Atmadharma magazine - Ank 058
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २४७४ : आत्मधर्म : १८१ :
सम्यक्प्रकारे श्रुतनुं व्याख्यान करवुं अने मुनि वगेरेने पुस्तक, स्थान तथा पींछी–कमंडलादि संयमना
साधन आपवा ते धर्मात्माओनो उत्तम त्यागधर्म छे. ‘हुं शुद्ध आत्मा छुं, मारुं कांई पण नथी’ एवा
सम्यग्ज्ञानपूर्वक अत्यंत निकट शरीरमां पण ममतानो त्याग करीने शुद्धस्वरूपमां रमणता प्रगट करे त्यां
मुनिओने सर्वे पर भावोनो त्याग थई जाय छे. आत्माना भानपूर्वक शरीरादि सर्वे पदार्थो उपरनी ममतानो
त्याग कर्यो तेमां उत्तम आकिंचन्यधर्म पण आवी जाय छे. एक ज श्लोकमां आचार्यदेवे बे धर्मोनुं वर्णन कर्युं छे.
आत्माना भानपूर्वक मुनिदशा वर्तती होय पण हजी पूर्ण स्थिरता न थती होय अने विकल्प ऊठे त्यारे
मुनिओ श्रुतनी–शास्त्रनी भली रीते व्याख्या करे तेने अहीं त्यागधर्म कह्यो छे. त्यां खरेखर शास्त्र वांचवानी
क्रियाने के रागने धर्म कह्यो नथी पण ते वखते अंतरमां वीतराग स्वभावनुं घोलन थतां जे रागनो त्याग थाय
छे, ते ज उत्तम त्याग छे. श्रुतनी व्याख्या करती वखते वाणी के विकल्प होय ते कांई धर्म नथी. श्रुतनुं रहस्य तो
आत्मस्वभाव छे, वीतरागभाव ए ज सर्वश्रुतनुं प्रयोजन छे. विकल्प होवा छतां ते वखते वीतरागी
ज्ञानस्वभावना आश्रये सम्यक्श्रुतनी वृद्धि थाय छे, अने राग टळतो जाय छे. –आ ज धर्म छे. जेवुं वस्तुस्वरूप
छे तेवुं व्याख्यान करतां– एटले के आत्माना स्वभावामां विपरीतता न थाय एवी रीते सम्यग्ज्ञाननुं घोलन
करतां मुनिओने उत्तम त्यागधर्म होय छे. गृहस्थोने पण आत्मस्वभावना लक्षे श्रुतनुं घोलन–स्वाध्याय करतां
श्रुतज्ञाननी निर्मळता वधे छे. ने राग तूटतो जाय छे, तेथी तेटले अंशे तेने पण त्यागधर्म छे. मिथ्याद्रष्टिने तो
एकलो अधर्म ज होय छे. सम्यग्दर्शन थया पछी ज साधकजीवने निश्चयधर्म अने व्यवहारधर्म एवा बे प्रकार
छे. जेटलो वीतरागभाव थयो छे तेटलो खरेखर धर्म छे, ने शुभराग रह्यो ते खरेखर धर्म तो नथी, पण धर्मी
जीवने ते रागनो निषेध वर्ते छे तेथी उपचारथी तेने धर्म कहेवाय छे.
श्रुतनी व्याख्याना शब्दो आत्माना नथी, आत्मा ते शब्दोनो कर्ता नथी; अने शुभराग थाय छे ते पण
आत्मानो स्वभाव नथी. आवा भानपूर्वक शुद्धस्वभावना अनुभवमां लीन न रही शके त्यारे धर्मी जीवोने
श्रुतनुं व्याख्यान वगेरे शुभराग होय छे, ते वखते अशुभराग नथी थतो ए अपेक्षाए व्यवहारे त्याग छे, अने
ज्ञाननुं ज्ञानमां जेटलुं घोलन थाय छे तेटलो परमार्थत्याग छे. परमार्थे तो श्रुतज्ञान ते आत्मा ज छे, तेथी
आत्मस्वभावनुं घोलन रहे ते ज निश्चयथी श्रुतनी व्याख्या छे अने ए ज उत्तम त्याग धर्म छे. त्यागना नव
प्रकार के ओगणपचास प्रकार तो व्यवहारथी छे. शुभराग वखते केवा केवा प्रकारना निमित्तो होय छे अने राग
तोडीने ज्ञायकस्वभावमां लीनता थतां केवाकेवा प्रकारना निमित्तो उपरथी लक्ष छूटी जाय छे ते बताववा माटे
बहारना भेदोथी वर्णन छे. जे जीवो मूळभूत वस्तुस्वरूप न समजे तेओ भंग–भेदना कथनमां अटकी पडे छे.
प्रश्न:– आत्मा वचनो तो बोली शकतो नथी, तो अहीं मुनिओ श्रुतनी व्याख्या करे छे–एवी वात केम करी?
उत्तर:– उपदेशमां कथनो तो निमित्त अपेक्षाए होय, परंतु दरेक वस्तु स्वतंत्र छे एवुं भेदज्ञान राखीने
तेना अर्थो समजवा जोईए. आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, ज्ञानस्वभाव रागरहित छे, जे राग छे ते ज्ञान नथी. ज्ञान
अने राग जुदा छे, रागने कारणे वचनो बोलवानी क्रिया थती नथी. बाह्य वचनो तो निमित्तमात्र छे, अने ते
वचनो तरफनो राग पण खरेखर त्यागधर्म नथी, परंतु ते वखते स्वभावना आश्रये जे ज्ञानसामर्थ्य वधतुं
जाय छे, ते ज त्याग छे. रागनो त्याग त्यां थई जाय छे. यथार्थ भेदविज्ञान वगर धर्मनुं आराधन थई शके
नहि अने साची क्षमापना थाय नहि. मिथ्यात्व ए ज सौथी मोटो क्रोध छे, सम्यग्दर्शनवडे ते मिथ्यात्व टाळ्‌या
वगर क्षमाधर्म प्रगटे नहि.
पोते अनादिथी अज्ञानभावने लीधे पोताना आत्मस्वभाव उपर क्रोध कर्यो, ते क्रोध टळीने क्षमा शी
रीते थाय? तेनी वात कहेवाय छे. खम्मा आत्म स्वभावने? एटले के पुण्य–पापरहित स्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान
करीने वीतरागभाव प्रकट करुं अने रागना एक अंशथी पण स्वभावने खंडित न करुं. आनुं नाम साची क्षमा
छे. राग थाय तेटलो अपराध छे. अने रागने आत्माना स्वभावनो माने ते तो आत्मस्वभाव उपर अनंतो
क्रोध करनार छे.
धर्म–पुस्तको वगेरेनुं दान करवुं तेने गृहस्थनो त्यागधर्म कह्यो छे. सम्यग्द्रष्टि गृहस्थ धर्मात्मा जाणे छे के
बहारमां पुस्तक वगेरे देवा लेवानी क्रिया तो आत्मानी नथी अने अंतरमां ‘वीतराग शासन टके, साधक
धर्मात्माओ टके ने सम्यक्श्रुतज्ञाननी वृद्धि थाय’ एवी भावनारूप विकल्प ते पण राग छे. आत्मा तेनो कर्ता
नथी. अंतरमां परिपूर्ण शुद्ध चैतन्य स्वभावना