: १६२ : आत्मधर्म : अषाढ : २४७४ :
ओछी पडे छे तथा जो कषाय मंद होय तो स्थिति लांबी बंधाय छे. आवुं स्थितिबंधनुं स्वरूप जाणवुं.
अनुभाग बंध:– जो कषाय तीव्र होय तो घाति कर्मनी सर्व प्रकृतिमां अने अघातिनी पाप प्रकृतिमां वधु
अनुभाग बंध (फळदान शक्ति) पडे छे अने मंदकषाय होय तो थोडो अनुभाग बंध थाय छे. ज्यारे अघातिनी पुन्य
प्रकृतिमां जो कषाय तीव्र होय तो अनुभागबंध ओछो अने जो कषाय मंद होय तो अनुभाग बंध तीव्र–वधु पडे छे.
२ ब. ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अंतराय, वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र ए आठ प्रकारना कर्मोमांथी
नवीन बंधमां फक्त मोहनीय ज निमित्त थाय छे. कारण ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतरायना निमित्ते जे ज्ञान, दर्शन,
वीर्यनो अभाव छे ते कंई बंधनुं निमित्त न थाय. कारण जे अभाव छे ते सद्भावमां–नवीन बंधमां–निमित्त केम होई
शके? ज्ञान, दर्शन, वीर्यनो जेटलो क्षयोपशमभाव–उघाडभाव छे ते तो स्वभावनो ज अंश छे: ते पण नवीन बंधमां
निमित्त न थाय, कारण स्वभाव जो बंधनुं कारण बने तो स्वभाव त्रिकाळी छे माटे बंध पण त्रिकाळ थई जाय. पण
एम होई शके नहि. पण मोहनीयना निमित्तथी विपरीत श्रद्धान रूप जे मिथ्यात्व तथा क्रोध, मान, माया, लोभादि
भाव छे ते ज बंधनुं कारण छे. हवे बाकीना जे चार अघाति कर्मो छे तेना कारणे तो बाह्य शरीरादिमां बाह्य संयोग
मळे छे. तो कंई परद्रव्य बंधनुं कारण न ज होय. कारण परद्रव्य त्रिकाळ छे ते जो बंधनुं कारण बने तो बंध पण
त्रिकाळ थई जाय. पण एम बनतुं नथी. फक्त तेमां आत्माना मिथ्यात्वादि भाव ज बंधनुं कारण छे.
क. नवीन बंध थवामां जेम मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग छे तेम बंध टळवानो क्रम पण ते ज छे.
मिथ्यात्व ते ज महाबंध छे. ते टाळ्या विना जो कोई अविरति आदि टाळवानो उपाय करे तो ते मिथ्या छे.
उत्तर: ३
अ. महाव्रत–अणुव्रत ते मोक्षनुं साधन नथी. कारण ते विकल्प छे, राग छे, आश्रव छे, बंधनुं कारण छे. ज्यारे
मोक्ष ते मुक्ति छे. बंधनरहितपणुं छे. माटे बंधनरहितनुं कारण बंध होय शके नहि.
ब. संवर अने निर्जरा थवानो उपाय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यग्चारित्रनी ऐकयता छे.
क. शुभयोगथी धर्म थाय नहि कारण शुभयोग एटले दया, दान, पूजाना भाव वखते जे योगनी प्रवृत्ति. योग
छे ते आश्रव छे तेथी आश्रवथी धर्म थाय नहि, तथा ज्यां सुधी सम्यकत्व न होय त्यां सुधी घाति कर्मनी सर्व
प्रकृतिओनो सतत बंध थया ज करे छे. के जे आत्म–स्वभावना घातमां निमित्त छे. माटे शुभयोगथी कदीपण धर्म थतो
नथी. घातिनी सर्व प्रकृतिओ पापनी ज छे.
उत्तर: ४
क. छद्मस्थ संसारीनुं लक्षण रागद्वेष ते सदोष छे तेमां अव्याप्ति दोष आवे छे. कारण ११ तथा १२ मा
गुणस्थानवाळा जीव छद्मस्थ संसारी छे पण तेमने रागद्वेष नथी.
ख. जडनुं लक्षण अरूपीपणुं ते सदोष छे, तेमां अव्याप्ति अने अतिव्याप्ति दोष आवे छे. कारण पांच
जडपुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काळ छे तेमां अरूपीपणुं पुद्गळमां व्यापतुं नथी, तेथी अव्याप्ति दोष अने अरूपीपणुं
ते जड उपरांत जीवमां पण व्यापे छे माटे अतिव्याप्ति दोष.
ग. व्यवहारचारित्र ते मुनिनुं लक्षण ते सदोष छे. तेमां अव्याप्ति दोष आवे छे. कारण जे व्यवहार चारित्र ते
विकल्परूप छे अने तेवो विकल्प ७ मा गुणस्थानथी उपरना गुणस्थानवाळाने होता नथी. तेओ मुनि कहेवाय छे खरा.
माटे अव्याप्ति दोष.
घ. अजीवनुं लक्षण असंख्यात प्रदेशीपणुं ते सदोष छे. तेमां अव्याप्ति अने अतिव्याप्ति दोष आवे छे. अजीव–
पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काळ छे. तेमां काळ छे ते एक प्रदेशी छे माटे अव्याप्तिदोष, तेमां असंख्य प्रदेशीपणुं
व्यापतुं नथी. अने अजीव उपरांत जीवमां पण असंख्य प्रदेशीपणुं व्यापे छे (जीव असंख्यप्रदेशी छे) माटे
अतिव्याप्तिदोष.
ङ. कर्म संयुक्तपणुं ते संसारीनुं अनात्मभूत लक्षण ते बराबर छे. कारण सर्व संसारी जीवोने निगोदथी
अयोगी केवळी सुधी–कर्मनुं संयुक्तपणुं छे. तथा कर्म ते जीवना स्वरूपमां व्यापेल नथी माटे अनात्मभूत पण बराबर छे.
च. औदारिक शरीर ते मनुष्यनुं अनात्मभूत लक्षण ते सदोष छे तेमां अव्याप्ति अने अतिव्याप्तिदोष