आसो : २४७४ : २१७:
पवित्र पुरुषोने नमी पडे छे माटे पवित्रता ज श्रेष्ठ छे. पवित्रता ईच्छवा योग्य छे, पुण्य ईच्छवा योग्य नथी.
पूर्वना पुण्य ऊंचा? के वर्तमानमां स्वभावनो आश्रय करीने पुण्यनो विकल्प तोडी नांख्यो छे ते ऊंचो?
अहीं आचार्यदेव एम बतावे छे के जेणे आत्माना स्वभावनो आश्रय करवानो पुरुषार्थ कर्यो छे ते ज श्रेष्ठ छे,
पुण्य करीने स्त्री आदिने प्रिय थाय तेमां कांई आत्मानी श्रेष्ठता नथी, ते आदरणीय नथी. पूर्वे पुण्य करीने
तेना फळमां स्त्री आदि मळी तेना रागमां अटकवुं ते सारुं नथी, पण पुण्यने तरणां तूल्य जाणीने अने स्त्री
प्रत्येना रागने छोडीने स्वभावना आश्रये वीतरागता प्रगट करवी ते ज श्रेष्ठ छे. माटे हे जीव! तुं स्त्री आदि
संयोगनी तेम ज पुण्यनी प्रशंसा छोडीने स्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान–एकाग्रतानो पुरुषार्थ कर, ते धर्म छे.
चैतन्यरूपी जहाजमां चडीने जेओ संसार समुद्रनो पार पामी रह्या छे एवा संतोना चरणमां ईन्द्रो–
चक्रवर्तीओ पण नमस्कार करे छे, ते संतोने स्वभावनी लीनताथी पर तरफनो राग ज तूटी गयो छे, तेनुं ज
नाम उत्तम ब्रह्मचर्य छे. पर लक्षे ब्रह्मचर्यनो शुभराग ते तो पुण्यबंधनुं कारण छे, ते उत्तम ब्रह्मचर्यधर्म नथी.
पुण्य अने तेनां फळ तो नाशवान छे अने वर्तमान पण आकुळता–दुःखनां कारणो छे, पुण्यरहित
आत्मस्वभाव धु्रव छे, तेना आश्रये जे ब्रह्मचर्य प्रगट्युं ते ज प्रशंसनीय छे, पुण्य प्रशंसनीय नथी. ब्रह्मानंद–
आत्माना ज्ञानस्वरूपनो आनंद–तेनुं सेवन करीने मुनिओ मोक्षरूपी स्त्रीने साधे छे. पुण्यवंतने तो जेटलो काळ
पुण्य होय तेटलो काळ ते स्त्रीना हृदयमां प्रिय लागशे, पण चैतन्यना आश्रये जेणे ब्रह्मचर्य प्रगट कर्युं छे तेने
मोक्षरूपी स्त्रीनी सदाकाळ प्राप्ति रहे छे अने इंद्र वगेरे सर्वे उत्तम जीवो पण तेने नमस्कार करे छे. माटे ते ज
भव्य जीवोए आदरणीय छे. पहेलांं ज, आत्मस्वभावमां सुख छे ने स्त्री आदि कोई विषयोमां सुख नथी–एम
साची श्रद्धा तथा साचुं ज्ञान करवुं ते धर्म छे. –अहीं उत्तम ब्रह्मचर्यधर्मनुं व्याख्यान पूरुं थयुं.
आ रीते उत्तम क्षमादि दश धर्मोनुं वर्णन करीने हवे आचार्यदेव ते धर्मोनो महिमा बतावे छे–
स्त्रग्धरा
वैराग्यत्यागदारुकृतरुचिरचना चारु निश्रेणिका यैः
पादस्थानैरुदारैर्दशभिरनुगता निश्चलैर्ज्ञानद्रष्टेः।
योग्या स्यादारुरुक्षोः शिवपदसदनं गन्तुमिष्येतु केषाम्
नो धर्मेषु त्रिलोकीपतिभिरपि सदा स्तूयमानेषु द्रष्टिः।।१०६।।
श्री आचार्यदेव कहे छे के–त्रण लोकना स्वामी एवा इंद्रोथी पण जे वंदनीक छे एवा आ दश उत्तम
धर्मोने धारण करवामां कोने हर्ष न थाय? सर्वे मोक्षार्थी जीवो तेनुं हर्षसहित पालन करे छे. मुनिदशामां आ दश
धर्मो होय छे. मुनिदशा मोक्षमहेलनी सीडी छे, तेनी एक बाजु वैराग्यरूपी अने बीजी बाजु त्यागरूपी सुंदर
अने मजबूत काष्ठ लागेलां छे, तथा दश धर्मरूपी दश मोटा मजबूत पगथियां छे. मोक्षमहेलमां चडवानी
भावनावाळा पुरुषोए आवी सीडी चडवा योग्य छे. अर्थात् आ दश धर्मोना पालनथी जीव मुक्ति पामे छे.
आवा उत्तम दश धर्मो प्रत्ये कया मोक्षार्थीने उल्लास न आवे?
आचार्यदेव कहे छे के अहो! वीतरागी दश धर्मोनुं आवुं सुंदर वर्णन सांभळीने कोने व्रतादिनी भावना नहि
ऊछळे? रागरहित चैतन्यस्वभावना आश्रयनी भावना कोने नहि थाय? पोते होंशथी दश धर्मोने पाळे छे तेथी
आचार्यदेव कहे छे के आ दश धर्म सांभळतां आखी दुनियाने हर्ष थशे. बधा जीवोने आ दश धर्म सांभळीने निश्चल
सम्यग्दर्शन–ज्ञानपूर्वक उत्तम त्याग–वैराग्यादिनी होंश थशे. एम मांगळिकपूर्वक आ अधिकार पूरो थाय छे.
दश लक्षण धर्मना व्याख्यानो पूर्ण थया.
धर्म :
धर्म वाडीए न नीपजे, धर्म हाटे न वेचाय;
धर्म विवेके नीपजे, जो करीए तो थाय.
–भावार्थ– धर्म कोईनी वाडीमां ऊगतो नथी, कोईना खेतरमां धर्मनां झाड ऊगतां नथी. अने बजारमां
कोईनी दुकाने धर्म वेचातो मळतो नथी. धर्म तो विवेकथी थाय छे. विवेक एटले स्व अने परना जुदापणानुं
ज्ञान, तेनाथी ज धर्म थाय छे. अने एवो धर्म जीव पोते करे तो थाय छे.
आत्मधर्म अंक ५९ मां सुधारो : अंक ५९ पृ. १९३ कोलम १ लाईन ३३मां ‘व्यवहार रत्नत्रयथी पण
धर्म न थाय.’ एम छाप्युं छे तेने बदले ‘व्यवहाररत्नत्रयथी पण धर्म थाय.’ एम सुधारीने वांचवुं.