Atmadharma magazine - Ank 058
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २४७४ : आत्मधर्म : १७५ :
सम्यग्दर्शन पछी जीव राग – द्वेष छोडे तो शुद्धात्माने पामे छे.
मारा उपयोगने वस्तु स्वभावमां वाळवामां ज लाभ छे–एम वस्तु स्वभावने नक्की करीने में
चिंतामणि प्राप्त कर्यो छे–अप्रतिहत सम्यग्दर्शन प्रगट कर्युं छे–छतां हजी मारी अवस्था जो शुभउपयोगमां अटकी
रहे तो मने नुकशान छे–प्रमादरूपी चोर मारी शुद्धता चोरी जवानो संभव छे. जेटलो परमां वलणभाव थाय छे
तेटलो प्रमाद छे, ने ते प्रमादरूपी चोर मारी चैतन्यऋद्धिने लूंटी जाय छे, माटे हुं जागृत रहुं छुं–एम आचार्यदेव
हवेनी गाथामां कहे छे.
जीवो ववगदमोहो उवलद्धो तच्चमप्पणो सम्मं।
जहदि जदि रागदोसे सो अप्पाणं लहदि सुद्धं।।
८१।।
जीव मोहने करी दूर, आत्मस्वरूप सम्यक् पामीने जो रागद्वेष परिहरे तो पामतो शुद्धात्मने. ८१.
अर्थ:– जेणे मोहने दूर कर्यो छे अने आत्माना सम्यक् तत्त्वने (साचा स्वरूपने) प्राप्त कर्युं छे एवो जीव
जो रागद्वेषने छोडे छे, तो ते शुद्ध आत्माने पामे छे.
दर्शनमोह टाळीने सम्यग्दर्शन प्रगट कर्या पछी चारित्रमोह टाळवानी आमां वात छे. ८० मी गाथामां
कहेलो उपाय समजीने जेणे मिथ्यात्वमोहने दूर कर्यो छे अने आत्माना साचा स्वरूपने प्राप्त कर्युं छे एवो जीव
जो रागद्वेषने छोडे छे तो शुद्धात्मानी प्राप्ति करे छे. आचार्यदेव अस्ति–नास्तिथी कथन करे छे. मोहनो नाश कर्यो
ते नास्ति अने साचुं आत्मस्वरूप पाम्यो ते अस्ति छे. त्यारपछी रागद्वेष छोडवा ते नास्ति अने शुद्धात्मानी
प्राप्ति ते अस्ति. जे शुद्धात्मा जाण्यो ते तरफ जेटलो ढळुं तेटलो लाभ छे, जेटलो पराश्रयभाव थाय तेटलो
शुद्धोपयोग लूंटाय छे. सम्यक् आत्मतत्त्वनी प्राप्ति अने मिथ्यात्वनो नाश कर्या पछी शुद्धात्मस्वरूपमां
एकाग्रतारूप जे शुद्धभाव छे ते ज शुद्धात्मानुं तत्त्व छे, जेटला पुण्य–पापभावो थाय छे ते शुद्धात्मानुं तत्त्व नथी,
ते तो आत्माना शुद्धोपयोगने लूंटनारा छे. पुण्यपाप रहित आत्मतत्त्वने पामीने जो शुभ अने अशुभ
उपयोगने छोडी दे छे तो जीव शुद्ध आत्माने पामे छे. दर्शनमोहनो नाश करीने आखो आत्मा प्राप्त कर्यो छे पण
हजी पर्यायमां पूर्ण शुद्धता प्रगटी नथी. पूर्ण शुद्धदशा तो राग–द्वेषना नाशथी थाय छे. अहीं पूर्ण शुद्धदशा प्रगटे
तेने शुद्धात्म तत्त्वनो अनुभव कह्यो छे. अधूरी दशामां कंईक अंशे रागादि अशुद्ध भावोनो पण अनुभव होय
छे, ए अपेक्षाए त्यां शुद्धआत्म तत्त्वनो अनुभव नथी एम कह्युं छे. सम्यग्दर्शन थतां ज आखो
शुद्धात्मस्वभाव तो प्राप्त थई गयो. परंतु ज्यां सुधी जीव राग–द्वेषने न छोडे त्यां सुधी द्रव्य–गुण–पर्यायथी शुद्ध
आत्मानो अनुभव थतो नथी. मूळमां तो आचार्यदेवे अस्तिथी ज वात करी छे के जीव जो राग–द्वेषने छोडे छे
तो ते शुद्धात्माने पामे छे. एटले के जेमणे पोताना सम्यक् आत्मस्वरूपने प्राप्त कर्युं छे एवा जीवो राग–द्वेष छोडे
ज छे ने शुद्धात्माने पामे ज छे.
टीका
पामीने पण, जो जीव रागद्वेषने निर्मूळ करे छे, तो शुद्ध आत्माने अनुभवे छे.”
पहेलां सम्यग्दर्शन पछी सम्यक्चारित्र
पहेलांं ८० मी गाथामां दर्शनमोहना नाशनो उपाय बतावीने हवे चारित्रमोहना नाशनो उपाय बतावे
छे. पहेलांं मिथ्यात्वनो नाश कर्या पछी ज चारित्रमोहनो नाश थाय छे, माटे पहेलांं दर्शनमोहना क्षयनो उपाय
बताव्या पछी चारित्रमोहना नाशनो उपाय बतावे छे. मिथ्यात्वनो नाश करीने सम्यक् आत्मतत्त्वनी श्रद्धा
प्रगट करीने पण, जो पर्यायमांथी शुद्धोपयोगवडे रागद्वेषने छोडे छे तो ज जीव मुक्ति पामे छे. रागद्वेषमां एकता
मानवाथी धर्म थतो नथी अने स्वभावमां एकता करवाथी धर्म थाय छे–एम सम्यक्श्रद्धा करीने पण जीव
पोताना उपयोगने स्वद्रव्यमां ज लीन करे छे तो ज ते शुद्ध आत्माना अनुभवने पामे छे.
ज्यारे शुद्धोपयोग करे त्यारे शुद्धात्मानो अनुभव थाय छे.
जो के शुद्धात्मानो अनुभव तो चोथा गुणस्थानके सम्यग्दर्शन थतां ज थाय छे, परंतु त्यां हजी संपूर्ण
रागद्वेष टळी गया नथी तेथी, रागने पोतानुं स्वरूप नहि मानतो होवा छतां जेटला रागद्वेषादि अशुद्धभावो
थाय छे तेटलो अशुद्धतानो अनुभव पण होय छे; माटे