Atmadharma magazine - Ank 057
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: अषाढ : २४७४ : आत्मधर्म : १५५ :
वीतरागभावनो कर्ता छुं, ईच्छा के भाषानो हुं कर्ता नथी, ने तेओ मारुं कर्म नथी.
सत्य बोलाय ते शब्दोनो हुं कर्ता छुं–एम जे जीव माने ते जीव मोटा जूठ्ठा बोलो छे, केमके शरीर, वाणी
वगेरे पदार्थो पोतानां नथी ने पोते तेनो कर्ता नथी, छतां हुं ते पदार्थोनो कर्ता छुं–एम ते असत्य माने छे. अने
ए ज रीते जगतना अनंत परद्रव्योने ते पोताना माने छे तेथी तेने मिथ्यात्वरूप महान असत्यनुं सेवन छे.
अहीं आचार्यदेव कहे छे के मुनिवरोए मौन रहेवुं. तेनो साचो अर्थ ए छे के मुनिओए वाणी तरफनुं
लक्ष छोडीने आत्मामां एकाग्र रहेवुं. वाणीने रोकवानी क्रिया आत्मानी नथी, पण आत्मा ज्यारे बोलवाना
विकल्पने तोडीने वीतरागभावे आत्माना अनुभवमां लीन थाय त्यारे बहारमां वाणी बोलाती न होय–एवुं
परमाणुओनुं स्वतंत्र परिणमन होय छे. “मौन रहेवुं” ए तो ‘घीनो घडो’ कहेवानी जेम उपचारकथन छे.
खरेखर भाषा करवी के भाषाने अटकाववी ते चेतनने आधीन नथी. धर्मोपदेश करुं, स्वाध्याय करुं एवा
प्रकारनो शुभविकल्प मुनिने थाय अने परम सत्यउपदेश नीकळे पण खरो, परंतु ते वखते सम्यक्श्रद्धा–
ज्ञानपूर्वक अशुभरागने छेदीने जेटलो वीतरागभाव छे ते ज धर्म छे, जे शुभराग छे तेने मुनि धर्म मानता
नथी, ने ते रागने आदरणीय मानता नथी, तेथी तेमने उत्तमसत्यधर्म छे. पण जो रागने आदरणीय माने तो
त्यां तो सम्यग्दर्शन पण होतुं नथी, उत्तमसत्यधर्म तो सम्यक् चारित्रनो भेद छे ते तो होय ज क्यांथी?
मारा शुभरागथी के वाणीथी मने के बीजाने लाभ थाय अगर तो हुं निमित्त थईने बीजाने समजावी
दउं–एवो जेनो अभिप्राय छे ते जीव महा असत्य अभिप्रायनुं सेवन करनार मिथ्याद्रष्टि छे. शुभराग के
व्यवहार महाव्रतनुं पालन करतां करतां धर्म थाय एवो उपदेश आपे अगर तो निमित्तथी बीजानुं कार्य थाय,
पुण्यथी धर्म थाय–एवा एवा प्रकारनो उपदेश आपे ते जीव असत्य वकता छे अने मिथ्याद्रष्टि छे. एवा
जीवोनी तो वात नथी. अहीं तो, सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान पूर्वक सम्यक्चारित्रदशा प्रगट करीने जे मुनि थया
छे अने केवळज्ञान प्रगट करवानी तैयारीवाळा छे एवा मुनिवरोने संबोधन करीने आचार्यदेव कहे छे के––अहो
मुनिवरो! तमारे स्वरूपस्थिरतामां लीन रहीने संपूर्ण वीतरागता ज प्रगट करवी योग्य छे. मुनिओने कोई
प्रकारनो शुभराग पण करवो भलो नथी. सत्य वाणी तरफनी ईच्छा तोडीने परम सत्य आत्मस्वभावमां स्थिर
रहीने केवळज्ञान प्रगट करवुं योग्य छे.
श्री आचार्यदेव उत्तम सत्य धर्मनो महिमा बतावे छे–
सति सन्ति व्रतान्येव सूनृते वचसि स्थिते।
भवत्याराधिता सद्भिः जगत्पूज्या च भारती।।
९२।।
जे जीव सत्य वचन बोलनार छे तेने समस्त व्रत विद्यमान रहे छे अर्थात् सत्य व्रतनुं पालन करवाथी
समस्त व्रतोनुं पालन थाय छे अने ते सत्यवादी पुरुष जगत् पूज्य एवी सरस्वतीने पण सिद्ध करी ले छे.
शास्त्रोमां एवी कथन शैली होय छे के, ज्यारे जेनुं वर्णन करवुं होय तेने मुख्य करे छे अने बीजाने गौण
करे छे. अहीं सत्य व्रतनुं वर्णन करवुं छे तेथी तेने मुख्य करीने कह्युं के एक सत्य व्रतना पालनमां बधा व्रतो
समाई जाय छे. ज्यारे ब्रह्मचर्यनुं वर्णन करवुं होय त्यारे एम कहेवाय के ब्रह्मचर्यव्रतमां सर्व व्रतो समाई जाय
छे, तेमज ज्यारे अहिंसानुं वर्णन चालतुं होय त्यारे एम कहे के–अहिंसाना पालनमां ज सर्वे व्रतो आवी जाय
छे. अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य ईत्यादि भेदो व्यवहारधर्मनी अपेक्षाथी छे. परमार्थे तो एक वीतरागभावमां ज
अहिंसा, सत्य वगेरे बधा धर्मो आवी जाय छे.
सत्य–असत्य वचन तरफना शुभ के अशुभ विकल्प ते आत्मानुं स्वरूप नथी. सत्य–असत्य वचनो तेम
ज ते तरफनो शुभ–अशुभराग ते बनेथी जुदो रहीने आत्मा तेनो ज्ञाता छे; एवा आत्मस्वभावना आश्रय
वगर यथार्थ सत्यव्रत होई शके नहि. शुद्ध आत्मस्वभावनी श्रद्धा पछी चारित्रदशामां आगळ वधतां
सत्यव्रतादिना जे विकल्प आवे छे तेने उपचारथी–व्यवहारथी निमित्तथी उत्तम सत्य धर्म कहेवाय छे. परमार्थथी
तो सत्य वचन तरफनो राग पण छोडीने जे वीतराग भाव थयो ते ज उत्तम सत्य धर्म छे. ते वीतरागभाव ज
उत्तम अहिंसा छे, ते वीतरागभाव ज ब्रह्मचर्य ईत्यादि छे. ने ते वीतरागभाव ज मोक्षमार्ग छे. एवो
वीतरागभाव मुनिवरोने होय छे. जे शुभराग थाय छे ते पण खरेखर असत्य छे, हिंसा छे. सम्यक्श्रद्धापूर्वक
वीतरागभावरूप उत्तम सत्य धर्ममां बीजा बधा धर्मो आवी जाय छे.