चैतन्यपणुं ते मारुं लक्षण छे, अने जे विविध प्रकारना रागादि भावो थाय छे ते चैतन्यथी जुदा लक्षणवाळां छे,
हुं चैतन्य एक प्रकारनो छुं अने पर्यायना विकारभावो अनेक प्रकारना छे, हुं त्रिकाळ शाश्वत छुं अने आ
पर्यायना विकारभावो क्षणे क्षणे नवा नवा प्रगट थता जाय छे, माटे ते हुं नथी. ज्ञानी समजे छे के पर्यायमां
विकार छे, पण शुद्धचैतन्यद्रव्यस्वभावनी भावनाना जोरे तेनो निषेध करे छे. मारा पर्यायमां पण विकार थतो
नथी एम मानीने स्वच्छंदता सेवे ते तो मोटो पापी छे.
भावो तो क्षणिक छे, मारा चैतन्यभावमांथी तेनी उत्पत्ति थई नथी. मारुं शुद्ध चैतन्यस्वरूप सदाय एक सरखुं
छे, ने पर्यायमां जे अनेक प्रकारना शुभ के अशुभ भावो देखाय छे ते नवा नवा प्रगट थाय छे, ते भाव मारुं
स्वरूप नथी.–आम अभिप्राय करीने पोताना ज्ञानने शुद्धस्वभावमां परिणमावो. त्रिकाळी शुद्धस्वभावनो
आश्रय करवो, स्वभावनो आश्रय करतां व्यवहारभावोनो निषेध थई जाय छे–आवुं मोक्षार्थी जीवनुं स्वरूप छे.
पोताना चैतन्य स्वभावमां परिणमीने तेनुं ज सेवन करो. अने बीजा बधाय भावोने चैतन्यथी जुदा जाणीने
छोडो–एम मोक्षार्थी जीवोने उपदेश छे. एक शुद्ध चैतन्यमयभाव सिवाय बीजा बधाय भावो नवा नवा प्रगट
थाय छे, ते हुं नथी. ‘चैतन्य स्वभाव ते हुं छुं’ एम अस्तिधर्म अने ‘विकारभावो हुं नथी’ एम नास्तिधर्म–ए
रीते अस्ति–नास्तिधर्म वडे पोताना स्वभावने सिद्ध करवो ते ज अनेकांतधर्म छे.
ते हुं छुं ने विकारीभावो हुं नथी. चैतन्यस्वरूप ते ज स्वद्रव्य छे, ने बधाय विकारी भावो मारा माटे परद्रव्य छे,
ते कोई भावो मने सुखनुं कारण नथी, मारे ते भावोनो आश्रय नथी. जेम शरीर वगेरे जड वस्तुओनो
आत्मामां अत्यंत अभाव छे तेम चैतन्यस्वभावी आत्मामां विकारनो अत्यंत अभाव छे–एम मोक्षार्थी
अनुभवे छे. जे विकारने स्वद्रव्यपणे अनुभवे छे ते जीव कदी विकारथी मुक्त थतो नथी. स्वभावमां विकार
नथी, ज्यारे पोताना स्वभावमां ढळे छे त्यारे विकारनो अनुभव होतो नथी. माटे मोक्षार्थी जीवोए एम
अनुभव करवो के शुद्ध एक चैतन्य ज हुं छुं, विकार मारामां नथी. विकारभावो छे माटे हुं स्वभावमां ढळुं छुं–
एम नथी, पण विकारनो अभाव करीने स्वभावमां ढळुं छुं. ज्यारे हुं स्वभावमां ढळुं छुं त्यारे विकारनो
अभाव (–निषेध) थई जाय छे, तेथी ते माराथी परद्रव्य छे. नानामां नानो धर्मी जीव पण आवा ज
अभिप्रायनुं सेवन करे छे. आवा अभिप्रायथी ज धर्मनी शरूआत थाय छे. अने त्यारपछी पण आवा
स्वभावना सेवनथी ज ज्यारे चैतन्यमां विशेष लीनता थतां राग अल्पमां अल्प थई जाय त्यारे मुनिदशा
प्रगटे छे, त्यां बाह्य अने अंतरमां निर्ग्रंथपणुं होय छे.
हांडलानुं पाणी तो जराय ऊनुं थयुं नथी अने उपला हांडलानी वस्तु बराबर पाकी गई छे; तो एनी वात
तद्दन खोटी छे. तेम–मोक्षमार्गमां एवो क्रम छे के पहेलांं सम्यग्दर्शन थाय पछी सम्यक्चारित्र थाय. तेने बदले
अज्ञानी जीव कहे छे के पहेलांं चारित्र करो. पण सम्यक्दर्शन वगर चारित्र होई ज शके नहि. सम्यग्दर्शन थयुं
नथी अने चारित्र तथा मुनिदशा थई गई छे एम माननार मिथ्याद्रष्टि छे. पर्यायमां राग होवा छतां धर्म थाय
छे. राग पोते धर्म नथी पण राग वखते ज रागरहित चैतन्यस्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान टकावी राखवां ते धर्म छे हुं
परथी अने विकारथी छूटो छुं एवो सिद्धांत सेवे तो विकारथी मुक्ति थाय, पण हुं परना संबंधवाळो ने विकारी
छुं एवा सिद्धांतनुं सेवन करे तो विकारनो अने परनो संबंध छूटे नहि ने मुक्ति थाय नहि. हे आत्मार्थी जीव!
जो तारे कार्यसमयसार–परमात्मा