Atmadharma magazine - Ank 055
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 29 of 33

background image
: १२४ : आत्मधर्म : ५५
ज्ञानपूर्वक अभेदता थईने जेटलो राग तूटयो तेटली मोटाई छे ने जेटलो राग रह्यो तेटली हीनता छे–एम जाणे
छे. बहारना पदार्थोथी पोताने मोटो मानवो ते मद छे, अने मारी जाति हलकी, मारुं कुळ हलकुं वगेरे प्रकारे
बहारना पदार्थोथी पोताने हलको मानवो ते पण मद छे, केम के तेणे जाति–कुळमां अहंपणुं कर्युं छे.
पहेलांं सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान कर्या पछी विशेष पुरुषार्थ वडे स्वरूप स्थिरता प्रगट करीने संत–मुनिदशामां
जाति–कुळ वगेरेना विकल्प तोडीने वीतरागी स्थिरता वधारवानी वात छे. पण उत्तम निर्मानता कोने कहेवाय
तेनुं ज जेने भान नथी एने उत्तम मार्दव धर्म क्यांथी होय? आत्मा नित्य ज्ञानघन छे, देहादि अनित्य संयोगो
ते आत्मानुं स्वरूप नथी. जेम ‘घीनो घडो’ एम बोलाय छे पण ते खरुं वस्तुस्वरूप नथी, तेम ज्ञानीने
ओळखवा माटे एम बोलाय के आ माता, आ पिता, आ कुळ, आ जाति. परंतु खरुं स्वरूप एम नथी. ज्ञानीने
तेमना आत्माथी ओळखवा ते ज साची ओळखाण छे. आत्मानो संसार माता–पिता–स्त्री शरीर वगेरेमां नथी
पण पोताना पर्यायमां ज जे अज्ञान अने रागद्वेष छे ते ज संसार छे. आत्मानो संसारभाव आत्मानी दशामां
ज छे. अज्ञानी जीव भ्रमथी एम माने छे के आ मारा पिता, आ मारी माता वगेरे. ए तेनी भ्रमणा ज संसार
छे. पोते पोताने चैतन्य स्वरूपे न जाण्यो ने शरीरवाळो मान्यो तेथी शरीरना संबंधी माता–पिताने पोताना ज
माता–पिता माने छे, अने तेथी जीवने शरीरना रूप वगेरेनुं अभिमान होय छे.
खरेखर तो पोते चैतन्य स्वरूप छे ने माता पिता वगेरेनो आत्मा पण चैतन्य रूप छे, कोई आत्मा
शरीर रूप नथी, पण कोण कोना माता–पिता ने कोण कोनो पुत्र? आवी जेने द्रष्टि छे तेने ज परनो अहंकार
टळे छे. आ शरीर तो जड परमाणुओ छे–माटी छे. जे जीव शरीरना बळनुं अभिमान करे छे ते जीव जडनो
धणी थाय छे, शरीरथी सदाय जुदो चैतन्य स्वरूपी अरूपी स्वभाव छुं एवुं तेने भान नथी. चैतन्य स्वरूपनो
अनादर करीने शरीरना बळ वगेरेनो अहंकार करनार जीव मोटो हिंसक छे. शरीर मारुं, शरीरनी क्रिया हुं करी
शकुं अने शरीर बळ सारूं होय तो धर्मध्यान बराबर थई शके–एम जे माने छे ते जीव आत्मानी हिंसा
करनारो छे. आत्मा शरीरादिनुं कांई करी शके नहि. आत्मानुं बळ (–पुरुषार्थ) कां तो अज्ञानभावे पुण्य–
पापमां अटके अने कां तो असंग स्वभावने ओळखीने तेमां राग–द्वेष रहित स्थिरता प्रगट करे.
ज्ञानी जीव जाणे छे के संपूर्ण ज्ञान अने आनंद ते ज एक मारुं रूप छे, जाति, कुळ, शरीरबळ, विद्याओ
के अधूरुं ज्ञान–ते कोई मारुं रूप नथी. खरेखर तो आम जुदापणुं जाण्युं त्यां ज परनो अहंकार टळी गयो छे.
पछी जे अल्प रागनी वृत्ति ऊठे तेनो ज्ञानीने निषेध छे. अहीं तो एवी वात छे के ते रागनी वृत्ति ऊठवा ज न
देवी, ने वीतरागपणे स्थिर रहेवुं–ते उत्तम मार्दव धर्म छे, अने ते धर्म मोक्षमार्गमां विचरता मुनिओने
सहचारीपणे होय छे.
जैन एटले जीतनार; आत्मानुं परथी भिन्न स्वरूप जाणीने जेणे मिथ्यात्व–अज्ञानने जीती लीधुं छे
अर्थात् नष्ट कर्युं छे, तेमज आत्मस्वरूपमां स्थिरता वडे जेणे राग–द्वेषने जीती लीधा छे–ते ज जैन छे. जे जैन
होय ते ‘परनुं हुं करुं’ एवुं अभिमान करे नहि, राग–द्वेषने पोतानुं स्वरूप माने नहि.
ज्ञानीओने ज्ञानमद होतो नथी. शास्त्रनुं ज्ञान के अवधि–मनःपर्ययज्ञान थाय तेनुं अभिमान ज्ञानीने
होतुं नथी. पूरो ज्ञान स्वभाव ज जाण्यो छे तेने अधूरा ज्ञानमां संतोष के तेनुं अभिमान केम होय? बारमा
गुणस्थान सुधीनुं बधुंय ज्ञान अल्प छे, केवळज्ञानना अनंतमा भागनुं छे, ते तूच्छ पर्यायनुं अभिमान ज्ञानीने
नथी, पण अनंत चैतन्य स्वभावना विनय अने महिमाथी स्वभावमां लीन थईने, अधूरा ज्ञाननो विकल्प
छोडीने केवळज्ञान प्रगट करे छे. थोडुंक सांभळ्‌युं ने थोडाक शास्त्रो वांच्या, त्यां तो ‘हुं घणुं जाणुं छुं’ एवुं जेने
अभिमान थाय छे ते जीव पर्यायद्रष्टिवाळो मिथ्याद्रष्टि छे, तेणे पूरा स्वभावने जाण्यो नथी तेथी थोडाक
जाणपणानो महिमा अने अभिमान थाय छे. कोई जीवो सत् स्वभाव समज्या वगर मंद कषाय करीने
निर्मानता राखे ते तो पुण्यबंधनुं कारण छे, अहीं तेनी वात नथी, पण धर्मात्माने स्वभावनी जागृतिपूर्वक
वीतरागभाव प्रगटतां मदनो विकल्प ज थतो नथी, ते ज साचो मार्दव धर्म छे. स्वभाव जाण्या वगर पर्यायनुं
अभिमान टळे नहि, ने तेने धर्म थाय नहि.
आ दश धर्मोनुं वर्णन करनार श्री पद्मनंदीआचार्य महान संतमुनि छे, सातमा छठ्ठा गुणस्थाननी
श्रेणीमां झूली रह्या छे, घणी वीतरागता प्रगटी छे, ने अल्प राग रह्यो छे तेथी कहे छे के अहो, सिद्धभगवानना
वखाण अमे शुं करी शकीए? अमारुं ज्ञान अत्यंत अल्प छे,