जेठ : २४७४ आत्मधर्म : १४५ :
दुनियानो भाण
(वैशाख सुद बीजनी सवारे व्याख्यान पछी गवायेलुं)
उग्यो सूर्य आ भारतनां भाग्यनो जनम्यां ए
लाडीला कान
भक्तना भगवान के पंथ देखाडनार,
हृदयना आधार
तेनुं जीवन अमर रहेजो ज्योत अखंड रहेजो
एम रहेजो ए काननो जय...
त्यागीओनी मंडळीमां पंडितोनी हारमां
काननुं ज्ञान आबाद
धरती खुंदी अमे ठेर ठेर जोयुं
कान दुनियानो “भाण”
जेणे हलाव्युं हिंदने, जगाडयुं जगने
ए उजाळ्युं जैन शासन.........
एनी वाणीना सूरे भक्तोना वृंद झुले
नयनोना नूर पूरे
जनम जनमना उतरता थाक त्यां
मोक्षना मंडप रोपाय
सहु चालो निहाळवा चालोने वंदवा
ए चालो गुरुने पूजवा........
स्वाधीन स्वतंत्र तुज अमर संदेशो
सीमंधर सभामां वखणाय
आव्या ए कान विदेह क्षेत्रथी
आनंद आनंद थाय
जेणे प्रकाश्यो मार्गने, समजाव्या षट् द्रव्यने
ए ओळखाव्यो आतमाराम...
उग्यो सूर्य आ भारतना भाग्यनो जनम्यां ए
लाडीला कान....
बहु तारा उपकार....
(कोईनो लाडकवायो–ए राग)
(वैशाख सुद बीजने दिवसे सवारमां गवायेलुं)
गुरुजी बहु तारा उपकार प्रभुजी बहु तारा उपकार
तारा गुणनो नावे पार.................. गुरुजी.
जन्म जन्मना दुःखीया जीवो तारी शरणमां आवे,
भव दुःखीयानो तुं विसामो शांति रस पान करावे;
एवा भवदुःखभंजनहार........गुरुजी.
टळवळतां अंधकारमां न्होतुं अमने भान,
ज्ञान ज्योति प्रगटावीने उगार्यो भगवान;
एवा अम अंधतणा आधार.......गुरुजी.
भव्य जीवोनी भीड भांगवा भेटया छो भगवान,
आत्म स्वरूपनो भेटो करावी दूर करे अज्ञान,
एवा ज्ञानामृत पानार.......गुरुजी.
अजब शौर्यताथी भरेली अद्भुत वाणी तारी,
आत्म तृषित जीवोने माटे अपूर्व मंगलकारी:
एवा श्रुतज्ञान धरनार.......गुरुजी.
अध्यात्म रसथी वहे उछरतुं आंतर जीवन तारुं,
आत्मार्थीने अर्पे जीवन आत्महित करनारुं
एवा आत्म जीवन देनार.........गुरुजी.
शुद्धात्म स्वरूपे मस्त बन्यो तुं क्षायक भक्ति अपार,
जैनशासननो डंको गजावी वरताव्यो जयकार;
एवा श्रेष्ठ गुण भंडार........गुरुजी.
स्वरूप स्थित “श्री कहान गुरुनी” जगमां न मळे जोड,
एवा योगी अम आंगणे आजे पूर्ण थशे अम कोड;
एवा स्वरूप जीवन जीवनार..........गुरुजी.
प्रभु तुल्य मानी गुरुने वर्तुं आज्ञाधार,
शुद्धात्म स्वरूपनुं भान कराव्युं मुक्त थवा संसार;
एवा स्वरूप दान दातार......गुरुजी.
देवपरी
(वैशाख सुद बीजने दिवसे बालिकाए नृत्य वखते गायेलुं)
देव परीरे हुं तो देवपरी
गगन मंडळमां रमती घुमती
माणेक मोतीना थाळ भरी नीसरी..........देवपरी
सीमंधर प्रभु ने, कुंद–कान देवना
देश विदेशे संदेश पूछती
कहो मने किहा (मारा) सीमंधर प्रभुजी....देवपरी
भरत भूमिनां सुवर्णपुरमां
जिनमंदिर त्यां नयने नीरखी
हर्ष भरी जिन द्वारे उतरी..............देवपरी
अहो, अद्भूत प्रभु मुद्रा तारी!
भक्ति भावे तुज वंदन (पूजन) करती
विध–विध भावे हुं तो नृत्यो करती.......देवपरी
स्वाध्याय मंदिरे गुरुवंदन चली
वंदन करीने मीठी वाणी सुणी
वाणी सुणीने हुं तो घेली बनी
घेली बनीरे हुं घेली बनी................. देवपरी.
प्रभु चरणे नमी शरणुं लेती
कुंद–कान देवना चरणोमां नमती
संतोना मंगळ गीत गाती
गुरु चरणे हुं तो नमीरे नमी...............देवपरी.