Atmadharma magazine - Ank 060
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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आसो : २४७४ : २१५:
आचार्यदेव कहे छे के जो आ जगतमां स्त्री न होत तो संसार न होत एटले के जो जीवनी द्रष्टि स्त्री
आदि निमित्त उपर न होत तो तेनी द्रष्टि स्वभाव उपर होत, ने स्वभावद्रष्टि होत तो संसार न होत.
स्वभावद्रष्टिथी स्वभावनो आनंद प्रगट्या वगर रहे नहि. स्वभावद्रष्टि छोडीने मिथ्यात्वथी स्त्री आदिमां सुख
मान्युं त्यारे स्त्रीने संसारनुं कारण कहेवायुं. स्त्री आदि निमित्तना आश्रये राग करीने एम माने के ‘आमां शुं
वांधो छे?’ अथवा तो ‘आमां सुख छे’–एम माननार जीव स्वभावनो आश्रय चूकीने संसार–मां रखडे छे.
आत्मानो शुद्ध उपादान स्वभाव तो परम आनंदनुं कारण छे; पण तेने भूलीने निमित्तनो आश्रय कर्यो तेथी ते
निमित्तने ज संसारनुं कारण कह्युं छे. ए क्षणिक संसारभाव जीवना स्वभावना आधारे थता नथी–पण
निमित्त–ना आधारे थाय छे एम बताववा माटे स्त्रीने संसारनो आधार कह्यो छे. जेम नानी खीलीना आधारे
चाक घूमे छे तेम पोतानी परिणतिमां ऊंडे ऊंडे पराश्रयमां सुख माने छे, ते मान्यतारूपी धरी उपर जीव अनंत
प्रकारना संसारमां भमे छे, जीवना संसारचक्रनी धरी मिथ्यात्व छे.
श्रीमद् राजचंद्रजीए कह्युं छे के–
‘आ सघळा संसारनी रमणी नायक रूप,
ए त्यागी त्याग्युं बधुं केवळ शोक स्वरूप.’
ए तो निमित्तनी अपेक्षाए वात छे. खरेखर स्त्री संसारनुं कारण नथी. पूर्वे अनंतवार द्रव्यलींगी साधु
थईने स्त्रीनो संग छोड्यो अने ब्रह्मचर्यव्रत पाळ्‌युं छतां कल्याण थयुं नहि. पोताना स्वभावनो आश्रय चूकीने
निमित्तनो–पुण्य–नो–व्यवहारनो आश्रय मान्यो ते ज मैथुन छे; पुण्य–पाप भावोनी रुचि ते ज महान भोग
छे. तेने बहारमां संयोग कदाच न देखाय पण अंतरमां तो क्षणे क्षणे विकारनो ज भगवटो करे छे.
पूर्ण वीतरागी ब्रह्मचर्यदशा पुरुषने ज होई शके छे तेथी पुरुषनी मुख्यताथी कथन छे, स्त्रीने पांचमा
गुणस्थान सुधीनी दशा होय छे, विशेष ऊंची दशा होती नथी, पंचपरमेष्ठीपदमां तेनुं स्थान नथी; तेथी
शास्त्रोमां तेनी वात मुख्यपणे होती नथी, पण गौणपणे तेनी भूमिका मुजब समजवुं. स्त्रीने माटे पुरुषना
संगनी रुचि ते संसारनुं कारण छे.
शास्त्रोमां ब्रह्मचर्यनी नव वाड कही छे, ते नव वाड तेवा प्रकारना रागथी बचवा माटे छे, पण ‘परद्रव्य
नुकशान करे छे’ एम बताववा माटे कह्युं नथी. ‘आपणा भाव शुद्ध छे ने परद्रव्य तो नुकशान करतुं नथी माटे
वाड तोडवामां शुं वांधो छे? स्त्री आदिना परिचयमां शुं वांधो छे’–आवा कुतर्कथी जो रुचिपूर्वक ब्रह्मचर्यनी वाड
तोडे तो ते जीव जिन–आज्ञानो भंग करनार मिथ्याद्रष्टि छे. ‘परद्रव्य नुकशान करतुं नथी माटे ब्रह्मचर्यनी
वाडनो भंग करवामां बाध शुं छे?’ एटले के स्वद्रव्यनुं अवलंबन छोडीने परद्रव्यने अनुसरवामां बाध शुं
छे?–आवी बुद्धिवाळो जीव मिथ्याद्रष्टि छे. हे स्वच्छंदी! परद्रव्य नुकशान करतुं नथी–ए वात तो एम ज छे
परंतु ए जाणवानुं प्रयोजन तो परद्रव्यथी पराङमुख थईने स्वभावमां वळवानुं हतुं के परद्रव्योने स्वच्छंदपणे
अनुसरवानुं हतुं? जेम परद्रव्य नुकशान करतुं नथी तेम परद्रव्यथी तने लाभ पण थतो नथी–आम
समजनारने परना संगनी भावना ज केम होय? परथी नुकशान नथी माटे परनो संग करवामां बाध नथी–
आवी जेनी भावना छे ते स्वच्छंदी मिथ्याद्रष्टि छे, ते तत्त्वने समज्यो नथी. जे तत्त्वज्ञान वीतरागताने पोषे छे
ते तत्त्वज्ञाननी ओथे स्वच्छंदी जीव पोताना रागने पोषे छे, तेने कदी तत्त्वज्ञान साचुं परिणमतुं नथी. ‘अहो!
मारा आत्माने परथी कांई लाभ के नुकशान नथी’ एम समजतां तो परनी भावना छूटीने स्वभावनी भावना
थाय. तेने बदले, जेने स्वभावनी भावना न थई ने परना संगनी रुचि थई–ते मिथ्याद्रष्टि छे, वीतराग
मार्गथी भ्रष्ट छे, तेणे विकारने विघ्नकारक मान्यो नथी. पहेलांं तो स्त्री आदिना संगथी पाप मानीने तेनाथी
भयभीत रहेतो, अने हवे तो परथी नुकशान नथी एम मानीने ऊलटो निःशंकपणे रागना प्रसंगमां जोडाईने
स्वच्छंदने पोषे छे, तेवा जीवने विकार अने स्वभावनुं भेदज्ञान करवानो महिमा नथी. तेनामां सत् समजवानी
के सांभळवानी पण पात्रता नथी.
ज्ञानमूर्ति चैतन्यस्वभावना भानपूर्वक जे नव वाड छे ते तेवा प्रकारना अशुभरागनो अभाव बतावे
छे. ब्रह्मचारी जीवने तेवा प्रकारनो अशुभराग सहेजे टळी गयो होय छे. ब्रह्मचारी होय अने स्त्रीना परिचयनो
भाव आवे–एम बने नहि. कोई जीव ब्रह्मचर्यनी वाड तोडीने स्त्रीनो संग–परिचय करे, तेनी साथे एकांतवास