Atmadharma magazine - Ank 055
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: ११६ : आत्मधर्म : ५५
नथी पण पूर्ण चैतन्य भगवान छे, ने मातानो जीव पण वर्तमान पर्याय जेटलो नथी पण पूर्ण चैतन्य
भगवान छे. एकरूप स्वभावद्रष्टिमां कोई माता के स्त्री छे ज नहि, सिद्ध के निगोद, एकावतारी के
अनंतसंसारी, स्त्री के माता ए बधाय जीवो परिपूर्ण चैतन्य स्वरूप एक सरखां छे. आवी स्वभावद्रष्टिमां
अनंतो वीतरागभाव आवी जाय छे.
प्रश्न:–जो सम्यग्द्रष्टि जीव स्त्रीने पण चैतन्य परमेश्वर मानतो होय तो राग छोडीने एक तरफ केम बेसी
जता नथी?
उत्तर:–स्वभावद्रष्टिथी तो सम्यग्द्रष्टि एक तरफ ज बेठा छे. एक तरफ बेसवानी व्याख्या शुं? पर द्रव्यमां
तो कोई आत्मा बेसतो नथी. अज्ञानी जीव विकारमां ज पोतापणुं मानीने विकारमां स्थित थयो छे. ज्ञानी
धर्मात्मा जीवो संयोगोथी अने विकारथी पोताना स्वभावने जुदो जाणीने स्वभावनी एकतामां स्थित छे.
ज्ञानीने स्त्री आदि संबंधी जे राग होय ते रागथी जुदुं पोतानुं स्वरूप अनुभवे छे, रागनो आदर करता नथी,
तेथी खरेखर ज्ञानी जीवो पोताना स्वभावमां ज बेठा छे.
क्यो जीव बहारनी क्रिया करे छे? शरीरने चलाववानी के बेसाडवानी क्रिया त्रणकाळ त्रणलोकमां कोई
आत्मा करी शकतो नथी; मात्र अज्ञानी जीव तेनो अहंकार करे छे के ‘हुं करुं’ . तोपण ते जीव परमां तो कांई
करी शकतो नथी, ते पोताना अहंकारभावमां बेठो छे, ते ज अधर्म छे. ज्ञानीओ शरीरनी कोई अवस्थाने
पोतानी मानता नथी अने विकारने पोतानुं स्वरूप मानता नथी, तेथी ते परमांथी अने विकारमांथी ऊठीने
पोताना स्वभावनी रुचिमां ज बेठा छे, आ ज धर्म छे.
परमाणुओ आ जगतनी चीज छे, परमाणुओना संयोगथी शरीरादि बने छे, तेनी जे वर्तमान हालत
थाय ते जडनी स्वतंत्र क्रिया छे, आत्मा तेनो कर्ता नथी. अज्ञानी जीव पोताना स्वतंत्र ज्ञाता स्वभावने भूल्यो
एटले परने पण परतंत्र माने छे. पोताना त्रिकाळी स्वभावने न जाणतां क्षणिक विकार जेटलो पोताने माने
छे, तेथी परना पर्यायने जाणतां ते पदार्थोने पण क्षणिक पर्याय जेटला ज माने छे, अने तेना पर्यायमां ईष्ट–
अनिष्ट एवा भेद पाडीने एकत्वबुद्धिना रागद्वेष करे छे, ए महा अधर्म छे. परथी छूटो ने विकारथी छूटो एवो
पोतानो ज्ञान स्वभावएकलो छे, तेनी श्रद्धा–ओळखाण करीने तेमां अभेद थवुं तेनुं नाम एकलो बेठो कहेवाय.
नग्न थईने जंगलमां जईने बेसे अने एम माने के शरीरनी क्रिया हुं करुं छं, ने आनाथी मने धर्म थाय छे–तो
ते जीव एकलो नथी पण शरीरना अहंकारने साथे राखीने बेठो छे, तेना अभिप्रायमां अनंता पदार्थोनो संग ते
सेवी रह्यो छे.
आंधळी श्रद्धाए कांई पण मानी लेवुं ते धर्मनो मार्ग नथी. पोते युक्तिद्वारा समजीने, पोतानो आत्मा
कबुल करे तो मानवुं. न समजाय त्यां सुधी वारंवार सत्समागमे परिचय करीने निर्णय करवो. पोते निर्णय कर्या
वगर मात्र निमित्तना लक्षे हा पाडे तेथी धर्म थाय नहि.
अज्ञानी जीवो एम कहे छे के– ‘निश्चयथी तो जीव परनुं न करे, व्यवहारथी परनुं करी शके–एवो
अनेकांतवाद जैनमतमां छे. ’ तेनी वात खोटी छे. तेने निश्चय अने व्यवहारनयनुं ज्ञान ज नथी. निश्चयनयथी
के व्यवहारनयथी आत्मा परनुं करी शकतो ज नथी. परनी क्रिया स्वतंत्रपणे थाय तेनुं ज्ञान करवुं अने ते
वखतना निमित्तनुं ज्ञान कराववा माटे ‘आणे आ कर्युं’ एम उपचारथी मात्र कहेवुं ते व्यवहार छे. पण जीव
परनुं व्यवहारे करी शके छे एम मानवुं ते व्यवहारनय नथी, ते तो मिथ्यात्व छे.
वळी, ‘माणस जीवतो होय त्यारे खावा–पीवानी बोलवानी’ वगेरे क्रिया थाय छे ने मडदुं खातुं–पीतुं के
बोलतुं नथी, माटे जीव ज ते क्रियाओ करे छे’ एम अज्ञानीओ कहे छे, ते मान्यता पण तद्न जूठी छे, खावुं–पीवुं–
बोलवुं ए बधी जड द्रव्यनी स्वतंत्र क्रियाओ छे. पहेलांं ए नक्की करो के ‘खावुं’ एटले शुं? ते कोई द्रव्य छे? गुण
छे? के पर्याय छे? खावुं ते जड परमाणुओनी पर्याय छे. अमुक वस्तु बहार हती ते क्षेत्रांतर थईने पेटमां पडी तेने
लोको ‘खाधुं’ कहे छे. ए तो जडनी क्रिया छे, तेमां जीवे शुं कर्युं? जीव खातो नथी, अने जड पण खातुं नथी. ‘खाधुं’
ते तो बोलवानी रीत छे, परमाणुना पर्यायने ओळखवा माटेनुं एक नाम छे. ‘छींक खाधी, बगासुं खाधुं, थाक
खाधो’ ए वगेरे बोलाय छे ते जुदी जुदी दशाने ओळखवानी भाषा छे, जडनी अवस्थानुं ते परिणमन छे, आत्मा
व्यवहारे पण तेने करतो नथी. पण आत्मा पोताना ज्ञान सहित परनुं ज्ञान करे ते ज्ञानने व्यवहारनय कहेवाय छे.
पोताना स्वभावनुं ज्ञान करे ते निश्चयनय छे, अने परनुं ज्ञान करे ते व्यवहारनय छे. पण निश्चयनयथी पोताना
आत्मानी क्रिया करे अने व्यवहारथी परनी क्रिया करे एम मानवुं ते तो एकांत मिथ्यात्व छे.