Atmadharma magazine - Ank 060
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: २१६ : आत्मधर्म : ६०
सेवे अने एम कहे के ‘हुं तो ब्रह्मचर्यनी परीक्षा करुं छुं!’ तो एवो जीव पराश्रयनी रुचिथी संसारमां रखडशे. हे
भाई! तने स्त्रीनो परिचय करवानी होंश थई त्यां ज तारी परीक्षा थई गई छे के तने ब्रह्मचर्यनो खरो रंग
नथी. तारे परीक्षा करवी होय तो स्वभावना आश्रये केटलो वीतरागभाव टके छे ते उपरथी परीक्षा कर.
अहीं तो सम्यग्दर्शनपूर्वक मुनिओने केवुं उत्तम ब्रह्मचर्य होय तेनी उत्कृष्ट वात छे. खरेखर तो
वीतरागभाव ते ज धर्म छे, पण तेनी पूर्वे निमित्तरूपे ब्रह्मचर्यनो शुभराग हतो. तेने छोडीने वीतरागभाव
थयो एम बताववा ते वीतरागभावने उत्तम ब्रह्मचर्यधर्म कह्यो छे. मुनिराजने ज्यारे शुद्धोपयोगमां रमणता न
रहे अने विकल्प ऊठे त्यारे ब्रह्मचर्य वगेरे पंचमहाव्रत पाळे छे; ते वखते कदाच स्त्री तरफ लक्ष जाय तो कोई
अशुभवृत्ति न थतां ते प्रत्ये माता, बहेन के पुत्री तरीकेनो विकल्प थाय अने ते शुभविकल्पनो पण निषेध
वर्ततो होय छे. तेथी त्यां पण उत्तम ब्रह्मचर्यधर्म छे. स्त्री आदि परलक्षे जे शुभविकल्प ऊठ्यो छे ते तो राग छे,
ते परमार्थे ब्रह्मचर्य नथी, पण त्रिकाळी शुद्धस्वभावनी रुचिना जोरे ते स्त्रीआदि तरफना विकल्पनी रुचि
उडाडतो विकल्प थयो छे तेथी तेने ब्रह्मचर्य कहेवाय छे. अने ते विकल्प पण छेदीने साक्षात् वीतरागभाव
प्रगटाववो ते परमार्थे उत्तम ब्रह्मचर्यधर्म छे, ते केवळज्ञाननुं साक्षात् कारण छे.
स्वभावद्रष्टि छोडीने जेणे स्त्रीमां ज सुख मान्युं छे तेने अनंत संसारनुं भ्रमण थाय छे, अने तेने माटे स्त्री
ज संसारनुं कारण छे एम कहेवामां आवे छे. भरतचक्रवर्ती गृहस्थदशामां क्षायिकसम्यग्द्रष्टि हता अने हजारो
राणीओ हती छतां तेमां सुखनी मान्यता स्वप्नेय न हती; तेमज तेमां जे राग हतो तेने पण पोतानुं स्वरूप मानता
नहि. तेथी स्वभावद्रष्टिना जोरे ते राग छेदीने त्यागी थई ते ज भवे केवळज्ञान अने मुक्ति पाम्या.
एक द्रव्यने बीजा द्रव्य साथे संबंध छे–एवी जे बे पदार्थना संबंधनी बुद्धि ते व्यभिचारिणी बुद्धि छे, ते
मिथ्यात्व छे, ते ज अब्रह्मचर्य छे अने ते ज खरेखर संसारपरिभ्रमणनो आधार छे. जेने एक पण अन्य
द्रव्यनी साथे संबंधनी वृत्ति छे तेने खरेखर बधाय पदार्थोमां एकत्वबुद्धि रहेली छे, तेने भेदज्ञान नथी, अने
भेदज्ञान वगर ब्रह्मचर्यधर्म होतो नथी. माटे, आचार्यदेव कहे छे के, स्वपरनुं भेदज्ञान करीने,–स्त्री आदिमां सुख
किंचित् नथी एम समजीने ब्रह्मचारी–संतो–मुमुक्षुओए स्त्री आदि सामुं जोवुं नहि. तेनो परिचय–संग करवो
नहि. सर्व पर द्रव्यो तरफनी वृत्ति तोडीने स्वभावमां स्थिरतानो अभ्यास करवो:
हवे आचार्यदेव वीतरागी ब्रह्मचारी पुरुषोनो महिमा बतावे छे–
मालिनी
अविरतमिह तावत्पुण्यभाजो मनुष्या
हृदिविरचितरागाः कामिनीनां वसन्ति।
कथमपि न पुनस्ता जातु येषां तदंघ्री
प्रतिदिनमतिनमास्तेऽपि नित्यं स्तुवन्ति।।१०५।।
आचार्यदेव पुण्य अने पवित्रताने जुदा पाडीने समजावे छे. आ संसारमां जेने स्त्रीओ चाहे एवुं सुंदर
रूप वगेरे छे ते पुण्यवंत छे; परंतु एवा पुण्यवंतो–इंद्रो, चक्रवर्तीओ वगेरे–पण, जेमना हृदयमां स्त्री संबंधी
जरापण विकल्प नथी एवा वीतरागी संतना चरणमां शीर झूकावी झूकावीने नमस्कार करे छे. माटे पुण्य करतां
पवित्रताज श्रेष्ठ छे. तेथी जीवोए पुण्यनी अने तेना फळनी–स्त्री आदिनी–रुचिमां न रोकतां आत्माना
वीतरागी स्वभावनी रुचि अने महिमा करवो.
जे पुरुषनुं शरीर रूपाळुं छे तेनो स्त्रीना हृदयमां वास छे अने ते पुण्यवंत छे. पण एवा पुण्यवंतो य
पवित्रता पासे नमी जाय छे. जेमना हृदयमां स्त्रीओ स्वप्ने पण वास करती नथी, स्त्री–संबंधी जेने विकल्प
नथी अर्थात् आत्मभानपूर्वक स्त्री आदिनो राग छोडीने जेओ वीतरागी मुनि थया छे ते पुरुषो ज आ
जगतमां धन्य छे. जेने स्त्रीओ चाहे छे एवा इंद्रो अने चक्रवर्ती वगेरे मोटा पुरुषो पण, जेना हृदयमांथी स्त्री
टळी गई छे एवा पवित्र पुरुषोने नमस्कार करे छे–स्तवे छे. स्त्रीओ पुण्यवंतने चाहे छे अने पुण्यवंतो
धर्मात्मा संतने नमे छे, माटे पुण्य करतां पवित्रतानो–धर्मनो पुरुषार्थ ऊंचो छे.
इंद्राणी इंद्रने चाहे छे, पद्मिणी स्त्री (स्त्री रत्न) चक्रवर्तीने चाहे छे, ए रीते स्त्रीओ पुण्यवंतने चाहे छे
अने पुण्यवंतने जगतना जीवो श्रेष्ठ माने छे, परंतु ते चक्रवर्ती वगेरे पुण्यवंत पुरुषो पण मुनिराज वगेरे