Atmadharma magazine - Ank 058
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: १७४ : आत्मधर्म : श्रावण : २४७४ :
सम्यग्दर्शन पहेलानी भूमिकामां जीव शुं करे?
८० मी गाथामां कह्या प्रमाणे अरिहंत भगवानने द्रव्य–गुण–पर्यायथी जेणे जाण्या तेने कुदेव–कुगुरु–
कुधर्मनी मान्यता तो पहेले ज धडाके छूटी गई. अरिहंतने जाणीने पण त्यां अटकतो नथी पण स्वाश्रय तरफ
वळे छे. अरिहंत तरफनुं लक्ष छोडी स्वमां एम विचार कर्यो के मारे सम्यग्दर्शनादि माटे मारा द्रव्यगुणनो ज
आश्रय छे, कोई परनो आश्रय नथी. एम वारंवार स्वाश्रयनी भावना अने अभ्यास करे छे, अने
स्वाश्रयभावमां ढळतां शुद्ध आत्मानो साक्षात् अनुभव थयो, क्षायक जेवुं सम्यग्दर्शन थयुं, पराश्रयभावनो तथा
मिथ्यात्वनो नाश थयो.
आत्मा मिथ्यात्वादिनो उत्पादक नथी.
अरिहंतनी जेम मारो आत्मा त्रिकाळ द्रव्य–गुणथी पूरा स्वभावे छे, जेम अरिहंतने मिथ्यात्व–रागादिनी
उत्पत्ति नथी तेम मारो आत्मस्वभाव पण मिथ्यात्व–रागादिनो उत्पादक नथी, पण शुद्ध ज्ञाननो ज उत्पादक छे.
–एम भेदज्ञान वडे पोताना स्वभावमां पर्यायने वाळ्‌यो त्यां आत्मा मिथ्यात्व–रागादिनुं कारण न रह्यो. शुद्ध
स्वभावनी प्रतीति करीने ते स्वभावना आश्रये आत्मा रह्यो तेथी मिथ्यात्व अने अज्ञान टळी गया; केमके
स्वभावना आश्रये मिथ्यात्वादि विकारनी उत्पत्ति थाय नहि. अरिहंत जेवुं पोतानुं पवित्र आत्मस्वरूप भासता
मिथ्यात्व अने रागादि मारा स्वरूपमां छे एवी ऊंधी प्रतीति टळी अने निर्मळ सम्यक् प्रतीति थई. एटले के
जीवने मोहनो नाश करवानो उपाय प्राप्त थयो.
अनुभवनो विधि
अनंता तीर्थंकरो–संत मुनिवरोए प्रथम आ ज उपाय कर्यो छे. स्वभावनो आदर करीने अनुभवनो
विधि एक ज छे–बीजो नथी. अहीं गाथा ८०मी पूरी थई.
गाथा ८१मी संपूर्ण मोहक्षयनी भावना
ए रीते दर्शनमोहना नाश कर्या पछी पण ज्यां सुधी रागद्वेष रहे छे त्यां सुधी संपूर्ण शुद्धोपयोग
प्रगटतो नथी. तेथी हवेनी गाथामां श्रीआचार्यदेव संपूर्ण शुद्धआत्मानी (केवळज्ञाननी) प्राप्ति माटे राग–द्वेषना
पण क्षयनी भावना करे छे. मिथ्यात्वमोहनो क्षय तो कर्यो ज छे.
सम्यग्दर्शन पछी चारित्रमोहना क्षय माटे पुरुषार्थनी जागृति
जेने हाथमां राखीने मनमां जे चिंतवो ते मळे एवो चिंतामणि हाथमां आवे तो तेनी केवी चीवटथी
संभाळ राखे? ते तो चिंतामणि जड छे ने तेनाथी तो जड वस्तुओ मळे छे. अहीं आचार्यदेव कहे छे के में
चैतन्यचिंतामणि प्राप्त कर्यो छे. में परिपूर्ण चैतन्यचमत्कार चिंतामणि प्राप्त कर्यो छे, चैतन्यस्वभावने ज्ञानमां
राखीने जेवी भावना करुं एवी वीतरागता प्रगटे. ए चैतन्यचिंतामणि स्वभावमां शुद्धोपयोगवडे एकाग्र थईने
रागद्वेषनो क्षय करीने केवळज्ञान पामुं. जो शुभोपयोगमां अटकुं तो चैतन्यचिंतामणि चोराई जाय छे–केवळज्ञान
अटके छे. पोताना चैतन्यस्वरूपने भूलीने अनादिथी परमां ने विकारमां पोतानुं अस्तित्व मान्युं हतुं, हवे
विकाररहित शुद्धचैतन्यस्वभावे पोतानुं अस्तित्व जाण्युं अने स्वभाव तरफ वळेली अवस्थामां चैतन्य
चिंतामणिनी प्राप्ति थई. अहो! हवे शुद्धोपयोग वडे हुं जेटलो चैतन्यमां एकाग्र थाउं तेटला राग–द्वेष टळीने
शुद्ध आत्मानी प्राप्ति थाय. आचार्यदेवने पोताने पवित्र मुनिदशा वर्ते छे, घणो तो शुद्धोपयोग प्रगट्यो छे अने
घणी वीतरागता थई छे, पण हजी जे अल्प शुभराग रह्यो छे तेने य सर्वथा टाळीने संपुर्ण शुद्धोपयोग प्रगट
करीने संपूर्ण शुद्धआत्मानी प्राप्तिनी भावना करे छे. ‘ए रीते में चिंतामणि प्राप्त कर्यो होवा छतां प्रमाद चोर छे’
एम विचारी जागृत रहे छे. ८० मी गाथामां जे रीते कह्यो ते रीते मोहक्षयनो उपाय जाणीने अने ते रीते
मोहनो क्षय करीने में चैतन्य चिंतामणि प्राप्त कर्यो छे. चैतन्य स्वभावने प्राप्त करीने पण जो तेमां हुं संपूर्ण
एकाग्र थाउं तो ज राग–द्वेषनो क्षय थाय ने शुद्ध आत्मानी (केवळज्ञाननी) प्राप्ति थाय. द्रव्य–गुण–पर्यायथी
मारो आत्मस्वभाव जाणीने, जेटलो द्रव्यगुणमां मारा पर्यायने एकाग्र करुं तेटलो शुद्धात्म–अनुभव प्रगटे,
तेटलो शुद्धोपयोग थाय ने रागद्वेष टळे. शुद्ध चैतन्यस्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान प्रगट करीने हवे मारा स्वभावमां ज
एकाग्रता प्रगट करुं ते ज मुक्तिनुं कारण छे. चारित्रदशा प्रगटी होवा छतां हजी संपूर्ण शुद्धोपयोगथी स्वरूपमां
एकाग्रता थई नथी तेथी आचार्यदेव विशेष जागृतिनी भावना करे छे. आचार्यदेव संपूर्ण मोहनो क्षय करीने
केवळज्ञान प्रगट करवा माटे कटिबद्ध थया छे.