ए ज रीते जगतना अनंत परद्रव्योने ते पोताना माने छे तेथी तेने मिथ्यात्वरूप महान असत्यनुं सेवन छे.
विकल्पने तोडीने वीतरागभावे आत्माना अनुभवमां लीन थाय त्यारे बहारमां वाणी बोलाती न होय–एवुं
परमाणुओनुं स्वतंत्र परिणमन होय छे. “मौन रहेवुं” ए तो ‘घीनो घडो’ कहेवानी जेम उपचारकथन छे.
खरेखर भाषा करवी के भाषाने अटकाववी ते चेतनने आधीन नथी. धर्मोपदेश करुं, स्वाध्याय करुं एवा
प्रकारनो शुभविकल्प मुनिने थाय अने परम सत्यउपदेश नीकळे पण खरो, परंतु ते वखते सम्यक्श्रद्धा–
ज्ञानपूर्वक अशुभरागने छेदीने जेटलो वीतरागभाव छे ते ज धर्म छे, जे शुभराग छे तेने मुनि धर्म मानता
नथी, ने ते रागने आदरणीय मानता नथी, तेथी तेमने उत्तमसत्यधर्म छे. पण जो रागने आदरणीय माने तो
त्यां तो सम्यग्दर्शन पण होतुं नथी, उत्तमसत्यधर्म तो सम्यक् चारित्रनो भेद छे ते तो होय ज क्यांथी?
व्यवहार महाव्रतनुं पालन करतां करतां धर्म थाय एवो उपदेश आपे अगर तो निमित्तथी बीजानुं कार्य थाय,
जीवोनी तो वात नथी. अहीं तो, सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान पूर्वक सम्यक्चारित्रदशा प्रगट करीने जे मुनि थया
छे अने केवळज्ञान प्रगट करवानी तैयारीवाळा छे एवा मुनिवरोने संबोधन करीने आचार्यदेव कहे छे के––अहो
मुनिवरो! तमारे स्वरूपस्थिरतामां लीन रहीने संपूर्ण वीतरागता ज प्रगट करवी योग्य छे. मुनिओने कोई
प्रकारनो शुभराग पण करवो भलो नथी. सत्य वाणी तरफनी ईच्छा तोडीने परम सत्य आत्मस्वभावमां स्थिर
रहीने केवळज्ञान प्रगट करवुं योग्य छे.
भवत्याराधिता सद्भिः जगत्पूज्या च भारती।।
छे, तेमज ज्यारे अहिंसानुं वर्णन चालतुं होय त्यारे एम कहे के–अहिंसाना पालनमां ज सर्वे व्रतो आवी जाय
छे. अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य ईत्यादि भेदो व्यवहारधर्मनी अपेक्षाथी छे. परमार्थे तो एक वीतरागभावमां ज
अहिंसा, सत्य वगेरे बधा धर्मो आवी जाय छे.
वगर यथार्थ सत्यव्रत होई शके नहि. शुद्ध आत्मस्वभावनी श्रद्धा पछी चारित्रदशामां आगळ वधतां
सत्यव्रतादिना जे विकल्प आवे छे तेने उपचारथी–व्यवहारथी निमित्तथी उत्तम सत्य धर्म कहेवाय छे. परमार्थथी
उत्तम अहिंसा छे, ते वीतरागभाव ज ब्रह्मचर्य ईत्यादि छे. ने ते वीतरागभाव ज मोक्षमार्ग छे. एवो
वीतरागभाव मुनिवरोने होय छे. जे शुभराग थाय छे ते पण खरेखर असत्य छे, हिंसा छे. सम्यक्श्रद्धापूर्वक
वीतरागभावरूप उत्तम सत्य धर्ममां बीजा बधा धर्मो आवी जाय छे.