वगेरे
परिणाम थाय ते पाप छे, ए पुण्य अने पाप बंने आस्त्रवतत्त्व छे, तेनाथी जीवतत्त्व जुदुं छे. अने जाणवानी
जे दशा छे ते एक समयपूरती छे, ते एक समयनी दशा जेटलुं जीवतत्त्व नथी. त्रणेकाळे एकरूप रहेनार चैतन्य–
स्वभाव रूप द्रव्य छे ते जीवतत्त्व छे; एवा जीवतत्त्वने ओळखवाथी धर्म थाय छे. त्रिकाळी जीवतत्त्वनी द्रष्टि
होवाथी ज्ञानीने पर्यायद्रष्टि नथी अर्थात् ज्ञानीओ पर्याय जेटलो ज जीवने मानता नथी, तेथी तेमने
पर्यायबुद्धिना रागद्वेष थता ज नथी. पर्यायने जाणवा छतां द्रव्यस्वभावमां एकतानी वृद्धि ज करे छे,
पर्यायबुद्धिमां अटकता नथी, माटे तेमने कोई पर्याय उपर विसमभाव नथी पण बधा पर्यायो उपर समभाव
छे. सिद्धपर्याय के निगोदपर्याय–बधाने जाणतां समभाव क्यारे रहे? जेनी बुद्धि पर्यायमां ज रोकायेली छे तेने
सिद्धपर्याय देखीने राग अने निगोद पर्याय देखीने द्वेष थया वगर रहेशे नहि, एटले पर्यायना आश्रये
समभाव रही शके नहि. स्वभावद्रष्टिवाळो जीव सिद्ध पर्याय वखते पण तेना पूरा स्वभावने देखे छे ने निगोद
पर्याय वखते पण पूरा स्वभावने ज देखे छे, तेथी तेने बधा पर्यायो उपर समभाव रहे छे. कदाच अल्प
रागद्वेष थाय तो ते वखते पण पोताना स्वभावनी एकता छूटती नथी, तेथी खरेखर तेमने रागद्वेष थयो नथी
पण स्वभावनी एकता ज थई छे. स्वभावबुद्धिनो हकार ने पर्यायबुद्धिनो नकार ते ज समभाव छे
आत्मा वर्तमानभाव जेटलो नथी पण त्रिकाळ अखंड ज्ञानमूर्ति छे–एवी श्रद्धा ते द्रव्यबुद्धिनो स्वीकार
छे ने पर्यायबुद्धिनो अस्वीकार छे. त्रिकाळी स्वभावनी बुद्धिथी आत्माने माननार सम्यग्द्रष्टि छे अने
पर्यायबुद्धिथी आत्माने माननार मिथ्याद्रष्टि छे. सम्यग्द्रष्टिने गृहस्थाश्रममां