शुभपरिणामने पोतानुं स्वरूप मानता नथी, ने तेमां एकता करता नथी. तेथी श्रद्धा–ज्ञान अपेक्षाए तेने पण
शौचधर्म छे. आत्मामां परभावनुं जे ग्रहण करे छे ते परमार्थे पराया धननुं ग्रहण छे. जेने परभावोमां
ज्ञानानंद स्वभावना अनुभवनी जागृति द्वारा परभावोनी उत्पत्ति थवा देता नथी तेथी तेओ समस्त पर
पदार्थो ने परभावोथी निस्पृह छे; परभावोथी रहित तेमनी पवित्र वीतरागी परिणति ते ज उत्तमशौचधर्म छे.
बहारमां स्नानादि ते शौच नथी अने पुण्य परिणाममां पण आत्मानी शुचि नथी. जे भेदवा कठण छे एवा
पुण्य–पाप भावोरूप मलिनताने आत्मानी पवित्रताना जोरे जेणे भेदी नाखी छे तेने उत्तमशौचधर्म छे.
मिथ्यात्वा दिमलीमसं यदि मनो बाह्येऽतिशुद्धोदकै– र्धौतं कि बहुशोऽपि शुद्धति सुरापूरपपूर्णो घटः।।
भावोथी भरेलु छे ते जीव बहारमां शरीरने स्वच्छ पाणीथी गमे तेटली वार धूए पण तेने पवित्रता थती
नथी. जे पुण्यथी आत्माने लाभ माने छे ते जीव पोताना आत्मामां विकारनुं ज लेपन करीने आत्मानी
मलिनता वधारे छे. पुण्यभावथी आत्मानी शुद्धि थती नथी. पुण्य–पापरहित अने शरीरथी भिन्न, पवित्र
आत्मस्वरूपनी ओळखाणथी सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान प्रगट करवा ते ज पवित्रता छे, ने ते ज शौचधर्म छे. स्नान
वगेरेमां जे धर्म माने छे ते पोताना आत्माने मिथ्यात्व मळथी मेलो करे छे. जेना अंतरमां मिथ्यात्व भरेलुं छे
ते जीवने कदी पवित्रता थई शकती नथी. माटे शरीर अने पुण्य–पापना भावो ते बधांने अशुचिरूप जाणीने,
तेनाथी रहित परम पवित्र चैतन्यस्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान–रमणता वडे पवित्र भाव प्रगट करवो ते ज उत्तम
दशधर्मनी साची उपासना छे.
थई शके त्यारे, सम्यक् श्रद्धा–ज्ञानपूर्वक अशुभरागने छोडीने छ काय जीवोनी रक्षानो शुभराग होय छे तेने
व्यवहार संयम कहेवाय छे. श्री आचार्यदेव संयमधर्मनुं वर्णन करे छे:–
प्राणेंद्रियपरिहारः संयममाहुर्महामुनयः ।।
प्रगटी छे तेमने कोई प्राणीने दुःख देवानो विकल्प ज थतो नथी, तेथी तेमनुं चित्त दयाथी भींजायेलुं छे एम
कहेवाय छे. रागभाव ते हिंसा छे केम के तेमां पोताना आत्माना चैतन्यप्राण हणाय छे, तेथी तेमां स्वजीवनी
दया नथी. वीतरागभाव ते ज साची दया छे, केम के तेमां स्व के पर कोई जीवोनी हिंसानो भाव नथी. एवी
ने रागनी वृत्ति ऊठे त्यारे पांच समितिमां प्रवर्तवारूप शुभभाव होय छे तेने पण संयमधर्म कहेवाय छे.
परमार्थे तो वीतरागभाव ते ज धर्म छे, राग ते धर्म नथी. ईन्द्रियोना विषयोनो के जीवहिंसानो तो विकल्प
मुनिने होय ज नहि. परंतु जोईने चालवुं ईत्यादि प्रकारना शुभ विकल्प आवे तेने पण तोडीने स्वभाव तरफ
ढळवानो प्रयत्न वर्ते छे, जेटले अंशे विकल्पनो अभाव कर्यो तेटले अंशे वीतरागी संयमधर्म छे.