निमित्त होय तो कार्य थाय’ एवी जेनी मान्यता छे ते जीव परपदार्थोनी उपेक्षा करीने स्वभावमां ढळी शकशे
नहि. परथी भिन्न पोताना स्वभावने ओळखीने जे जीव परमसत्यनुं (आत्मस्वभावनुं) आराधन करे छे ते
पामे छे. अज्ञानीओ गमे तेवा सत्यनो शुभराग करे ते पण तेने ईन्द्र–चक्रवर्ती आदि लोकोत्तर पदवी मळे नहि.
ज्ञानीओने साधकदशामां जे राग वर्ततो होय तेनो निषेध छे तेथी तेमने ईन्द्रादि पदने योग्य ऊंचा पुण्य बंधाई
जाय छे. अने आ लोकमां पण एवा सम्यग्ज्ञानी सत्यवादीने सज्जनपुरुषो आदरद्रष्टिथी देखे छे, अने तेनी
उज्जवळ कीर्ति सर्वत्र थाय छे. आचार्यदेव कहे छे के ए बधा फळ तो गौण छे. उत्तम सत्य धर्मनुं मुख्य फळ तो
मोक्षपदनी प्राप्ति छे. माटे सज्जनोए जरूर सत्य बोलवुं जोईए एटले के, दरेक वस्तु स्वतंत्र सत् छे एम
समजीने वस्तुस्वभावनी सम्यक्श्रद्धा अने ज्ञान प्रगट करवा जोईए, ने ए सम्यक्श्रद्धा–ज्ञानपूर्वक
उत्तमक्षमादिभावरूप वीतराग धर्मनुं आराधन करवुं जोईए. ––ए रीते उत्तम सत्य धर्मनुं व्याख्यान पूरुं थयुं.
गौणपणे होय छे. श्रीपद्मनंदीआचार्य पद्मनंदीपचीसी शास्त्रमां शौचधर्मनुं वर्णन करे छे–
दुर्भेद्यान्तमल हृत्तदेव शौचं परं नान्यत् ।।
पोतानुं मानवुं ते तो महान अशुचि छे. जे आत्माए भेदज्ञानरूपी जळथी ते मिथ्यामान्यतारूपी अशुचिने धोई
नाखी छे ते ज आत्मा शौचधर्म छे.
विकारथी मलिन छे. परनुं हुं करुं एम जे माने छे तेनुं ज्ञान मिथ्यात्वरूप मेलथी मलिन छे. परनी मने मदद छे,
निमित्तना आश्रये धर्म थाय छे–एवी जेनी मान्यता छे ते जीव पर पदार्थोमां आसकत छे. जे जीव परमां
आसकत छे ते जीव महान अशुचिथी भरेलो छे. जेणे पुण्यमां अने तेना फळमां सुख मान्युं छे ते जीव खरेखर
स्त्रीओ प्रत्ये निस्पृह नथी. जे पुण्यमां आसक्त छे ते जीवने तेना फळमां पण आसक्ति छे; ते जीव स्त्रीआदि
ऊलटो मिथ्यात्वरूपी मेल पुष्ट थाय. शरीरथी भिन्न अने पुण्य–पापथी रहित एवा पवित्र आत्मस्वरूपनी
साची ओळखाणरूपी जळवडे मिथ्यात्वरूपी मेलने धोई नाखवो अने पवित्र आत्मस्वरूपमां एकाग्रतावडे
रागादि मेलने धोई नांखवा ते ज उत्तम शौचधर्म छे, एवो धर्म मुनिओने होय छे. जेटलो रागादि विकल्प थाय
ते तो अशुचि छे. मुनिवरोनी परिणति स्त्री–लक्ष्मी वगेरेथी तद्न निस्पृह छे, शुभ तेमज अशुभ बंने भावोने
सरखा माने छे, बंने भावो अशुचिरूप छे, आत्मस्वभावथी विपरीत अशुद्धभाव छे. मुनिओने सहज ज्ञाननी
एकाग्रताथी ते रागादि अशुद्धभावो थता ज नथी; रागादि रहित वीतरागभाव ते उत्तम शौचधर्म छे. ए