जेठ : २४७४ आत्मधर्म : १३३ :
भगवान महावीर स्वामी के मोक्ष जानेके करीब ५०० वर्ष बाद पूज्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी हुये, उन्होंने
विदेहक्षेत्रमें भगवान् सीमंधर स्वामी के पास जाकर ८ दिवस रहकर वापस भरतक्षेत्र आनेके बाद सूत्ररूपमें श्री
परमागम समयसारकी रचना की, उसके करीब १००० वर्ष बाद श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यने उसपर विशेष विस्तृत
रूपसे आत्मख्याति नामकी टीका बनाई उसके करीब १००० वर्ष बाद ही आज उस टीका के उपर विस्तृत विशद
रूपसे पूज्य श्री स्वामीजी द्वारा प्रवचन हो रहा है जो समयसारकी परम्परा आगे चालु रहने के लिये मूलभूत
कारण है. पूज्य कुंदकुंद भगवान् की रचना सूत्ररूपमें हुई, आज हम मंद बुद्धि जीवोंको अगर अमृतचन्द्र
स्वामीने ईतनी स्पष्ट व्याख्या नहि की होती, तथा महाराज साहबने न समझाया होता तो ईसका समझना
अशक्य था और आगामी जीव हमसे भी मंद क्षयोपशम वाले होंगे, उनके लिये यह ‘प्रवचन’ रूपमें अभीसे
तयारी हो गई है–यह एक सहज निमित्त–नैमित्तिक सबंध बताता है कि आगामी भी पात्र ज्ञानी जीव
होनेवाले हैं, भगवानका वाक्य है कि पंचमकालके अंत तक भी ज्ञानी जीव होंगे. अत: भूतकालमें हुये ज्ञानी
जीव, वर्तमानके ज्ञानी महात्मा पुरूष तथा भविष्यतमें होनेवाला ज्ञानी आत्माओको अत्यंत अत्यंत भक्ति
भावसे नमस्कार.
आत्माके मूल धर्मका सर्वोत्कृष्ट विवेचन तो समयसारमें ही है अत: ईसही की परंपरासे यथार्थ धर्म
टिकेगा. ईस प्रकार पूज्य श्री आत्माके मूल धर्मकी परंपराको टिकानेके लीये एक मूलभुत स्तंभ के रूपमें हैं.
पूर्वके ईतिहाससे मालुम होता है कि पूर्व सेंकडो वर्षोमें दिगम्बर परंपरामें अनेक अध्यात्मरसिक
विभूतियां हुई हैं लेकिन किसीके समयमें ईतना जोरोंसे अध्यात्मका प्रचार नहि होसका. जैसा कि शाह दीपचंदजी
जो श्री टोडरमल्लजीसे भी पहले हुये हैं अपनी कृति ‘भाव दीपिका’ के अंतमें ऐसा लीखते हैं कि “सत्यवक्ता
साचा जिनोक्त सूत्रके अर्थग्रहण करावनेहारे कोई रहा नाहीं, तातैं सत्य जिनमतका तो अभाव भया तब धर्म
तैं परान्मुख भये, तब कोई कोई गृहस्थ सुबुद्धि संस्कृत प्राकृतका वेत्ता भया, ताकरि जिनसूत्र को अवगाहा,
तब एसा प्रतिभासता भया जो सूत्रके अनुसार एकभी श्रद्धान–ज्ञान–आचरणनकी प्रवृत्ति न करै है, उर बहुत
काल मिथ्याश्रद्धान–ज्ञान–आचरणकी प्रवृत्तिकों ताकरि अतिगाढताने प्राप्त भई, तातें मुख करी कही मानें नहीं
तब जीवनका अकल्याण होता जानि करूणाबुद्धि करि देशभाषा विषें शास्त्र रचना की.”
एसा ही पंडित जयचंद्रजी छावडा भी अपनी समयप्राभृतकी देशवचनिकाके अंतमें लिखते हैं कि “काल
दोषसे ईन ग्रंथोकी गुरु संप्रदायका व्युच्छेद हो गया है, ईससे जितना बनता है उतना अभ्यास होता है. लेकिन
आज तो सेंकडोंकी तादादमें मुमुक्षु जीव निरंतर रहकर धर्म श्रवण करते हैं, हजारोंकी तादादमें श्रद्धालु हो चुके हैं
तथा लाखोंकी तादादमें अध्यात्म ग्रंथ प्रकाशित होते हैं ओर तुरंत ही खप जाते हैं, ईतनी पात्र जीवोंकी तैयारी
हो रही है.
श्री स्वामी जयसेनाचार्यने समयसारके संवर अधिकारके अंतकी गाथाओंके अर्थमें लिखा है कि
“चतुर्थकालमें भी केवली भगवान कया आत्माको हाथमें लेकर दिखा देते थे? उनके द्वारा भी दिव्यध्वनी में
उपदेश होता था, ईसलिये श्रवण कालमें श्रोताओंको आत्मा परोक्ष होता था पश्चात् समाधि के समय प्रत्यक्ष
होता था, जैसा कि ईस कालमें भी होता है.” उस कथनकी सत्यता यहां प्रत्यक्ष अनुभवमें आती है. पूज्य
स्वामीजीका व्याख्यान ईतनां सरल और स्पष्ट होता है और सीधा प्रयोजनभूत तत्त्वको लिये हुये होता है कि
शुद्ध हृदयसे यदि जीव ग्रहण कर लेवे तो आत्म–साधनाके लीये पर्याप्त है.
ईस सौराष्ट्र देशको धन्य है, उस ग्रामको, उन मातापिताको धन्य है जहांसे एसे युगप्रधान महापुरूषका
जन्म हुआ तथा आपलोगोंको धन्य है जो धारावाहि निरंतर उन उपदेशोंका लाभ ले रहे हैं.
मेरे उपर पूज्य स्वामीजी महाराजका बहुत बहुत उपकार है जिनका मैं किन्हीं शब्दोंमें वर्णन नहि कर
सकता, अनादि कालसे ईस आत्माका स्वरूप नहि समझा था वह गुरूदेवकी कृपासे समजा है और पूर्ण विश्वास
है कि पूज्यश्री के चरण सान्निध्यसे निश्चयसे संसारका अंत होकर निःश्रेयम अवस्था प्राप्त होगी.
हमारी भावना है कि पूज्य महाराज साहब शत शत वर्ष रहकर सब मुमुक्षुओंकी आत्म जिज्ञासाको
तृप्त करते रहें.