: १७८ : आत्मधर्म : श्रावण : २४७४ :
रागद्वेष टाळवा जागृत रहेवुं योग्य छे.
शुभ–अशुभ वृत्तिओ ऊठे ते सम्यक्श्रद्धाने नुकशान नथी करती, पण सम्यक्चारित्रने लूंटे छे.
केवळज्ञाननी तैयारीवाळा छठ्ठा–सातमा–गुणस्थाने झूलता होय एवा मुनिराजने पण शुभाशुभ लागणीओ
संपूर्ण शुद्धचारित्र दशाने अटकावे छे–केवळज्ञानने अटकावे छे. माटे अहीं आचार्यदेव कहे छे के मारे रागद्वेषने
टाळवा माटे अत्यंत जागृत रहेवुं योग्य छे.
शुं करवाथी जीव मुक्त थाय छे?
“भावार्थ:– ८० मी गाथामां दर्शावेला उपायथी दर्शनमोहने दूर करीने अर्थात् सम्यग्दर्शन प्राप्त करीने जे
जीव शुद्धात्मानी अनुभूतिस्वरूप वीतराग चारित्रना प्रतिबंधक रागद्वेषने छोडे छे, फरी फरीने रागद्वेषभावे
परिणमतो नथी, ते ज अभेदरत्नत्रयपरिणत जीव शुद्ध–बुद्ध–एक स्वभाव आत्माने प्राप्त करे छे–मुक्त थाय छे.”
रागादिथी भिन्न शुद्ध आत्मस्वरूप जाणीने सम्यग्दर्शन प्रगट कर्या पछी राग–द्वेष टाळवानी वात छे. जेणे
रागादिथी जुदुं आत्मस्वरूप जाण्युं ज नथी ते जीव रागद्वेषने टाळे कई रीते? तेथी पहेलांं ज ८० मी गाथामां
सम्यग्दर्शन प्रगट करवानो उपाय बतावीने पछी राग–द्वेष टाळवानी वात करी छे. सम्यग्दर्शन पछी जो
स्वरूपना अनुभवमां ज जीव पोतानो उपयोग लीन करे छे, तो तेने फरी फरी रागादि थता नथी; ते जीव
अभेदरत्नत्रयरूप परिणमेल छे, तेने रागद्वेषरूप विकल्प तूटीने स्वरूपनी एकाग्रता थतां रत्नत्रयनो भेद तूटीने
रत्नत्रयनी अभेदता थई एटले तेने श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रनी स्वमां ज एकता थई. एवो ते जीव शुद्ध–बुद्ध एक
ज्ञानस्वभावी आत्माने प्राप्त करे छे अर्थात् ते जीव केवळज्ञान पामीने मुक्त थाय छे.
जीवे स्वरूपमां अत्यंत सावधान रहेवुं योग्य छे
‘तेथी जीवे सम्यग्दर्शन प्राप्त करीने पण, अने सराग चारित्र पामीने पण, रागद्वेषना निवारण माटे
अत्यंत सावधान रहेवुं योग्य छे.’
द्रव्यथी गुणथी ने पर्यायथी अरिहंत जेवुं मारुं स्वरूप छे, राग के अपूर्णता मारुं स्वरूप नथी एम
बराबर समजीने प्रथम तो सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं जोईए. अने ए सम्यग्दर्शन पूर्वक दीक्षा लई–शुद्धोपयोग
वडे त्रण प्रकारना कषायोनो नाश करीने–छठ्ठुं गुणस्थान (सराग चारित्र दशा) प्रगट करे तोपण त्यां जे रागनो
अंश छे ते आत्मानी शुद्धताने रोके छे तेथी ते रागना निवारण माटे अर्थात् प्रमादरूपी चोरथी शुद्धोपयोगनुं
रक्षण करवा माटे स्वरूपमां अत्यंत सावध रहेवुं योग्य छे.
क्षायक सम्यक्त्व अने क्षपक श्रेणी
श्रीआचार्यदेवे पूर्णतानी ज भावना भावी छे. पहेलांं ८०मी गाथामां क्षायक सम्यग्दर्शननी वात करी
अने पछी आ गाथामां क्षपक श्रेणीनी वात करी. अहो, आचार्यदेव पोतानी अंतर भावनाने बराबर लडावे छे.
८१मी गाथा पूरी थई
तीर्थंकरोए शुं कर्युं अने शुं कह्युं?
मोहनो सर्वथा नाश करीने संपूर्ण शुद्ध आत्मानी प्राप्ति माटेनो उपाय आचार्यदेवे बे गाथामां वर्णव्यो.
हवेनी गाथामां बधाय तीर्थंकरोने साक्षीपणे उतारतां आचार्यदेव कहे छे के जे उपाय अहीं वर्णव्यो ते ज उपाय
बधाय तीर्थंकरोए पोते कर्यो अने तेओए जगतना भव्य जीवोने एनो ज उपदेश कर्यो. तेओने नमस्कार हो!
हवे, आ ज एक (पूर्वोक्त गाथाओमां वर्णव्यो ते ज एक) भगवंतोए पोते अनुभवीने दर्शावेलो
निःश्रेयसनो (मोक्षनो) पारमार्थिक पंथ छे–एम मतिने व्यवस्थित करे छे:
सव्वे वि य अरहंता तेण विधाणेण खविदकम्मंसा।
किच्चा तधोवदेसं णिव्वादा तेणमो तेसिं।। ८२।।
अर्हंत सौ कर्मो तणो करी नाश ए ज विधि वडे,
उपदेश पण एम ज करी, निर्वृत थया; नमुं तेमने.
अर्थ:– बधाय अर्हंतभगवंतो ते ज विधिथी कर्मांशोनो (ज्ञानावरणीयादि कर्म भेदोनो) क्षय करीने तथा
(अन्यने पण) ए ज प्रकारे उपदेश करीने मोक्ष पाम्या छे. तेमने नमस्कार हो.
उपर्युक्त ८२ मी गाथानुं विस्तृत व्याख्यान हवे पछी आपवामां आवशे, साथे साथे ८०–८१–८२ ए त्रणे
गाथानो सार पण आपवामां आवशे. आ गाथाओमां बधाय तीर्थंकरोना उपदेशनो सार आवी जाय छे. सर्वे
तीर्थंकरोए शुं कर्युं अने उपदेशमां जगतने शुं कह्युं? ते तेमां स्पष्टपणे भगवान श्रीकुंदकुंदाचार्यदेवे बताव्युं छे.