Atmadharma magazine - Ank 055
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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वैशाख : २४७४ : ११७ :
अहीं तो पर्यायनी द्रष्टि ज उडाडे छे. परने जाणनार ज्ञानपर्याय जेटलो आत्माने माने तो ते पण
मिथ्याद्रष्टि छे. ज्ञान पोते पर्यायने अने परने जाणे खरुं, पण त्रिकाळी स्वभाव तरीके तेनो स्वीकार न करे,
पोताना एकरूप चैतन्य स्वभावने ज स्वीकारे ते धर्मद्रष्टि छे. पोते पोताना स्वभावथी ईश्वर छे, जड तेनी
शक्तिथी ईश्वर छे. परनुं हुं करुं एवी जेनी मान्यता छे ते तो जड–बुद्धि मिथ्याद्रष्टि छे. अने मारा पर्यायमां जे
रागादि थाय तेनो हुं कर्ता छुं, ते मारो स्वभाव छे–एम जे माने ते पण पर्यायमूढ मिथ्याद्रष्टि छे. अनंत ज्ञान–
दर्शनस्वभावनो आदर ते द्रव्यद्रष्टि छे, ते साचीद्रष्टि छे, ते निश्चयद्रष्टि छे, ते सत्यद्रष्टि छे, ते धर्म छे, ते
समभाव छे ने ते ज सुख छे, ते ज मोक्षनो मार्ग छे.
हुं परनी आशा राखनार नथी केम के मने परनो आधार नथी, मारी हालतमां विकार थाय तेना
आधारे पण हुं टकतो नथी, जे त्रिकाळी टकता स्वभावमांथी मारा पर्यायोनो प्रवाह नीकळे छे ते स्वभावनो ज
मारे आधार छे. आम स्वभावनो आश्रय ते ज धर्म छे.
जेणे स्वभावनो आश्रय कर्यो छे एवा ज्ञानी जीवो शुद्धसंग्रहनयथी बधा जीवोने समान जाणे छे.
अत्यारे घणा लोको एम वातो करे छे के बधा जीवोने सरखा मानवा अने विश्ववात्सल्य करवुं.–ए तो एकला
पराश्रयथी वात करे छे; विश्ववात्सल्यनो अर्थ समजता नथी तेथी पर साथेनो संबंध जोडवानी वात करे छे;
परनो संबंध तोडवानी वात तेमां नथी. आत्माने परनो संबंध मानवो ते मिथ्यात्व छे. अहीं जे बधा जीवोने
समान कहेवामां आव्या छे ते पर लक्षनी वात नथी. ज्ञानी कई रीते बधाने समान जाणे छे? पोते पोतामां
स्वभावद्रष्टि करीने पर्यायद्रष्टि उडाडी दीधी छे तेथी, बीजा जीवोने पर्यायथी जे भेद छे तेने न जोतां,
शुद्धसंग्रहनयथी बधाना स्वभावने समान ज माने छे, ने तेथी तेने बधा उपर समभाव छे.
शुद्धसंग्रहनय एटले शुं?–बधा जीवो शुद्धचैतन्य सामर्थ्यथी सरखा छे अने एम जोवुं अने पर्यायमां
हीन–अधिकताना जे भेदो छे तेनाथी जीवोमां भेद न पाडवो एनुं नाम शुद्धसंग्रहनय छे. ज्यां पोताना
स्वभावनो आदर थयो त्यां ज्ञानी जीव अंतरनी एकताना प्रभाव वडे बधा जीवोने एक सरखा स्वभाववाळा
जाणे छे, तेने शुद्धसंग्रहनय होय छे. अज्ञानीने शुद्धसंग्रहनय होतो नथी.
कोई पण साचा नयनो हेतु वीतरागभावने साधवानो छे. शुद्धसंग्रहनयमां ते हेतु कई रीते आव्यो?
पर्यायद्रष्टिथी जोतां पर्यायना भेदो ज देखाय छे, ने पर्यायना भेदोने जोतां विषमता अने रागद्वेष थाय छे. माटे
ते भेदद्रष्टि छोडीने अभेदस्वभावनी द्रष्टि करीने, शुद्धसंग्रहनयथी बधा जीवोने समान जाणतां विषमता टळी
जाय छे अने वीतरागी समभाव प्रगटे छे. आ शुद्धसंग्रहनयनो हेतु छे. ज्ञानी जीव अभेद स्वभावना आदरमां
भेदने भाळता नथी तेथी भेदने जोवानुं (अर्थात् पर्यायबुद्धिनुं) फळ जे बंधन ते तेने थतुं नथी.
सामे तो बधाय आत्माओ जुदा जुदा छे, ने तेमने द्रव्य तथा पर्याय बंने छे. सिद्धपर्याय पण छे ने
निगोद–पर्याय पण छे. ज्ञानी जीव एम माने छे के ‘बधा जीवो पूर्ण स्वभाववाळा छे, ’ तेथी कांई निगोदना जीवने
स्वभावद्रष्टि थई जती नथी, निगोददशा मटीने सिद्धदशा थई जती नथी; जगतमां तो निगोद ने सिद्ध बधी दशाओ
जेम छे तेम छे, पण धर्मी जीव पोते पर्यायद्रष्टि छोडीने स्वभावद्रष्टिथी जोनार छे. माटे तेमने पर्यायद्रष्टिनुं बंधन
नथी. जगतना जीवोने पर्यायमां भेद छे ते तो छे ज. अने ज्ञानी ते भेदोने जाणे छे, पण खरा, परंतु अखंड
स्वभावमां एकता राखीने जोता होवाथी ज्ञानीने ते भेदोमां एकताबुद्धि थती नथी, तेथी तेमने समभाव ज छे.
स्वभावमां ज एकता छे ने पर्यायमां एकता नथी ए अपेक्षाए एम कहेवाय छे के ज्ञानीओ पर्यायने देखता ज
नथी, एक स्वभावने ज देखे छे. स्वभावद्रष्टिथी जोनार ज्ञानीने सर्वत्र समभाव छे.
प्रश्न:–शुं आत्मानी ओळखाण थई त्यां ज वीतराग थई गया?
उत्तर:–श्रद्धा अपेक्षाए ते वीतराग छे. ज्ञानीने अस्थिरताना कारणे रागद्वेष थाय छे ते जो के तेमना ज
पुरुषार्थनो दोष छे, परंतु ज्ञानीओ ते रागने के पुरुषार्थना दोषने पोताना स्वभावमां मानता नथी, रागरहित
ज्ञानस्वभावमां ज ज्ञानीने एकताबुद्धि छे, रागमां एकताबुद्धि नथी; स्वभावमां एकताबुद्धिथी खरेखर राग
तूटतो ज जाय छे ने स्वभावनी एकता वधती जाय छे, माटे ज्ञानीने परमार्थे राग थतो ज नथी पण पोताना
स्वभावनी एकता ज थाय छे. जे राग थाय छे ते स्वभावनी एकतामां न आव्यो पण ज्ञेय तरीके ज रही गयो.
राग वखते पण स्वभावनी ज अधिकता छे माटे ज्ञानीने एक स्वभाव ज