ज्ञानमां ठर्युं ते ज त्याग छे, आत्माए रागने छोड्यो ए पण उपचारथी छे. पर्यायमां राग हतो अने छोड्यो
ए कथन व्यवहारनयनुं छे–पर्याय अपेक्षानुं छे. स्वभावथी तो आत्माए राग कर्यो पण नथी ने छोड्यो पण
नथी. राग आत्माना स्वभावमां हतो नहि, तो पछी तेनो त्याग कई रीते कहेवो? राग तो पर्यायद्रष्टि मां हतो,
जयां पर्यायद्रष्टि ज टळी गई ने स्वभावद्रष्टि थई त्यां राग छे ज नहि. तेथी रागनो त्याग करनार आत्माने
कहेवो ते उपचार कथन छे. वळी जे समये राग थाय छे ते समये तो तेनो त्याग होतो नथी, पण आत्मा ज्यारे
स्वभावमां एकाग्र रहे छे त्यारे रागनी उत्पत्ति ज थती नथी, एथी ‘रागनो त्याग कर्यो’ एम कहेवाय छे.
स्वभावनी लीनतामां रहेतां रागनी उत्पत्ति ज न थई तेनुं नाम ज रागनो त्याग छे. रागरहित ज त्रिकाळ
स्वभाव छे–एवी श्रद्धा थतां सर्वे रागनो श्रद्धामांथी तो त्याग थई ज गयो. रागरहित त्रिकाळी स्वभाव छे
एना अनुभव वगर पर्यायमांथी रागनो त्याग थई शके नहि. रागने पोतानुं स्वरूप मानतो होय ते जीव
रागनो त्याग करी शके ज नहि.
ज्ञानस्वभाव छे. परद्रव्यने पर जाण्युं, पछी परभावनुं ग्रहण नहि ते ज त्याग छे. ए रीते स्थिर थयेलुं ज्ञान ते
ज प्रत्याख्यान छे. आ निश्चयथी त्यागनुं स्वरूप छे. एकला ज्ञानस्वभावमां ठरतां राग थतो ज नथी तेथी ते
ज्ञान पोते ज रागना त्यागस्वरूप छे. आत्माए रागने छोड्यो एम कहेवुं ते पण व्यवहार छे.
आत्मस्वभावमां स्थिरता न रहे त्यारे केवा प्रकारनो शुभराग होय ते जणाव्युं अने ते राग वखते जे
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र वर्ते छे तेनो उपचार शुभरागने त्यागधर्म कह्यो छे. खरेखर तो अंतरमां ज्ञाननुं
घोलन थतां वीतरागभावनी वृद्धि थाय ते ज त्याग छे. पुस्तक देवा–लेवानी के बोलवानी क्रियानो खरेखर
आत्मा कर्ता छे एम जे माने ते मिथ्याद्रष्टि छे, तेने तो परनो अहंकार छे, तेथी तेने साचो त्याग होतो नथी.
ज्ञानीओने स्वभावना बहुमानना जोरे ज्ञाननी एकाग्रतामां वृद्धि थई तेथी, ते वखते बहारमां वर्तती शास्त्रादि
लेवा–देवानी क्रियामां उपचार करीने तेने त्यागधर्म कह्यो छे. बहारनी क्रिया वखते तेम ज राग वखते ज्ञानीनो
अंतरंग अभिप्राय शुं छे ते समजवुं जोईए. जो रागथी भिन्न आत्माना ज्ञानस्वभावनो विश्वास आवे तो
ज्ञानीनुं अंतर–हृदय समजाय. जे पोते रागादि साथे ज्ञानस्वभावने एकमेक माने छे तेने ज्ञानीनुं हृदय यथार्थ
समजाय नहि. ज्ञानीनुं ज्ञान रागथी अने जडनी क्रियाथी जुदुं छे. लोकोनी भाषामां तो बहारथी बोलाय के आ
लीधुं ने आ दीधुं, पण खरेखर ज्ञानी कोई बहारनी क्रियामां नथी, रागमां पण नथी, ज्ञानी तो चैतन्य
स्वभावमां ज छे, आवुं भेदज्ञान पोताना आत्मामां करवुं ते ज समाधान छे. पोते भेदज्ञान करे तो ज्ञानी शुं
करे छे ते जाणे. कोई एम कहे के–आ तो बीजाने निरूत्तर करवानुं साधन छे. –तो कहे छे के–भाई, आ निरूत्तर
करवा माटे नथी पण वस्तुस्थिति ज एवी छे. ऊलटुं तने एम कह्युं के तुं पहेलांं तारा ज्ञानने रागथी जुदुं
ओळख, एटले के तुं पोते ज्ञानी था, तो तने खबर पडे के ज्ञानी शुं करे छे? ज्ञानी ज्ञानभाव ज करे छे, राग
थाय छे तेने स्वभाव तरीके स्वीकारता नथी तेथी तेओ खरेखर रागने करता नथी पण छोडे छे. आवुं
वस्तुस्वरूप जाणवुं ते ज अनंतकाळना मिथ्यात्वना त्यागनो उपाय छे. बाह्यद्रष्टि जीवो बहारना त्यागने देखे
छे, पण आत्मस्वभावनी साची ओळखाण करतां, अनंतकाळे नहि थयेल एवो मिथ्यात्वनो अपूर्व त्याग
धर्मात्माने होय छे, तेने तेओ देखता नथी. ज्ञानी कदी परनी क्रियाना कर्ता थता ज नथी, ज्ञानी तो पोताना
ज्ञाननुं ज कार्य करे छे, ज्ञानी रागने धर्म मानता नथी, ज्ञानमां ठरतां रागनो अभाव थाय छे तेनुं नाम
खरेखर उत्तम त्यागधर्म छे. अहो, जैनशासनमां ज्ञान अने रागनी जुदाई चोकखी ज कही छे, पण अज्ञानी
तेमने जुदा न देखे तेथी शुं थाय?