Atmadharma magazine - Ank 055
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: १०० : आत्मधर्म : ५५
मोक्षार्थीओए क्या सिद्धांतनुं सेवन करवुं?
– शार्दूल विक्रीडित –
सिद्धांतोऽयमुदार चित्तचरितैर्मोक्षार्थिभिः सेव्यतां
शुद्धं चिन्मयमेकमेव परमं ज्योतिः सदैवास्म्यहम्।
एते ये तु समुल्लसंति विविधा भावाः पृथग्लक्षणा–
स्तेऽहं नास्मि यतोऽत्र ते मम परद्रव्यं समग्रा अपि।।
[श्री समयसार–कलश: १८५]
अर्थ:–जेमना चितनुं चरित्र उदात्त (–उदार, उच्च, उज्जवळ) छे एवा मोक्षार्थीओ आ सिद्धांतने सेवन
करो के–‘हुं तो शुद्ध चैतन्यमय एक परम ज्योति ज सदाय छुं; अने आ जे भिन्न लक्षणवाळा विविध प्रकारना
भावो प्रगट थाय छे ते हुं नथी, कारण के ते बधाय मने परद्रव्य छे.’
[उपरना कलश उपर परम पूज्य श्री कानजी स्वामीनुं प्रवचन.] फागण वद ६
जे भव्य जीवने संसार दुःखदायक भास्यो छे ने तेनाथी छूटीने ज्ञानस्वरूपमां आववानी झंखना जागी
छे एवा मोक्षार्थीओने श्री आचार्यदेव आदेश करे छे के, जेमना ज्ञाननो अभिप्राय उदार छे एवा हे मोक्षार्थी
जीवो! तमे एक आ ज सिद्धांतने सेवन करो के ‘हुं तो शुद्ध चैतन्यमय एक परम ज्योति ज सदाय छुं; ए
सिवाय बधाय भावो हुं नथी, ते बधाय भावो माराथी जुदा छे. दया वगेरे पुण्यभावो के हिंसा वगेरे पाप
भावो हुं नथी, जाणवामां क्रम पडे ते पण हुं नथी, हुं जाणनार एक अभेद छुं, एकाकार परम ज्ञान ज्योति छुं.
’ आवा स्वभावना सेवनथी मुक्ति थाय छे, बीजा कोई भावना सेवनथी मुक्ति थती नथी.
आत्मानो मोक्ष प्रगट करवा माटे कया सिद्धांतनुं सेवन करवुं ते आचार्यदेव बतावे छे. आचार्यदेवे कोई
शुभभावनुं सेवन करवानुं कह्युं नथी, व्यवहारनुं सेवन करतां करतां मोक्ष थाय एम कह्युं नथी; ‘हुं एक शुद्ध
चैतन्यस्वभाव छुं’ एवा ज सिद्धांतनुं सेवन करवानुं कह्युं छे. ‘हुं पोते सदाय चैतन्यमय छुं, हुं बीजा पासेथी
समजनार नथी ने बीजानो समजावनार नथी, बीजा कोई साथे मारे संबंध ज नथी;’–जेमना सम्यग्ज्ञाननो उदार
अभिप्राय छे एवा मोक्षार्थीओ आवा सिद्धांतनुं सेवन करो. ‘हुं पुण्य–पापनो कर्ता छुं, व्यवहार करतां करतां धर्म
थाय, सत् निमित्तना आश्रये लाभ थाय’ एवी जे जीवनी मान्यता छे ते जीवनो अभिप्राय उदार नथी पण कंजुस
छे, उदार स्वाधीन ज्ञानमां तेनुं चरित्र नथी. ते जीव विकारनुं–व्यवहारनुं–पराश्रयनुं सेवन करे छे तेथी तेने बंधन
थाय छे. सर्व प्रकारे ज्ञानमयभाव ते ज हुं छुं, त्रणे काळे एक ज्ञानमयभाव सिवाय बीजा कोई भावो मारा स्वरूपमां
नथी, पुण्य–पापनो हुं कर्ता नथी, पुण्य–पाप मारामां छे ज नहि, व्यवहारथी धर्म नथी, व्यवहारनो आश्रय मने नथी,
कोई पण पर निमित्तो साथे मारे कांई संबंध नथी–आवी जेनी मान्यता छे ते जीवनो अभिप्राय उदार छे, स्वतंत्र
ज्ञानस्वभावमां तेनुं आचरण छे तेथी तेनुं चरित्र उदार छे. ए ज सिद्धांत मोक्षार्थीओए सेववा योग्य छे.
हे जीव! ‘हुं परनुं करुं, विकार ते हुं’ एवी बुद्धि करीने तें तारा ज्ञानने विकारमां संकोची दीधुं छे, हवे
चैतन्यभाव ते ज हुं, बीजा बधाय भावो माराथी जुदा छे’ एम स्वभावनी पक्कड करीने तारा ज्ञानने उदार
बनाव. बधाय परभावोने ज्ञानमांथी छोडी दे. मारा चैतन्यस्वरूपमां शरीरनो संग नथी, पुण्य–पापरूप विकार
भावोनो प्रवेश नथी अने अधूरा ज्ञानभाव जेटलो हुं नथी–एम उदार चरित्र करीने ज्ञानमांथी तेबधायने काढी
नांख. जे ज्ञान विकारमां एकता करीने अटकतुं ते ज्ञान संकोचायेलुं हतुं, स्वभाव अने परभावने जुदा
ओळखीने जे ज्ञान पोताना स्वभावमां वळ्‌युं ते ज्ञान विकारमांथी छूटीने मुक्त थयुं, ते ज्ञानमां विकारनी पक्कड
नथी, तेथी ते उदार छे; जेने एवुं ज्ञान छे ते ज मोक्षार्थी छे. कोई जीव बाह्यमां त्यागी के साधु थाय पण
अंतरमां एम माने के व्यवहार करतां करतां मारी मुक्ति थई जशे, तो ते जीव मोक्षार्थी नथी, तेनो त्याग अने
व्रतादि मोक्षार्थे नथी पण संसारने अर्थे ज छे. तेना ज्ञानमांथी विकारनी पक्कड छूटी नथी, तेथी तेनुं ज्ञान उदार
नथी. जे छूटा हाथे करोडो रूपियानुं दान करे ते उदार–एम अहीं कह्युं नथी. रूपिया तो जड छे, ‘तेनो कर्ता हुं छुं’
एम माननार महा मिथ्यात्वी छे. अने दानना शुभभाव करीने तेनी होंश करे ते पण उदार नथी, तेनुं ज्ञान
कंजुस छे; तेने पोतानी चैतन्य मूडीनो उपयोग करतां आवडतो नथी तेथी ते विकारीभावोनी पक्कड करे छे.
भगवानश्री अमृतचंद्राचार्यदेव कहे छे के हे मोक्षार्थीओ! तमे एम समजो के हुं सदाय एकरूप चैतन्यमय