Atmadharma magazine - Ank 060
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: २१४ : आत्मधर्म : ६०
१०. उत्तम ब्रह्मचर्यधर्म
लेखांक : ७
[श्री पद्मनंदिपचीसीमांथी दश लक्षण धर्मनां व्याख्यानो] (अंक ५९थी चालु)
आजे दश लक्षण पर्वनो छेल्लो दिवस छे. आजे उत्तम ब्रह्मचर्यधर्मनो दिवस गणाय छे. ‘ब्रह्म’ एटले
आत्मानो स्वभाव, तेमां चरवुं–परिणमवुं–लीन थवुं–ते ब्रह्मचर्य छे. विकार अने परना संगरहित आत्मस्वभाव
केवो छे ते जाण्या वगर उत्तम ब्रह्मचर्य होय नहि. लौकिक ब्रह्मचर्य ते शुभराग छे, धर्म नथी, अने उत्तम ब्रह्मचर्य ते
धर्म छे–राग नथी. शुद्ध आत्मस्वभावनी रुचि वगर विषयोनी रुचि छूटे नहि. मारा स्वभावमांथी ज मारी सुखदशा
प्रगटे छे, मारी दशा प्रगटवा माटे मारे कोईनी अपेक्षा नथी–एम परथी भिन्न स्वभावनी द्रष्टि थया वगर विषयोनी
रुचि छूटे नहि. बहारमां विषयो छोडे पण अंतरमांथी विषयोनी रुचि न छोडे तो ते ब्रह्मचर्य नथी, स्त्री–घरबार
छोडीने त्यागी थई जाय, अशुभभाव छोडीने शुभ करे, परंतु ते शुभभावमां जेने रुचि अने धर्मबुद्धि छे तेने
खरेखर विषयोनी रुचि छूटी नथी. शुभ के अशुभ विकार परिणाममां एकताबुद्धि ते ज अब्रह्म परिणति छे, अने
विकाररहित शुद्ध आत्मामां परिणामनी एकता ते ज ब्रह्म परिणति छे. ए ज परमार्थ ब्रह्मचर्य धर्म छे.
अहीं सम्यग्दर्शनपूर्वक मुनिनी चारित्रदशाना ब्रह्मचर्यनी वात छे. जगतना सर्व विषयोथी उदासीन
थईने आत्मस्वभावमां चर्चा प्रगटी छे तेब्रह्मचर्य छे अने तेना फळमां तेमने परमात्मपद मळ्‌ये ज छूटको.
स्वभावमां एकता करी अने परथी निरपेक्ष थया त्यां जे वीतरागभाव प्रगट्यो ते ब्रह्मचर्यधर्म छे. अहीं श्री
पद्मनंदि मुनिराज ब्रह्मचर्यधर्मनुं वर्णन करे छे–
स्त्रग्धरा
यत्संगाधारमेतच्चलति लघु च यत्तीक्ष्णदुःखौघधारं
मृत्पिण्डीभूतभूतं कृतबहुविकृति भ्रान्ति संसारचक्रम्।
ता नित्यं यन्मुमुक्षुर्यतिरमलमतिः शान्तमोहः प्रपश्ये–
ज्जामीः पुत्रीः सवित्रीरिवहरिणद्रशस्तत्परं ब्रह्मचर्यम्।।१०४।।
आ श्लोकमां ‘अमलमति’ शब्द उपर वजन छे. अमलमति एटले पवित्र ज्ञान–सम्यग्ज्ञान. जेने
सम्यग्ज्ञान थयुं छे एवा आत्माओ कदापि स्त्री आदिमां सुखबुद्धि न करे. आत्मामां एकाग्र रहेनारा मुमुक्षुओ
अने मुनिओ कदी स्त्रीनो संग–परिचय न करे. स्त्री आदि विषयोमां सुखबुद्धिथी जीव संसारमां रखडे छे, तेथी
अहीं आचार्यदेव कहे छे के जेम कुंभारना चाकनो आधार खीली छे अने ते चाक उपर रहेला माटीना पिंडना
अनेक आकार थाय छे तेम आ संसाररूपी चाकनो आधार स्त्री छे अने संसारमां जीव अनेक प्रकारना विकार
करीने चार गतिमां रखडे छे. जे मोक्षाभिलाषी जीव सम्यग्ज्ञानपूर्वक विषयोनी रुचि छोडीने ते स्त्रीओने माता
समान, बहेन समान के पुत्री समान जाणे छे तेने ज उत्तम ब्रह्मचर्यधर्मनुं पालन थाय छे. जेनी निर्मळ बुद्धि
थई छे अने जेनो मोह शांत थई गयो छे एवा ब्रह्मचारी आत्माओ कदापि स्त्रीसंग न करे.
उपदेशमां निमित्तनी मुख्यताथी वचनो आवे, त्यां तेनो साचो भावार्थ समजी लेवो जोईए. अहीं स्त्रीने
संसारनो आधार कह्यो ते निमित्तनी अपेक्षाथी छे, खरेखर स्त्री कांई जीवने रखडावती नथी पण पोताना
स्वभावथी खसीने स्त्रीनी सुंदरतामां अने विषयमां जीवने रुचि थई ते मिथ्यात्व परिणति छे अने ते ज
संसारनो आधार छे. स्वभावनी अपेक्षा ने परनी उपेक्षा ते ब्रह्मचर्य छे, ने ते मोक्षनो आधार छे. सम्यग्दर्शन
पहेलांं पण जिज्ञासु जीवोने विषयोनी मीठाश छूटीने ब्रह्मचर्यनो प्रेम होय. जेने अंतरमां विषयोनी मीठाश पडी
छे ते जीवने चैतन्यतत्त्वनी प्रीति नथी. चैतन्यनो सहजानंद विषयरहित छे. ते सहज–आनंदमय
चैतन्यस्वरूपनी रुचि छूटीने जेने इंद्राणी वगेरे प्रत्येना रागमां मीठाश आवे छे ते जीव मिथ्याद्रष्टि छे.
निमित्तोनी उपेक्षा करीने स्वभावमां एकता करवी ते ब्रह्मचर्य छे, ते मुक्तिनुं कारण छे; अने आत्माने
निमित्तोनी अपेक्षा छे एवी पराश्रितद्रष्टि ते विषय छे अने ते संसारनुं कारण छे.
आत्मस्वभावना भान वगर स्त्री छोडीने ब्रह्मचर्य पाळे तो ते पुण्यनुं कारण छे. पण ते उत्तम
ब्रह्मचर्यधर्म नथी, ने तेनाथी कल्याण नथी. विषयोमां सुखबुद्धि अथवा निमित्तनी अपेक्षानो उत्साह ते संसारनुं
कारण छे. अहीं जेम पुरुषने माटे स्त्रीने संसारना कारणरूप कही छे तेम स्त्रीओने पण पुरुषनी रुचि ते
संसारनुं कारण छे.