मानवानो अवकाश नथी. अने विकल्पो ऊठे तो स्वाश्रय सिवाय बीजुं कांई प्ररूपवानो अवकाश नथी. अहो,
मारा आत्माए अंतरथी स्वाश्रय कबूलीने ते भाव प्रगट कर्यो छे. स्वभावनो आश्रय कर्यो ते कदी पण फरवानो
नथी अने पराश्रयनी श्रद्धा कदी पण थवानी नथी. जे स्वभावना आश्रयनो निश्चय कर्यो ते ज निश्चयना
घोलनथी स्वरूपस्थिरतानी पूर्णता प्रगट करीने, मोहनो सर्वथा क्षय करीने अमे केवळज्ञान लेवाना छीए.’ –
आम आचार्यदेव पोतानी निःशंकतानी जाहेरात करे छे. पोताने स्वभावनो बराबर निश्चय थयो छे अने
पोतानी मति व्यवस्थित थई छे–एम छद्मस्थ जीवने निःशंक खबर पडे छे. जे क्षणे पराश्रय छोडीने स्वाश्रय
कर्यो ते ज क्षणे स्वाश्रयनी शांतिनुं पोताने वेदन थाय छे. आचार्यदेव कहे छे के अरिहंत भगवान जेवा अमारा
जाण्युं छे. हवे अमारी मतिने फेरववा कोई समर्थ नथी. जेणे स्वभावनो निर्णय करीने ज्ञानने स्वभावमां स्थिर
कर्युं छे तेणे स्वाश्रित मोक्षमार्गने अंगीकार कर्यो छे; स्वभावना आश्रये प्रगटेलो भाव सदाय स्वभाव साथे
अभेदपणे टकी रहे छे. तेथी आचार्यदेव कहे छे के अमे अमारा स्वभावनो आश्रय कर्यो छे तेथी मोहनो क्षय
करीने, अप्रतिहतभावे केवळज्ञान प्रगट करवाना छीए. जेम अरिहंतो मोक्ष पाम्या तेम अमे पण ए ज
प्रकारनो पुरुषार्थ करीने मोक्ष पामवाना छीए. भगवंतोने नमस्कार हो!
स्वभावना आश्रये मोहनो क्षय करीने केवळज्ञान पाम्या, तेम हुं पण तमारो ज वारसो लेवा माटे स्वाश्रयथी
तमारी पाछळ चाल्यो आवुं छुं. अहो जेणे आवो पूर्ण स्वतंत्र स्वाश्रित मार्ग बतावीने अनंत उपकार कर्यो ते
भगवंतोने हुं नमस्कार करुं छुं–एटले के हुं पण ए स्वाश्रयने ज अंगीकार करुं छुं. भगवानना चरणकमळमां
अमारा नमस्कार हो, भगवाने बतावेला स्वाश्रय मार्गने अमारा नमस्कार हो. आचार्यदेव पोते पोताना मोक्ष
माटेनो उत्साह अने खुशाली जाहेर करे छे के हे प्रभो! जे रीते आपे मुक्ति करी ते ज रीते अमे पण मोक्षना ज
कहीए, भगवंतोने नमस्कार हो. जे जीवोने स्वाश्रयनी रुचि होय अने पराश्रयनी रुचि टळी गई होय ते ज
जीव भगवंतोने नमस्कार करे छे. खरेखर भगवाने जेवो स्वाश्रय मार्ग उपदेश्यो तेवो समजीने तेवो स्वाश्रय
पोतामां प्रगट करवो ते ज भगवानने नमस्कार छे.
सम्यग्दर्शन छे. जे राग–द्वेष थाय छे ते द्रव्यमां नथी–गुणमां नथी अने पर्यायनुं स्वरूप पण ते नथी. जो
पर्यायने शुद्धस्वभावमां अभेद करे तो पर्यायमां विकार थतो नथी. जेम अरिहंतना स्वरूपमां रागद्वेष नथी तेम
आ आत्माने पण स्वरूपमां रागद्वेष नथी. ए रीते स्वभावद्रष्टि करीने, विकार रहित द्रव्य–गुण–पर्यायथी अभेद
शुद्धआत्माने जाणवाथी मोहनो क्षय थाय छे ने पवित्र सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे. आज पहेलो धर्म छे.
भेदरहित आत्मस्वरूपनी प्रतीति ते धर्म छे. द्रव्य–गुण तो त्रिकाळ निर्मळ छे अने पर्यायमां विकार छे–एम भेद
पाडीने तेना विकल्पमां रोकाय तो सम्यग्दर्शन थाय नहि. पर्यायमां दोष छे ते आत्मानुं खरूं स्वरूप नथी केम के
अरिहंतोना आत्मामां ते नथी. माटे ते क्षणिक विकाररहित