Atmadharma magazine - Ank 058
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २४७४ : आत्मधर्म : १७७ :
बे प्रकारना धर्म अने अधर्म
जेओ द्रव्य–गुण–पर्यायथी अरिहंतना यथार्थ स्वरूपने ज न जाणे तेवा जीवोने तो धर्म थतो नथी. पुण्य
पाप ने पोतानुं स्वरूप मानवुं ने तेनाथी लाभ मानवो ते मिथ्यात्वरूपी सौथी मोटो अधर्म छे. अरिहंत जेवुं
पोतानुं परमार्थ स्वरूप जाणीने तेनी श्रद्धा करे अर्थात् पुण्य–पाप रहित पोतानो अभेद चैतन्यमय स्वभाव छे
तेमां एकताथी लाभ मानवो ने पुण्य–पापथी लाभ न मानवो ते सम्यग्दर्शनरूपी शरूआतनो धर्म छे. पुण्य–
पाप रहित शुद्धात्मस्वरूपने जाण्या छतां पुण्य–पापमां उपयोगनी एकता करवी ते चारित्र अपेक्षाए अधर्म छे.
अने सम्यग्दर्शन प्रगट करीने शुद्ध आत्मद्रव्यमां ज पर्यायनी एकता करवी ते चारित्रधर्म छे.
शुभ उपयोगनो तिरस्कार
मुंबई जेवा मोटा शहेरोमां जो खीसुं बहार राखे तो आखुं खीसुं ज चोराई जाय छे, तेम जो
आत्मस्वरूपमांथी बहारमां उपयोगने भमावे तो शुद्धआत्मानो अनुभव चोराई जाय छे. सम्यग्दर्शन पछी
शुभ उपयोगमां जेटलो एकाग्र थाय तेटलो शुद्धतानो भंडार लूंटाय छे. तेथी, सम्यग्दर्शन प्रगट कर्या पछी पण
जीवने रागद्वेष टाळीने स्वरूपमां अत्यंत जागृत रहेवुं योग्य छे. आचार्यदेवे अहीं शुभ उपयोगने तरछोडीने
शुद्ध उपयोगनी उग्रता बतावी छे.
संपूर्ण शुद्धोपयोगनी जागृति माटे आचार्यदेवनी अंतरभावना
सतनी प्ररूपणा करवानो विकल्प ते राग छे, ने असतने उत्थापवानो विकल्प ते द्वेष छे; ए बंने शुभ
लागणी छे; एनाथी शुद्ध उपयोगमां भंग पडे छे. सत् तरफनो राग अने असत् तरफनो द्वेष–तेमां जो धर्म माने
तो तो मिथ्यात्व छे. अने सम्यग्दर्शन पछी ते राग–द्वेषनी वृत्ति ऊठे तेमां धर्मी जीव धर्म न माने, छतां ते
लागणीथी शुद्ध चारित्र लूंटाय छे; माटे ते शुभोपयोगना अंशोने पण छोडवा माटे हुं अत्यंत पुरुषार्थ वडे
जागृत रहुं छुं. जो आचार्यदेवने संपूर्ण शुद्धोपयोगनी जागृति होय तो ‘हुं जागृत रहुं’ एवी वृत्ति पण केम
होय? ‘हुं जागृत रहुं’ एवी लागणी पोते ज अजागृतिरूप प्रमाद छे. आचार्यदेवने शुभ लागणी वर्ते छे पण ते
तोडवानी भावना करे छे. अहो! जे रीते अरिहंतोए मोहनो क्षय कर्यो तेवी रीते अमे पण अत्यारे संपूर्ण शुद्ध
उपयोग जागृत करी मोहनो सर्वथा क्षय करीए अने अरिहंत जेवो शुद्ध आत्मअनुभव करीए! मारा
शुद्धस्वभावनी पूर्ण स्थिरताने आ शुभ उपयोग लूंटी जाय छे, माटे ते शुभ उपयोगरूप मोहने नाश करवा माटे
मारे स्वरूपमां अत्यंत जागृत रहेवुं योग्य छे. अहो, केवी आचार्य भगवाननी अंतर दशा छे!!
धर्मात्मा जीवने शुभोपयोग वखते सत् – असत्नो विेक केवो होय?
गृहवासमां रहेला सम्यग्द्रष्टि धर्मात्माने जो के शुभ–अशुभ राग थाय खरो, पण ते रागने तोडीने शुद्ध
उपयोगनी ज तेमने भावना होय छे. रागवाळी भूमिकामां सत्प्ररूपणा प्रत्ये बहुमान न आवे तो, अने असत्
प्ररूपणा सांभळीने ‘आ खोटुं छे’ एम अंतरमां तलाक (तिरस्कार, उत्थापवानो भाव) न आवे तो ते जीवने
सम्यग्दर्शन भूमिकानो आश्रय पण रहेतो नथी. परंतु ज्यांसुधी ते वृत्ति आवे त्यांसुधी स्वरूप स्थिरतानी
भूमिका अटके छे.
सत् प्रत्येनो राग ते पण लूंटारो छे, ते मोह क्षय करवामां कांई मददगार नथी, तेनाथी पण जीवने खेद
थाय छे. जो ते लागणी छोडीने स्वरूपमां ठरे तो ज मोहनो क्षय थाय छे. पण ज्यारे रागद्वेष सर्वथा छोडीने
स्वरूप स्थिरता न थती होय त्यारे जो सत्नुं बहुमान छोडीने बीजानुं बहुमान आवे तो ते जीवनुं सम्यकत्व ज
लूंटाई जाय छे. पोताने वीतरागता थई नथी अने रागद्वेषरूप विकल्पो तो ऊठे छे छतां जो सत–असतनो
विवेक करीने सत्ना बहुमाननो अने असत्ना उत्थापननो विकल्प न ऊठे तो ते जीव मिथ्याद्रष्टि छे. असत्–
प्ररूपणा सांभळीने ‘आ असत् छे’ एम ख्याल आवे छे छतां जे जीवने अंतरथी तेना उत्थापननी वृत्ति नथी
थती अने अन्यत्र तो रागद्वेष थाय छे ते जीवने सम्यग्दर्शननी भूमिकाना रागनो विवेक नथी, तेने सम्यग्दर्शन
भूमिका ज नथी. सम्यग्द्रष्टिने ज्यारे विकल्प होय त्यारे तेने सतना बहुमान तरफ ज वलण थाय छे. जो विकल्प
तोडीने शुद्धोपयोगथी आत्मामां लीन थई जाय तो तो पूर्णता प्रगटे छे. तेने तो कोई प्रत्ये रागद्वेषनी वृत्ति
होती ज नथी, पण सम्यग्दर्शन पछी अस्थिरदशामां रागद्वेषनी वृत्तिओ थती होय त्यारे तो सतनुं बहुमान
अने विवेक होवो ज जोईए.