Atmadharma magazine - Ank 055
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: १०२ : आत्मधर्म : ५५
स्वच्छंदे समसार वांचे के करोडो शास्त्रो वांचे तोय कांई समजाय नहि. स्वच्छंदने लीधे बधुं ज ऊंधुंं परिणमशे.
श्रीमद् राजचंद्रजीए कह्युं छे के–
‘निज कल्पनाथी कोटी शास्त्रो मात्र मननो आमळो’
पोताना स्वच्छंदथी करोडो शास्त्रो भणी जाय ते कांई ज्ञान नथी. एवुं शास्त्र ज्ञान तो अभव्य जीवने
पण होय छे. अहीं ‘मोक्षार्थीओ’ कहीने आचार्यदेवे साचा मुमुक्षु जीव केवा होय ते बताव्युं छे. जेना अंतरमां
संसारनो त्रास जाग्यो छे, स्वच्छंद छोडी दीधो छे, सत्समागमे अर्पणता प्रगटी छे, धर्मना नामे संसारनं कांई
पण प्रयोजन पोषतो नथी, एकला मोक्षनो ज अर्थी छे एवा जीवने श्रीगुरु कहे छे के–हे मोक्षार्थी जीव! तुं तारा
आत्माना शुद्ध चैतन्यस्वभावनी प्रतीति करीने तेनुं ज सेवन कर. तुं घणुं श्रवण करवामां रोकाजे, के घणा
शास्त्रोनुं वांचन करजे–एम नथी कह्युं पण पोताना शुद्धात्मानुं सेवन करजे एम कह्युं छे. ‘हुं शुद्ध चैतन्यमय
सदाय एक परम ज्योति छुं’ एवा सिद्धांतनुं सेवन करवुं ते मोक्षनो उपाय छे. सिद्धांतनुं सेवन एटले शुं?
शब्दोनी वात नथी पण ए सिद्धांत वडे जे वस्तु स्वभाव बताव्यो छे ते वस्तु स्वभावनी ज रुचि–ज्ञान–
अनुभव ने लीनता करवी.
मोक्षार्थी जीवना चित्तनुं चरित्र उदार छे, ऊंचुं छे, ऊज्जवळ छे. अहीं मुनिदशाना चारित्रनी वात नथी
पण सम्यक् श्रद्धा–ज्ञानना चारित्रनी वात छे. घरमां रहेला गृहस्थने य आवी दशा होय छे. श्रद्धा अने ज्ञाननुं
आचरण सुधारवानी वात छे. चोथुं गुणस्थान केम प्रगटे तेनी वात छे. ‘हुं सदाय जाणनार स्वभाव छुं, पुण्य–
पाप ना कोई भावो हुं नथी’ एवा सिद्धांतनुं सेवन करो–एटले एवी श्रद्धा करो, एवुं ज्ञान करो ने एवी
स्थिरता प्रगट करो.–ए ज मोक्षार्थी जीवनी क्रिया छे.
हुं त्रिकाळी शुद्ध छुं एवी द्रष्टिनुं सेवन करो, एटले पुण्यभाव थाय तेनुं पण सेवन न करो. जे पात्र
जीवने पुण्यभावमां पण होंश नथी ते जीव पाप प्रवृत्तिमां स्वच्छंदे वर्ते–एम केम बने? पुण्यभावनो पण जे
निषेध करे छे ते शुं पापभावनो आदर करशे? एम कदी बने नहि. कोई जीव ‘हुं त्रिकाळ शुद्ध छुं, मने बंधन
नथी’ एम मात्र वातोडियो थाय अने स्वच्छंदे गमे तेम प्रवर्ते, धर्मना बहाने स्त्रीओ साथे परिचय बांधे, मान
पोषे, पर्यायनो विवेक भूलीने मात्र शूष्कता सेवे ए तो महान विराधक छे, तेवा जीवोने शुद्ध आत्मानुं सेवन
होई शके नहि, तेओ तो स्वच्छंदतानुं सेवन करी रह्या छे. जेओ घणी लायकात प्रगट करीने आत्मा खातर ज
सत् समजवा प्रयत्न करे छे एवा आत्मार्थी–मोक्षार्थी जीवो आवा ज सिद्धांतनुं सेवन करो.
भगवाननी भक्ति करतां करतां चारित्र सुधरे एम मिथ्याद्रष्टि जीवो माने छे. भक्ति तो शुभराग छे,
शुं राग करवाथी चारित्र सुधरतुं हशे? वळी केटलाक अज्ञानीओ कहे छे के ‘आपणे पहेलांं चारित्र सुधारवा
मांडो अने त्याग करो, सम्यग्दर्शन तो कोईक भाग्यशाळीने ज थाय. ’ अरे भाई, सम्यग्दर्शन वगर चारित्रनो
सुधारो केवो? ने त्याग केवो? सम्यग्दर्शन न थाय अने चारित्र सुधरी जाय ए तो मूढ जीवनी वात छे. अहीं
आचार्यदेव सीधो अने सत्य उपाय बतावे छे के जे मोक्षार्थी होय ते बधाय जीवो, ‘हुं शुद्ध चैतन्यमय आत्मा छुं
ने अनेक प्रकारना जे विकारी भावो छे ते बधाय माराथी जुदा छे’ एवा सिद्धांतनुं सेवन करो. आ त्रिकाळी
सिद्धांत छे. जे पुण्य परिणाम थाय तेनो पण आमां नकार आव्यो तो स्वच्छंदे पाप सेववानुं तो नाम ज शेनुं
होय? पाप परिणाम सेवे अने माने के मने दोष लागतो नथी–एवा स्वच्छंदी जीवो तो आ सूत्र सांभळवाने य
लायक नथी. जेनां अंतरमां कोई छांदा नथी, मात्र एक आत्मार्थनुं ज काम छे एवा मोक्षार्थी जीवोने माटे आ
वात छे. जेम केरीना गोटलाने वावीने तेनुं पोषण करवाथी केरी पाके छे तेम ‘हुं सदाय शुद्ध चैतन्यस्वभाव छुं’
एवा साचा अभिप्रायवडे आत्मानुं सेवन करवाथी मोक्षफळ पाके छे. जेने शुद्ध आत्मानी श्रद्धानुं ज ठेकाणुं नथी
अने विकारपणे ज आत्माने सेवे छे ते जीवने विकार वधतां–वधतां अत्यंत हीनदशा प्राप्त थाय छे अर्थात् ते
निगोद जाय छे.
अहीं पर जीवोनी भावना नथी पण आत्मार्थी जीव पोताना स्वभाव सन्मुख थईने पोतानी ज
भावना करे छे. केवी भावना करे छे? ‘हुं शुद्ध चैतन्य छुं. सदाय एवो ने एवो ज छुं–’ एम त्रिकाळी
स्वभावनी भावना करे छे. हुं सदाय चैतन्यमय छुं–ए अस्ति पडखुं बताव्युं. हवे नास्ति पडखुं शुं छे ते बतावे
छे–अर्थात् केवा भावोनो निषेध करीने स्वभाव तरफ ढळे छे ते बतावे छे. ‘आ जे भिन्न लक्षणवाळा विविध
प्रकारना भावो प्रगट थाय छे ते हुं नथी, कारण के ते बधाय मने