Atmadharma magazine - Ank 057
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: अषाढ : २४७४ : आत्मधर्म : १५९ :
श्रीमद् राजचंद्रजी ‘अपूर्व अवसर’ मां कहे छे के: –
संयमना हेतुथी योग प्रवर्तना, स्वरूप लक्षे जिन आज्ञा आधीन जो;
ते पण क्षण क्षण घटती जाति स्थितिमां, अंते थाये निज स्वरूपमां लीन जो.
आमां तेओश्री एम भावना करे छे के ज्यां सुधी वीतरागभावे स्वरूपमां न ठरी शकाय त्यां सुधी,
स्वरूपना लक्षे अने जिन आज्ञा अनुसार संयमना हेतुए योगनुं प्रवर्तन हो. अहीं जिन आज्ञा तरफनुं लक्ष छे
ते पण शुभभाव छे. तेनी भावना नथी, पण पर तरफनो ते विकल्प पण क्षणे क्षणे घटतो जाय, अने क्रमे क्रमे
तेनो अभाव थईने संपूर्ण वीतरागभावे आत्मस्वरूपमां लीनता प्रगट थईने केवळज्ञान थाय–तेवी भावना छे.
एवा वीतरागभावनी पहेलांं ओळखाण करवी जोईए. वीतरागभाव ते ज उत्तमधर्म छे.
हवे आचार्यदेव संयमनी दुर्लभता बतावीने तेनी प्रशंसा करे छे––
(शार्दूल विक्रीडित)
मानुष्यं किल दुर्लभं भवभृतस्तत्रापि जात्यादयस्तेष्वेवाप्तवचःश्रुतिःस्थितिरतस्तस्याश्च द्रग्बोधने।
प्राप्ते ते अपि निर्मले अपि परं स्यातां न येनोज्झिते स्वर्मोक्षैकफलप्रदे स च कथं न श्लाध्यते संयमः।।
७।।
आ संसाररूपी गहन वनमां भ्रमण करतां जीवने मनुष्यपणुं घणुं दुर्लभ छे. मनुष्यपणामां पण
उत्तमजाति वगेरे मळवुं कठण छे. उत्तमजाति मळे तो पण श्री अरिहंत भगवान वगेरे आप्त पुरुषनां वचनो
सांभळवानी प्राप्ति थवी महादुर्लभ छे. अहीं आचार्यदेव देशनालब्धिनो नियम मूके छे. जे जीवने ज्ञानी पुरुष
पासेथी शुद्ध आत्मतत्त्वना उपदेशनी प्राप्ति थई नथी ते जीव धर्म पामी शकतो नथी. एथी कांई जीवनी
पराधीनता थती नथी. जे जीवने शुद्धात्मस्वभाव समजवानी लायकात होय ते जीवने ज्ञानी पासेथी शुद्धात्मानो
उपदेश मळे ज. रुचि, बहुमान अने विनयपूर्वक ज्ञानी पुरुषना उपदेशने साक्षात् सांभळ्‌या वगर, मात्र शास्त्रो
वांचीने के अज्ञानीनो उपदेश सांभळीने कदी कोई जीव धर्म पामी शके नहि. जे जीव धर्म पामे तेने कां तो
वर्तमान साक्षात् ज्ञानीनी वाणीनो योग होय, अने कदाच तेवो योग न होय तो, पूर्वे ज्ञानीनो जे समागम कर्यो
होय तेना संस्कारो वर्तमानमां याद आव्या होय. जीवने ज्ञानीनो उपदेश तो अनंतवार मळ्‌यो छे, पण
जिज्ञासापूर्वक कदी पण सत् सांभळ्‌युं नथी, तेथी परमार्थे तेणे सत्नुं श्रवण कदी कर्युं ज नथी. जिज्ञासापूर्वक
संतपुरुषनी वाणीनुं श्रवण महा दुर्लभ छे. आटलुं होय त्यां सुधी पण धर्म नथी, आटलुं होय त्यारे
व्यवहारशुद्धि थई कहेवाय एटले के तेनामां धर्मी थवा माटेनी पात्रता प्रगटी कहेवाय. जेनामां आटलुं न होय ते
जीव तो धर्म पामी शकतो ज नथी. कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्रने जेओ माने छे तेओ तो तीव्र मिथ्याद्रष्टि छे. साचा
देव–गुरु–शास्त्रनुं स्वरूप ओळखे अने कुदेवादिनी मान्यता छोडे त्यारे गृहीतमिथ्यात्व टळे छे.
जेने ज्ञानी पासेथी साचा धर्मनुं श्रवण महाभाग्यथी प्राप्त थयुं छे तेने तेमां द्दढ स्थिति थवी दुर्लभ छे.
ज्ञानमां यथार्थ निर्णय करवो ते महा दुर्लभ छे. सत् संभाळी ले पण निर्णय न करे तो यथार्थ फळ आवे नहि.
आटले सुधी आव्या पछी हवे अपूर्व आत्मधर्म केम थाय तेनी वात करे छे.
अनंतकाळे दुर्लभ मनुष्यपणुं पामीने, सत्धर्मनुं श्रवण पामीने अने ज्ञानमां तेनो निर्णय करीने
शुद्धात्मानो अनुभव करवो ते अपूर्व छे. अनंतकाळमां पूर्वे कदी नहि करेल एवुं निश्चय सम्यग्दर्शन अने
सम्यग्ज्ञान प्रगट करवुं ते महान पुरुषार्थ छे. अहींथी अपूर्व धर्मनी शरूआत छे. जेणे एक समयमात्र पण
सम्यग्दर्शनज्ञाननी प्राप्ति करी छे ते जीव अल्पकाळे अवश्य मुक्ति पामे छे. एवा पवित्र सम्यग्दर्शन अने
सम्यग्ज्ञाननी प्राप्ति परम पुरुषार्थ वडे करीने पछी पण वीतरागी संयमनी प्राप्ति सौथी दुर्लभ छे.
अहीं आचार्यदेव उत्कृष्ट वात बताववा मांगे छे. मोक्षनुं सीधुं कारण वीतरागी चारित्र छे.
सम्यग्दर्शनज्ञान होवा छतां ज्यां सुधी वीतरागी संयमदशा प्रगट न करे त्यां सुधी केवळज्ञान थतुं नथी. माटे
वीतरागी संयमधर्म परम प्रशंसनीक छे. सम्यग्दर्शन–ज्ञानने गौणपणे मोक्षमार्ग गणवामां आवे छे, साक्षात्
मोक्षमार्ग तो सम्यग्दर्शन–ज्ञानपूर्वकनी चारित्रदशामां छे. प्रवचनसारनी ७ मी गाथामां कह्युं छे के
चारित्तं खलु
धम्मो एटले के सम्यग्दर्शनपूर्वक चारित्र ते धर्म छे. चारित्रदशा वगर ते भवे तो मोक्ष होय ज नहि.
आचार्यदेवने पोताने चारित्रदशा वर्ते छे, घणो तो वीतरागभाव प्रगट्यो छे, पण उत्कृष्ट वीतरागी संयम