Atmadharma magazine - Ank 055
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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वैशाख : २४७४ : ११९ :
उत्तर:–भाई धीरो था, धीरो था, तुं देहद्रष्टि छोडीने चैतन्यने जो. चैतन्यनी हयातीने लीधे जड
परमाणुओमां भाषा थवानी लायकात आवी जाय? परमाणुओनी स्वतंत्र लायकात होय त्यारे भाषा थाय छे,
अने तेमां लायकात न होय त्यारे भाषा थती नथी. तेमां चैतन्यनुं कांई काम नथी. आत्मा भाषा बोले के
आत्मा शरीरनी क्रिया करे एवी मान्यता तो घणी मोटी भूल छे. अहीं परनी तो वात ज नथी, एकदम
स्वभावद्रष्टिनी वात छे. ज्यां स्वभावद्रष्टि थई त्यां सदाय–चोवीसे कलाक समभाव रहे छे. अने ते स्वभावमां
विशेष लीनतानी अजमायस करतां व्रत अने मुनिदशा प्रगटे छे. हुं ज्ञानमूर्ति वीतराग स्वरूप ज छुं, राग पण
मारे नथी ने शरीर पण मारे नथी तो पछी देश वगेरे कोण मारुं हतुं? देशनुं हुं शुं करुं? चैतन्यस्वभावरूप मारो
स्व–देश असंख्य प्रदेशी छे, ते स्वतंत्र छे, मारा चैतन्य प्रदेशमां विकारनो प्रवेश नथी, ने परनो तो मारामां
त्रिकाळ अभाव छे. आम ओळखीने पोताना चैतन्य प्रदेशमां रहेवुं ते धर्म छे.
सम्यग्दर्शन एटले पोताना त्रिकाळी स्वभावनी प्रतीति ने अनुभव. साधकदशामां पर्यायमां अनेक
प्रकारो पडता होवा छतां, धर्मात्माए जे एकरूप स्वभाव जाण्यो छे तेनो अनुभव एक ज प्रकारनो छे. पर्यायनी
अनेकताथी स्वभावनी एकतामां भंग पडतो नथी. साधक जीवने पर्याये पर्याये निर्मळता वधती ज जाय छे. जे
अनेक निर्मळ पर्यायो प्रगटता जाय छे ते बधाय पर्यायो स्वभावमां ज एकता करीने अभेद थाय छे. पर्यायनी
निर्मळता वधती जाय छे ते अपेक्षाए अनेकता छे पण ते दरेक पर्यायना अनुभवमां तो एकज प्रकारनो
स्वभाव आवे छे, अनेक पर्यायोनो अनुभव एक ज प्रकारनो छे; जे स्वभावने श्रद्धामां स्वीकार्यो छे ते एक
स्वभावनी एकता ज बधा पर्यायमां अनुभवाय छे, तेथी खरेखर ज्ञानी एकरूप स्वभावने ज देखे छे,
पर्यायना भेदने देखता नथी. पर्यायमां जे हीन–अधिकताना भेदो छे ते तो व्यवहारज्ञाननो विषय छे. ज्ञान जेने
जाणे ते पदार्थ ज्ञाननो विषय कहेवाय छे. अने ज्यां एकता माने तेने दर्शननो विषय कहेवाय छे. अखंड
स्वभावमां एकता ते सम्यग्दर्शननो विषय छे. परमां राग करीने अने रागमां एकता मानीने ज्ञान अटकी गयुं
ते मिथ्याद्रष्टिनो विषय छे. अज्ञानी जीव रागमां पोताना ज्ञाननी एकता करे छे. ज्ञानी जीवो रागरहित
स्वभावमां ज्ञाननी एकता करे छे. स्वभाव तरफ ढळतां निर्मळ पर्यायना अनेक प्रकार पडे छे परंतु ते दरेक
पर्यायमां स्वभावनी ज एकता छे, दरेक पर्याय अभेद एकरूप स्वभाव तरफ ज ढळे छे. पर्यायनी निर्मळताना
अनेक प्रकारोनुं तेम ज पुण्य पाप होय तेनुं ज्ञान होय छे, पण श्रद्धामां तेनो स्वीकार नथी. पूरा तत्त्वनी एकता
राखीने भंगभेदने जाणे छे त्यां पर्यायबुद्धि थती नथी तेथी रागद्वेष थता नथी ने समभाव ज रहे छे,
स्वभावनी एकता वधतां वधतां संपूर्ण रागरहित पर्याय प्रगटे छे, ने मुक्ति थाय छे.
अनंतकाळथी पोताना पूरा तत्त्वने जाण्युं नथी. नव तत्त्वो जाण्या पण नव तत्त्वमां पोते अखंड
जीवतत्त्व छे तेने जाण्युं नहि–मान्युं नहि. नव तत्त्वना विकल्पोनी जाळथी रहित पोतानो आत्मा छे, एने
ओळख्यो नहि अने नव तत्त्वना विकल्पमां अटकी रह्यो. विकल्प वडे निज स्वरूप जणातुं नथी, अने जेवुं
निजस्वरूप छे तेवुं श्रद्धा–ज्ञानमां आव्या वगर समभाव होय नहि. सम्यग्दर्शनथी ज समभाव होय छे. पर
जीव मारो शत्रु के मित्र, पर मने लाभ करनार के नुकशान करनार–एवी मान्यता करी त्यां सर्वे उपर
समताभाव न रह्यो पण बे भाग पडी गया. आ शत्रु अने आ मित्र एम मान्युं त्यां ज एक उपर द्वेष ने
बीजा उपर राग आवी गयो. पुण्य सारां ने पाप खराब एम माने तेने पण पुण्य–पाप रहित एकरूप
स्वभावनी द्रष्टि नथी तेथी तेने समभाव नथी. जेने पोताना ज्ञान स्वभावनी द्रष्टि छे ते बधा जीवोने
ज्ञानस्वभावी जाणे छे, ज्ञान स्वभावने कोई शत्रु के कोई मित्र नथी, एटले पोताना ज्ञानस्वभावनी द्रष्टिथी
बधा उपर समभाव रही गयो. पुण्य–पाप बंने मारा ज्ञान स्वभावथी जुदा छे एम जाण्युं एटले तेना उपर
पण समभाव रही गयो. आ रीते पोताना एकरूप स्वभावनी जेने द्रष्टि छे ते बधा जीवोने समान जाणे छे ने
तेने समभावरूप धर्म छे.
जे जीव बधाने समान नथी जाणतो, पण पर्यायने देखीने भेद पाडे छे ते जीवने पर्यायद्रष्टि छे,
आत्मस्वभावनी द्रष्टि नथी, अने तेने समभाव नथी.
जेम अन्यमतमां ईश्वरने जगत्कर्ता मानवामां आवे छे, तेम जैनमतमां जेओ कर्मोने रागादि करावनार
माने छे ते पण मिथ्याद्रष्टि छे, तेणे कर्मोने ईश्वर तरीके मान्या. अने जे पुण्यथी धर्म माने छे तेणे विकारने ज
आत्मा मान्यो छे; ते पण मिथ्याद्रष्टि ज छे. एक पर्याय जेटलो आत्मा माने ते मिथ्याद्रष्टि छे. पोतानो पूरो चैतन्य