Atmadharma magazine - Ank 057
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: अषाढ : २४७४ : आत्मधर्म : १५७ :
आत्मानो वीतराग ज्ञानमय स्वभाव छे, ते परनी उपेक्षा करनार छे. परनी उपेक्षा कर्या वगर
वीतरागभाव प्रगटे नहि अने वीतरागभाव वगर उत्तम सत्य वगेरे धर्मो होय नहि. ‘हुं परनुं करी कशुं के
निमित्त होय तो कार्य थाय’ एवी जेनी मान्यता छे ते जीव परपदार्थोनी उपेक्षा करीने स्वभावमां ढळी शकशे
नहि. परथी भिन्न पोताना स्वभावने ओळखीने जे जीव परमसत्यनुं (आत्मस्वभावनुं) आराधन करे छे ते
जीव वीतराग भावना फळमां मुक्ति पामे छे अने साधकदशामां जे राग रही जाय तेना फळमां ईन्द्रादि पदवी
पामे छे. अज्ञानीओ गमे तेवा सत्यनो शुभराग करे ते पण तेने ईन्द्र–चक्रवर्ती आदि लोकोत्तर पदवी मळे नहि.
ज्ञानीओने साधकदशामां जे राग वर्ततो होय तेनो निषेध छे तेथी तेमने ईन्द्रादि पदने योग्य ऊंचा पुण्य बंधाई
जाय छे. अने आ लोकमां पण एवा सम्यग्ज्ञानी सत्यवादीने सज्जनपुरुषो आदरद्रष्टिथी देखे छे, अने तेनी
उज्जवळ कीर्ति सर्वत्र थाय छे. आचार्यदेव कहे छे के ए बधा फळ तो गौण छे. उत्तम सत्य धर्मनुं मुख्य फळ तो
मोक्षपदनी प्राप्ति छे. माटे सज्जनोए जरूर सत्य बोलवुं जोईए एटले के, दरेक वस्तु स्वतंत्र सत् छे एम
समजीने वस्तुस्वभावनी सम्यक्श्रद्धा अने ज्ञान प्रगट करवा जोईए, ने ए सम्यक्श्रद्धा–ज्ञानपूर्वक
उत्तमक्षमादिभावरूप वीतराग धर्मनुं आराधन करवुं जोईए. ––ए रीते उत्तम सत्य धर्मनुं व्याख्यान पूरुं थयुं.
प. उत्तम शौच धर्म (भादरवा सुद ९)
दशलक्षणीपर्वनो आजे पांचमो दिवस छे. आजे उत्तम शौचधर्मनो दिवस छे. उत्तम शौच एटले
सम्यग्दर्शनपूर्वकनी पवित्रता अथवा निर्लोभता. आ दस धर्मो मुख्यपणे मुनिदशामां होय छे, गृहस्थधर्मीने
गौणपणे होय छे. श्रीपद्मनंदीआचार्य पद्मनंदीपचीसी शास्त्रमां शौचधर्मनुं वर्णन करे छे–
(आर्या)
यत्परदारार्थादिषु जन्तुषु निस्पृहमहिंसकं चेतः।
दुर्भेद्यान्तमल हृत्तदेव शौचं परं नान्यत् ।।
९४।।
जे पर स्त्री अने पर पदार्थो प्रत्ये निस्पृह छे, सर्व प्राणीओ प्रत्ये अहिंसक छे अने दुर्भेद्य एवा अंतरना
मेलने जेणे धोई नांख्यो छे एवुं पवित्र हृदय ते ज उत्तम शौचधर्म छे, ए सिवाय बीजो कोई शौचधर्म नथी.
शौच एटले पवित्रता. जेने पवित्र आत्मानुं भान नथी अने देहने ज पोतानो मानी रह्यो छे एवो
अज्ञानी जीव शरीरने पवित्र राखवुं तेने शौचधर्म माने छे. आचार्यदेव कहे छे के ए शौचधर्म नथी. शरीरने
पोतानुं मानवुं ते तो महान अशुचि छे. जे आत्माए भेदज्ञानरूपी जळथी ते मिथ्यामान्यतारूपी अशुचिने धोई
नाखी छे ते ज आत्मा शौचधर्म छे.
जेने पवित्र चैतन्यस्वरूपनुं भान न होय अने पुण्य–पापने ज पोतानुं कर्तव्य माने, परनुं हुं करुं एम
माने ते जीव परपदार्थोथी निस्पृह थई शके नहि. पुण्य–पापरूप विकारभावोनी जेने पककड छे तेनुं ज्ञान
विकारथी मलिन छे. परनुं हुं करुं एम जे माने छे तेनुं ज्ञान मिथ्यात्वरूप मेलथी मलिन छे. परनी मने मदद छे,
निमित्तना आश्रये धर्म थाय छे–एवी जेनी मान्यता छे ते जीव पर पदार्थोमां आसकत छे. जे जीव परमां
आसकत छे ते जीव महान अशुचिथी भरेलो छे. जेणे पुण्यमां अने तेना फळमां सुख मान्युं छे ते जीव खरेखर
स्त्रीओ प्रत्ये निस्पृह नथी. जे पुण्यमां आसक्त छे ते जीवने तेना फळमां पण आसक्ति छे; ते जीव स्त्रीआदि
पदार्थो प्रत्ये निस्पृह नथी अने तेने शौचधर्म होतो नथी.
स्नान वगेरेथी शरीरने चोकखुं राखे ते कांई शौचधर्म नथी. शरीरनी शुद्धिथी आत्माने धर्म मानवो ते
मिथ्यात्व छे. अने पुण्य–पापना भावोथी आत्मानी पवित्रता थाय एम माने तेने जराय धर्म थाय नहि, पण
ऊलटो मिथ्यात्वरूपी मेल पुष्ट थाय. शरीरथी भिन्न अने पुण्य–पापथी रहित एवा पवित्र आत्मस्वरूपनी
साची ओळखाणरूपी जळवडे मिथ्यात्वरूपी मेलने धोई नाखवो अने पवित्र आत्मस्वरूपमां एकाग्रतावडे
रागादि मेलने धोई नांखवा ते ज उत्तम शौचधर्म छे, एवो धर्म मुनिओने होय छे. जेटलो रागादि विकल्प थाय
ते तो अशुचि छे. मुनिवरोनी परिणति स्त्री–लक्ष्मी वगेरेथी तद्न निस्पृह छे, शुभ तेमज अशुभ बंने भावोने
सरखा माने छे, बंने भावो अशुचिरूप छे, आत्मस्वभावथी विपरीत अशुद्धभाव छे. मुनिओने सहज ज्ञाननी
एकाग्रताथी ते रागादि अशुद्धभावो थता ज नथी; रागादि रहित वीतरागभाव ते उत्तम शौचधर्म छे. ए
सिवाय बीजो कोई उत्तम शौचधर्म नथी.