उपादानथी ज दरेक वस्तु पोताना पर्यायरूपे परिणमे छे. पहेलांं–पछी के आडी अवळी कोई अवस्था थाय नहि.
आवो निर्णय करतां बधाय पदार्थोनुं कर्तापणुं टळी गयुं. अने पोतानी निर्मळदशा माटे कोई पर सामे के पुण्य–
पाप सामे जोवानुं रह्युं नहि. पर उपरनी द्रष्टि अने पर्याय उपरनी द्रष्टि छोडीने, अखंड एकरूप ज्ञायक
स्वभावनी द्रष्टि कर्या वगर आवा ज्ञातापणानो निर्णय थई शके नहि. आवो बधायना ज्ञातापणानो निर्णय ते
संपूर्ण ज्ञान प्रगट करवानो उपाय छे.
विकारनो कर्ता थतो नथी, ज्ञातापणे स्वाश्रयमां टकीने विकारनो क्षय करे छे अने पूर्णदशाने पामे छे. आ ज
निर्वाणनो उपाय जिनवरोए कह्यो छे. वस्तुमां जेम थाय छे–थवानुं छे तेम केवळज्ञानमां जणाय छे अने जेम
केवळज्ञानमां जणाय छे तेम ज वस्तुमां थाय छे. जेम केवळज्ञानी बधायना वीतरागपणे ज्ञाता ज छे तेम मारो
स्वभाव पण ज्ञाता ज छे, विकार थाय ते मारो स्वभाव नथी. आम निर्णय करतां परनुं हुं कांई करुं एवुं मिथ्या
अभिमान टळी गयुं अने विकार पोतानुं स्वरूप ए मिथ्यामान्यता पण टळी गई एटले परथी अने विकारथी
जुदा शुद्ध ज्ञानस्वभावमां वळ्यो. आ ज मिथ्यात्वने टाळवानो उपाय छे.
शुद्धात्मस्वरूपनो निर्णय तो थयो छे, पण ज्यां सुधी स्वरूपनी सावधानी वडे सर्वथा रागद्वेष न टाळे त्यां सुधी
केवळज्ञान थतुं नथी. सम्यग्दर्शनमां जे शुद्धात्मस्वरूपनी प्राप्ति थई ते स्वरूपमां सावधानीथी (अर्थात्
शुद्धोपयोगथी) क्रमे क्रमे स्थिरता करीने पोतानी उग्र शक्तिथी केवळज्ञान पामे छे. सम्यग्दर्शन प्राप्त थया पछीनी
क्रिया केवी होय ते जणावतां आचार्यदेव कहे छे के सम्यग्दर्शनवडे शुद्धात्मस्वरूपने पामीने पछी पण स्वाश्रयना
पुरुषार्थवडे ज्ञाननी अंतर–स्थिरतारूप क्रियाद्वारा जो जीव राग–द्वेषनो नाश करे छे तो ते जीव संपूर्ण शुद्धदशाने
पामीने मुक्त थाय छे. जे जीवने राग–द्वेष रहित शुद्धात्मानी श्रद्धा थई नथी ते जीव तो राग–द्वेषनो नाश करी
शके नहि. जे जीवने पहेलांं तो राग–द्वेष रहित सम्यक् आत्मतत्त्वनी श्रद्धा थई छे ते जीव ते आत्मतत्त्वना
आश्रये जो रागद्वेष परिहरे छे तो केवळज्ञान पामे छे. क्षायक–सम्यग्दर्शन–पूर्वकनी क्षपकश्रेणीनी वात आचार्यदेव
जणावे छे. सम्यग्दर्शन पछी, ‘जो रागद्वेष परिहरे तो शुद्धात्माने पामे’ एटले के उपयोगने शुद्धात्मामां टकावे तो
राग–द्वेषनो परिहार थईने केवळज्ञान प्रगटे. अने जो संपूर्ण रागद्वेष न छोडी शके तो, सम्यग्दर्शनने
अच्छिन्नधाराए टकावी राखीने एक भव स्वर्गमां जई पछी मोक्ष पामे. –आवा उग्र पुरुषार्थनी वात छे.
तीर्थंकरोना पंथमां पुरुषार्थहीनतानी वातने अवकाश नथी. तीर्थंकरोनो पंथ स्वाधीन पुरुषार्थनो छे. जे जीव
स्वाधीन पुरुषार्थनो स्वीकार करे छे ते ज जीव तीर्थंकरोना पंथे छे; जे जीव स्वाधीन पुरुषार्थने स्वीकारतो नथी
ते जीव तीर्थंकरोना पंथे नथी.
करीने, अरिहंत तरफना विकल्पनुं पण आलंबन छोडीने स्वाश्रय करतां दर्शनमोह क्षय पामे छे, ने पछी ए ज
स्वभावमां विशेष एकाग्रपणे स्वाश्रय करतां राग–द्वेषनो क्षय थईने वीतरागता ने केवळज्ञान थाय छे.
त्रणेकाळे आ एक ज प्रकारनो मोक्षनो उपाय छे. अरिहंत भगवंतो आवा ज स्वाश्रित ज्ञाननी विधि वडे
मोहनो क्षय करीने केवळज्ञान पाम्या; अने पछी दिव्यध्वनिमां जगतना भव्य जीवोने पण एम ज उपदेश
आप्यो के, हे जगतना भव्य आत्माओ! जे रीते अमे कहीए छीए ते रीते तमे आत्माना द्रव्यगुण–पर्यायनो
तमारा ज्ञानमां निर्णय करो, अने तमारा पर्यायने पराश्रयथी छोडावीने स्वाधीन आत्मतत्त्वमां वाळो. अमे
पुरुषार्थवडे