सम्यग्ज्ञान थया पछी पण विषय–कषायोने जीतवा दुर्लभ छे, परंतु मुनिवरो परद्रव्योथी पराङमुख थईने ज्यारे
स्वरूपमां ठरे छे त्यारे ते विषयकषायो क्षणमात्रमां नष्ट थई जाय छे. माटे मोक्षमार्गमां गमन करी रहेला
योगीओने भगवाननी भलामण छे के हे मुनिओ! विषय–कषायरूपी चोरोथी तमारी रत्नत्रयरूपी लक्ष्मीने
मोक्ष तरफ गमन करतां स्वभावनी स्थिरताना पुरुषार्थने साथे राखवाथी, वच्चे कोई विघ्न करवा समर्थ नथी.
स्तोकं तेन प्रसभमखिलकृच्छ्रलब्धे नरत्वे यद्येतर्हि स्खलसि तदहो का क्षतिजीव ते स्यात्।।
कणीयानी गणतरी नथी तेम, सम्यक्तपना अनादरथी मिथ्यात्त्वने लीधे जे अनंतु दुःख थशे तेनी पासे तपना
अल्प दुःखनी गणतरी कांई नथी. तप ते चारित्रधर्म छे अने ते तो परम आनंदनुं कारण छे, ते दुःखनुं जरापण
कारण नथी, पण तेनी साथे जे राग रही जाय छे तेनुं अल्प दुःख छे–एम समजवुं. अहीं तो जेने चारित्रदशामां
अल्प खेद थाय छे ने निरूत्साही थई जाय छे तेने समजाववा कहे छे के हे जीव! आ तपमां तो तने बहु अल्प
छे. एनी पासे तो तारा तपमां जे प्रतिकूळता छे तेनी कांई गणतरी नथी. छतां तुं तपथी केम भयभीत थाय
छे? अहो! सादि अनंत परमानंदना कारणभूत एवा उत्तम तपने धारण करवामां तने शुं हानि छे? सम्यक्
तपनुं पालन करतां बहारमां प्रतिकूळता आवे तेनाथी खेद न पाम, सम्यक् तप तने जराय दुःखनुं कारण नथी
पण मोक्षदशाना परम सुखनुं कारण छे.
कोईक मंद पुरुषार्थी जीवने प्रतिकूळता वगेरेमां लक्ष जतां खेद थतो होय अने कठण लागतुं होय, तेथी सहेज
अणगमो थई जतो होय, तो ते अणगमाने लीधे तेने जराक दुःख लागे छे. ए अपेक्षाए उपचारथी तपमां
नथी. अल्प कलेशनी गणतरी मुख्य करीने रत्नत्रय सहित उत्तम तपधर्ममां उत्साह घटाडवो ठीक नथी.
मारुं स्वरूप नथी, आ वृत्ति थई ते चारित्रनो भाग नथी पण दोष छे. विशेष सहनशीलता नथी ने खेद थाय
छे तेनो आरोप करीने तपमां अल्प दुःख कह्युं छे. अने चारित्र स्थिर रहेवा माटे कह्युं के अत्यारे जराक दुःखथी
डरीने जो चारित्रनो ज अनादर करी नाखीश तो मिथ्यात्व थशे अने तेना फळमां जे अनंत दुःख मळशे, तेने तुं
केम सहन करी शकीश? अत्यारे अल्पदुःख सहन करीश तो सम्यक् तपना फळमां अनंत मोक्षसुखने पामीश.
लीन थई जतां ईच्छा तूटी जाय ते उत्तम तप धर्म छे. आचार्यदेव एवा उत्कृष्ट तप माटेनी प्रेरणा करे छे.
स त्यागो वपुरादि निर्ममतया नो किंचनास्ते यते–
ज्ञकिंचन्यमिदं च संसृतिहरो धर्मः सतां सम्मतः।।