Atmadharma magazine - Ank 055
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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वैशाख : २४७४ : १२३ :
२. उत्तम मार्दव धर्म
परम पूज्य श्री कानजी स्वामीए वीर सं. २४७३ ना भादरवा सुद प थी १४ सुधीना
दस दिवसो दरमियान श्री पद्मनंदीपचीसीमांथी उत्तमक्षमा वगेरे दस धर्मोनुं क्रमसर व्याख्यान कर्युं हतुं तेनो
भादरवा सुद–६] टूंक सार [ले.–३ अं. ५४ थी चालु
आजे दश लक्षण पर्वनो बीजो दिवस छे. गई काले उत्तमक्षमा धर्मनो दिवस हतो, आजे उत्तम मार्दव
धर्मनो दिवस छे. सनातन जैनधर्मना अनादि नियम प्रमाणे आ भाद्रपद सुद प थी १४ सुधीना दश दिवसोने
‘दस–लक्षणपर्व’ कहेवाय छे अने तेज साचा पर्युषण छे. आजे उत्तममार्दवधर्मनो दिवस होवाथी
पद्मनंदीपंचविंशतिका–शास्त्रमांथी तेनुं वर्णन वंचाय छे, तेना वर्णनना बे श्लोक छे. उत्तम मार्दव एटले उत्तम
निराभिमानता. सम्यग्दर्शन सहित निराभिमानता ते उत्तम मार्दवधर्म छे. उत्तमक्षमामार्दव वगेरे दश धर्मो
सम्यग्दर्शन सहित जीवने ज होय छे–ए ध्यान राखवुं.
–वसंत तिलका–
धर्मांगमेतदिह मार्दवनामधेयं
जात्यादिगर्वपरिहरमुषन्ति सन्तः।
तद्धार्यते किमु न बोधद्रशा समस्तं
स्वप्नेन्द्रजालसद्रशं जगदीक्षमाणैः।।८७।।
अर्थ:–उत्तम जाति, कुळ, बळ, ज्ञान वगेरेना अभिमाननो त्याग ते मार्दव छे; आ मार्दव, धर्मनुं अंग छे.
जेओ पोतानी सम्यग्ज्ञानरूपी द्रष्टिथी समस्त जगतने स्वप्न तथा ईन्द्रजालनी समान देखे छे तेओ ते उत्तम
मार्दवने केम न धारे? अर्थात् अवश्य धारण करे छे.
अहीं मुख्यपणे मुनिनी अपेक्षाए कथन छे. उत्तम–क्षमा वगेरे दशधर्मो छे ते सम्यक्चारित्रना ज भेदो छे.
सम्यग्दर्शन वगर ते धर्म होय नहि. शरीर, मन, वाणीनी क्रिया आत्मा करतो नथी, तेनाथी आत्मा जुदो ज छे,
दया–भक्ति के व्रत वगेरे शुभराग ते धर्म नथी, तेमज ते धर्ममां मददगार नथी. आत्मा चैतन्यस्वरूप छे, ते
विकार रहित छे, आम पोताना निश्चयस्वभावनी ओळखाणवडे सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान प्रगट कर्या पछी
विशेष स्वरूपस्थिरताथी चारित्रदशा प्रगटे छे, ने दशामां धर्मीजीवने एवी आत्मस्थिरता होय छे के जाति–कुळ
वगेरेना अभिमाननो विकल्प पण उठतो नथी, एनुं नाम उत्तममार्दवधर्म छे. जे चैतन्यस्वरूप आत्माने
ओळखे नहि अने शरीर–कुटुंब कुळ वगेरेने पोतानां माने तेने कदी जाति–मद वगेरे टळे नहि अने तेने
उत्तममार्दव धर्म होय नहि. धर्मी जीवने खरेखर जाति–कुळ–धन वगेरेनो मद होतो नथी. केम के ते जाणे छे के हुं
तो चैतन्यस्वरूप आत्मा छुं, आत्माने शरीर ज नथी, अने माता–पिता, कुळ, जाति, धन वगेरे पण आत्माने
नथी. –आम पोताना सम्यग्ज्ञान वडे समस्त जगतने पोताथी जुदुं देखनारने निराभिमानपणुं केम न होय?
होय ज. आत्मानी जाति शुद्धचैतन्यधातु नित्य आनंदकंद छे, वीतरागता आत्मानुं कुळ छे ने चैतन्य केवळज्ञान
लक्ष्मीनो पोते स्वामी छे. ए सिवाय बीजा कोई जाति–कुळ के लक्ष्मीने ज्ञानी पोतानुं मानता नथी, तेथी तेमने
तेनुं अभिमान होतुं नथी. शरीर के शरीर संबंधी कोई पदार्थो ज्ञानीने पोतापणे भासता नथी, राग के अधूरा
ज्ञानने पण ते पोतानुं स्वरूप मानता नथी. पण परिपूर्ण स्वभावने ज पोतानो जाणीने तेनी श्रद्धा करे छे.
आम होवाथी ज्ञानीने जातिमद–कुळमद–ज्ञानमद के बळमद होता नथी. जाति–कुळ वगेरेने पोताथी जुदा जाण्या
छे तेथी तेनुं अभिमान थतुं नथी. ए रीते, सम्यग्ज्ञान ज उत्तम मार्दवधर्मनुं मूळ छे–एम अहीं बताव्युं छे.
जाति–कुळ वगेरेथी जुदुं पोतानुं चैतन्यस्वरूप जाण्या पछी सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा गृहस्थने अस्थिरताना रागने
लीधे कुळमद वगेरेनी वृत्ति ऊठे. पण धर्मात्माने राग–रहित स्वभावमां एकताना जोरे तेनो निषेध छे, ते
रागने पोतानुं स्वरूप जाणता नथी, रागनो आदर नथी पण स्वभावनो ज आदर छे, तेथी परमार्थे तो तेओ
सम्यग्ज्ञानवडे तेना ज्ञाता ज छे. माटे खरेखर धर्मी जीवोने जातिमद वगेरे होता नथी. धर्मी जीवने माता–
पिताथी के कुळ जाति वगेरेथी ओळखवा ते बराबर नथी, पण तेमना अंतरना श्रद्धा–ज्ञान वडे तेमने
ओळखवा ते यथार्थ छे. धर्मी जीवो कोई पण बाह्य पदार्थोथी मोटाई मानता नथी पण स्वभावना सम्यक्श्रद्धा–