Atmadharma magazine - Ank 058
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २४७४ : आत्मधर्म : १७९ :
त्त र् लेखांक: प
(अंक ५७ थी चालु)
[वीर सं. २४७३ ना भादरवा सुद प थी १४ सुधीना ‘दस लक्षणी पर्व’ ना दस दिवसो दरमियान श्री
पद्मनंदी–पचीसीमांथी उत्तमक्षमादि दस धर्मो उपर परम पूज्य सद्गुरुदेवश्रीए करेला व्याख्यानोनो सार.]
[भदरव सद १]
७ उत्तम तप धम
आजे उत्तम तप धर्मनो दिवस छे. भादरवा सुद पांचमने दिवसे ‘उत्तम क्षमाधर्म’ कहेवाय छे ने
अगियारसने दिवसे ‘उत्तम तपधर्म’ कहेवाय छे, पण तेथी एम न समजवुं के पांचमने दिवसे क्षमा सिवाय
बीजा धर्मो होय ज नहि, ने अगियारसने दिवसे तप धर्म ज होय. खरेखर तो आत्माना वीतरागभावमां
उत्तम क्षमादि दसे धर्मो एक साथे ज छे. एक दिवसे एक धर्म अने बीजा दिवसे बीजो धर्म–एम नथी. परंतु
एक साथे दसे धर्मोनुं व्याख्यान थई शके नहि तेथी क्रमसर एकेक धर्मनुं व्याख्यान करवानी पद्धत्ति छे. पांचम–
छठ्ठ वगेरे दिवसो ते तो काळनी अवस्था छे–जड छे, तेमां कांई उत्तम क्षमादि धर्म रहेलो नथी. सम्यग्दर्शनपूर्वक
आत्माना वीतरागभावमां उत्तम क्षमादि धर्मो रहेला छे. जेने आत्मानी साची ओळखाण न होय तेने
उत्तमक्षमादि एकेय धर्म होतां नथी. उत्तम क्षमादि धर्मो ते सम्यक्चारित्रना भेदो छे. मुख्यपणे मुनिदशामां आ
धर्मो होय छे. श्री पद्मनंदी आचार्यदेव उत्तम तपधर्मनुं वर्णन करे छे–
आर्या
कर्ममलविलयहेतोर्बोधद्रशा तप्यते तपः प्रोक्तम्।
तद्द्वेधा द्वादशधा जन्माम्बुधियानपात्रमिदम्।।
९८।।
सम्यग्दर्शन अने सम्यग्दज्ञानपूर्वकनो उत्तम तप आ संसारसमुद्रथी पार थवा माटे जहाज समान छे;
सम्यग्ज्ञानरूपी द्रष्टिथी वस्तुस्वरूपने जाणीने तेमां लीन थतां ईच्छाओ अटकी जाय छे, ते तप छे; कर्ममलनो
तेनाथी नाश थाय छे. जे भावथी शुभ–के अशुभ कर्मो बंधाय ते खरेखर तप नथी, पण जे भावथी ज्ञान–
दर्शननी शुद्धि प्रगटे ने कर्मनो क्षय थाय ते तप छे; ए तप आत्मानुं वीतरागी चारित्र छे. निश्चयथी तो
वीतरागभावरूप एक ज प्रकारनो तप छे. एवा निश्चयतपनी ओळखाणपूर्वक ज्यां पूर्ण वीतरागभाव न थाय
त्यां शुभरागरूप व्यवहार तप होय छे. ते व्यवहार तपना सामान्यपणे बे प्रकार छे. एक बाह्यतप ने बीजो
आभ्यंतर तप. तथा विशेषपणे १–अणशन, २–अवमौदर्य, ३ वृत्तिपरिसंख्यान, ४–रसपरित्याग, प–विविक्त
शय्यासन, ६–कायकलेश, ७–प्रायश्चित, ८–विनय, ९–वैयावृत्य, १०–न्युत्सर्ग, ११–स्वाध्याय अने १२–ध्यान ए
बार भेद छे. तेमां पहेलांं छ प्रकारो बाह्यतपना भेदो छे अने पछीना छ प्रकारो आभ्यंतर तपना भेदो छे. ए
ध्यानमां राखवुं के आ बधाय प्रकारना तप सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान पछी ज होय छे. सम्यग्दर्शन वगर
कायकलेश, अणशन के स्वाध्याय वगेरे करे तेने निश्चयथी के व्यवहारथी कोई रीते तप कही शकातो नथी. उत्तम
तप ते सम्यक्चारित्रनो भेद छे, सम्यक्चारित्र सम्यग्दर्शन वगर होतुं नथी; पुण्य के पापरूप कोई ईच्छा
आत्मस्वभावमां नथी. ईच्छारहित निर्मळ चैतन्यस्वरूपने ओळखीने तेना अनाकुळ आनंदना अनुभवमां
लीन थतां वीतरागीभावथी आत्मा शोभी ऊठे छे–एनुं नाम तप छे. एवो तप मुक्तिनुं कारण छे.
श्री आचार्यदेव तपनो महिमा बतावे छे–
पृथ्वी
कषायविषयोद्भटप्रचुरतस्करौधो हठा– तपःसुभटताडितो विघटते यतो दुर्जयः।
अतोहि निरूपद्रवश्चरति तेन धर्मश्रिया यतिः समुपलक्षितः पथि विमुक्तिपुर्याः सुखम्।।
९९।।
आचार्यदेव कहे छे के–आ विषयकषायरूपी उद्धत चोरोनो समूह दुर्जय छे, तोपण तपरूपी योद्धा पासे तेनुं
कांई जोर चालतुं नथी. जो मुनिवरो वीतरागभाव वडे स्वरूपमां ठरे तो विषय–कषायरूपी चोरो सहजमां नाश
थई जाय छे. सम्यग्दर्शन ज्ञान–चारित्ररूपी रत्नो साथे राखीने मोक्षमार्गमां चालनारा मुनिवरोने जो तपरूपी
रक्षक साथे न होय तो विषयकषायरूपी चोर तेनी लक्ष्मीने