परिणमन माने नहि परंतु ते पोते पण समये समये परिणम्या वगर तो रहेतो ज नथी. वस्तुना परिणमनने जे
नथी मानतो तेने अधर्म दशा पलटावीने धर्मरूपे परिणमवानी रुचि नथी. त्रिकाळी वस्तुनुं परिणमन स्वीकारीने
जो वस्तुआश्रित परिणमे तो एक ज समयमां अधर्म टाळीने वस्तु पोते धर्मरूपे परिणमी जाय छ. धर्म ते
परिणाम छे–अवस्था छे, एक समयनी दशा छे. आत्मामां धर्म अनादिथी नथी पण नवो थाय छे.
नाना काळमां) अधर्म–अकल्याणदशामांथी गूलांट मारीने धर्म–कल्याण रूपे परिणमी जाय एवो तेनो स्वभाव
छे. जे जीव नानामां नाना काळमां वस्तुनुं परिणमन माने–एटले के–आत्मा पोताना स्वभावना आश्रये एक
समयमां विकार टाळीने पूर्ण अवस्थारूपे परिणमी जाय–एवो स्वभाव छे, तेने जे स्वीकारे ते जीव स्वभाव–
आश्रित परिणमीने केवळज्ञानमय थई जाय. जो आत्मा दरेक समये एक अवस्थामांथी बीजी अवस्थारूपे न
परिणमी जतो होय तो आत्मामां धर्म ज न थई शके. आथी एम समजवुं के आत्मामां जे परिणमन न माने
तेने धर्म थाय नहि.
परनी मदद वगर स्वयं परिणमे छे. आम समजीने, परनो आश्रय छोडीने स्वसन्मुख थईने वस्तुस्वभावने
स्वीकारे तो पोताना स्वभावना आश्रये परिणमीने शुद्धोपयोगथी स्वरूपमां रमणता करे अने वीतरागचारित्र
प्रगट करी केवळज्ञान पामे.
परिणमन छे ते पलटीने एवुं परिणमन थशे के पूर्णतारूपे ज वस्तु परिणमशे, अने एवुं पूरुं परिणमन सदाय
थया करशे. आत्मा केवळज्ञानरूपे परिणमी गया पछी तेने ते ज केवळज्ञानपरिणाम सदा रहेतो नथी, पण
समये समये नवा नवा केवळज्ञानपरिणामरूपे आत्मा ऊपजे छे. पहेला समयनो जे केवळज्ञानपरिणाम छे ते
पोते ज बीजा समये होतो नथी; पहेला समयनो केवळज्ञानपरिणाम बीजा समये नाश पामे छे अने नवा
केवळज्ञानपरिणामरूपे आत्मा परिणमे छे. ए रीते शुद्धोपयोगना फळरूपे सादि अनंतकाळ आत्मा केवळज्ञानरूपे
ज परिणम्या करे छे.
थाय छे, ने वळी पाछो शुभोपयोग थतां छठ्ठा गुणस्थाने पंचमहाव्रतादि विकल्प ऊठे छे, तेनो आचार्यदेव निषेध
करे छे के आ न जोईए, आ सरागचारित्र अनिष्टफळवाळुं छे. वीतरागचारित्रनुं फळ मोक्ष छे ते ज ईष्ट छे.
वर्तमान सरागचारित्र छे तेनो अने रागना फळमां स्वर्गमां जवाना छे तेनो आचार्यदेव वर्तमानमां निषेध करे छे;
छतां पंचमकाळ होवाथी अने सरागचारित्र होवाथी स्वर्गमां जशे, पण तेनो आदर नथी, सरागचारित्रनो पण
आदर नथी; वीतरागचारित्रनी ज भावना छे. एक ज स्वभावनुं आराधन छे, महाव्रतनुं आराधन पण नथी;
महाव्रतने अंगीकार करवानी प्रतिज्ञा नथी करी पण तेने ओळंगी जईने वीतरागचारित्ररूप साम्यभावने अंगीकार
करवानी प्रतिज्ञा करी छे. ए रीते एकला शुद्धस्वभावनुं ज आराधन करीने अल्पकाळे चारित्र पूरुं करीने मुक्त थशे
एवा आचार्यभगवंतोनी वाणी आ प्रवचनसार–शास्त्रमां छे.