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भाई! तने स्त्रीनो परिचय करवानी होंश थई त्यां ज तारी परीक्षा थई गई छे के तने ब्रह्मचर्यनो खरो रंग
नथी. तारे परीक्षा करवी होय तो स्वभावना आश्रये केटलो वीतरागभाव टके छे ते उपरथी परीक्षा कर.
थयो एम बताववा ते वीतरागभावने उत्तम ब्रह्मचर्यधर्म कह्यो छे. मुनिराजने ज्यारे शुद्धोपयोगमां रमणता न
रहे अने विकल्प ऊठे त्यारे ब्रह्मचर्य वगेरे पंचमहाव्रत पाळे छे; ते वखते कदाच स्त्री तरफ लक्ष जाय तो कोई
अशुभवृत्ति न थतां ते प्रत्ये माता, बहेन के पुत्री तरीकेनो विकल्प थाय अने ते शुभविकल्पनो पण निषेध
वर्ततो होय छे. तेथी त्यां पण उत्तम ब्रह्मचर्यधर्म छे. स्त्री आदि परलक्षे जे शुभविकल्प ऊठ्यो छे ते तो राग छे,
ते परमार्थे ब्रह्मचर्य नथी, पण त्रिकाळी शुद्धस्वभावनी रुचिना जोरे ते स्त्रीआदि तरफना विकल्पनी रुचि
प्रगटाववो ते परमार्थे उत्तम ब्रह्मचर्यधर्म छे, ते केवळज्ञाननुं साक्षात् कारण छे.
राणीओ हती छतां तेमां सुखनी मान्यता स्वप्नेय न हती; तेमज तेमां जे राग हतो तेने पण पोतानुं स्वरूप मानता
नहि. तेथी स्वभावद्रष्टिना जोरे ते राग छेदीने त्यागी थई ते ज भवे केवळज्ञान अने मुक्ति पाम्या.
द्रव्यनी साथे संबंधनी वृत्ति छे तेने खरेखर बधाय पदार्थोमां एकत्वबुद्धि रहेली छे, तेने भेदज्ञान नथी, अने
भेदज्ञान वगर ब्रह्मचर्यधर्म होतो नथी. माटे, आचार्यदेव कहे छे के, स्वपरनुं भेदज्ञान करीने,–स्त्री आदिमां सुख
किंचित् नथी एम समजीने ब्रह्मचारी–संतो–मुमुक्षुओए स्त्री आदि सामुं जोवुं नहि. तेनो परिचय–संग करवो
नहि. सर्व पर द्रव्यो तरफनी वृत्ति तोडीने स्वभावमां स्थिरतानो अभ्यास करवो:
हृदिविरचितरागाः कामिनीनां वसन्ति।
कथमपि न पुनस्ता जातु येषां तदंघ्री
प्रतिदिनमतिनमास्तेऽपि नित्यं स्तुवन्ति।।१०५।।
पवित्रताज श्रेष्ठ छे. तेथी जीवोए पुण्यनी अने तेना फळनी–स्त्री आदिनी–रुचिमां न रोकतां आत्माना
वीतरागी स्वभावनी रुचि अने महिमा करवो.
नथी अर्थात् आत्मभानपूर्वक स्त्री आदिनो राग छोडीने जेओ वीतरागी मुनि थया छे ते पुरुषो ज आ
टळी गई छे एवा पवित्र पुरुषोने नमस्कार करे छे–स्तवे छे. स्त्रीओ पुण्यवंतने चाहे छे अने पुण्यवंतो
धर्मात्मा संतने नमे छे, माटे पुण्य करतां पवित्रतानो–धर्मनो पुरुषार्थ ऊंचो छे.