Atmadharma magazine - Ank 060
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४७४ : आत्मधर्म : २११:
प्रवचनसार
[श्री प्रवचनसार उपर पू. गुरुदेवश्रीना प्रवचनोमांथी प्रसादी]
श्री महावीर भगवाननी परंपराथी गुरुगमे अने श्री सीमंधरभगवान पासेथी जे ज्ञान मळ्‌युं तेना मेळथी
अने पोताना अंतरना अनुभवमांथी आचार्यदेवनी आ वाणी आवेली छे. श्री जिनप्रवचननो सार आ प्रवचनसारमां
भरेलो छे. गुजराती भाषामां अक्षरश: अनुवाद सहित आ परमागमशास्त्र पहेली ज वार प्रसिद्ध थाय छे.
प्रवचनसारनी शरूआतमां वर्तमान वर्तता सीमंधरादि तीर्थंकर भगवंतोने वर्तमान प्रत्यक्षरूप करीने नमस्कार
करतां आचार्यदेव कहे छे के: अहो प्रभु! हुं मोक्षलक्ष्मीना स्वयंवर समान परम निर्ग्रंथतानी दीक्षानो उत्सव करुं छुं, अने
तेमां मंगळाचरणरूपे मारी सन्मुख सर्वे तीर्थंकर भगवंतोनी हार बेसाडीने एकेकना चरणे नमस्कार करुं छे.
श्री आचार्यदेवे मंगळाचरणमां पंच परमेष्ठी भगवंतोने एवी रीते नमस्कार कर्या छे के जाणे साक्षात्
पंच परमेष्ठी भगवंतो पोतानी सन्मुख बिराजता होय अने पोते तेमनी सन्मुख शुद्धोपयोगरूप साम्यभावमां
लीन थई जता होय!
आ शास्त्रनी ८० अने ८१ मी गाथामां मोहनो क्षय तथा शुद्धात्मानी प्राप्ति केम थाय तेनो उपाय
बतावीने पछी ८२ मी गाथामां कहे छे के: बधाय अर्हंत भगवंतो ए ज विधिथी कर्मांशोनो क्षय करीने तथा ए ज
प्रकारे उपदेश करीने मोक्ष पाम्या छे. अहो, ते अर्हंत भगवंतोने नमस्कार हो.
आ शास्त्रना कर्ता आचार्यभगवान वीतराग अने सरागचारित्र वच्चे झूलती दशामां वर्ती रह्या छे;
तेमना आत्माना शुद्धोपयोगमां लीन थतां थतां आ शास्त्र लखायुं छे, तेथी पदे पदे शुद्धोपयोगरस नीतरी रह्यो
छे. जेनाथी सीधी शीवप्राप्ति थाय एवा शुद्धोपयोग माटे आचार्यदेवनी झंखना छे ते आ शास्त्रमां जणाई
आवे छे. वर्तमान वर्तती सराग चारित्र–दशानो निषेध करीने–तेने दूरथी ज ओळंगी जवानी प्रतिज्ञा करीने,
ज्ञायक भावमां डूबकी मारीने सदाय तेमां ज समाई रहीने आत्मा संपूर्ण शुद्धोपयोगरूपे परिणमी जाय एवी
अंतर भावनाने घूंटी छे.
महान आचार्य श्री अमृतचंद्रसुरि आ शास्त्रना मूळ टीकाकार छे. टीकानी शरूआतमां ज तेओश्री जणावे
छे के: परमानंदरूपी सुधारसना पिपासु भव्य जीवोना हितने माटे, तत्त्वने जे प्रगट करे छे एवी प्रवचनसारनी
आ टीका करवामां आवे छे. परमानंदना पिपासु जीवो आ काळे छे ने तेओ परमानंदने प्राप्त करवाना छे.
आचार्यदेवे पंच परमेष्ठी भगवंतोने नमस्कार करीने आ प्रवचनसार शरू कर्युं छे, अने शरूआतमां ज
वीतराग चारित्ररूप साक्षात् मोक्षमार्गने प्राप्त करवानी प्रतिज्ञा करी छे. पोताने परमेष्ठीपद–आचार्यपद तो
वर्तमानमां वर्ते छे, परंतु हजी सरागचारित्रदशा पण वर्ते छे, संपूर्ण शुद्धोपयोगरूपे परिणमन थतुं नथी तेथी
संपूर्ण शुद्धोपयोगरूप साम्यभावने प्राप्त करवानी झंखना छे; ते माटे शरूआतमां ज प्रतिज्ञा करतां कहे छे के हे
नाथ! पंच परमेष्ठी भगवंतो! आपने निर्मळदशा प्रगट थई छे ते माटे हुं आपने नमस्कार करुं छुं. बधाय
भगवंतोने प्रत्यक्षरूप करीने सर्वेने एक साथे नमस्कार करुं छुं तेमज दरेकने प्रत्येक प्रत्येकने नमस्कार करुं छुं.
अने ए रीते नमस्कार करीने हुं वीतरागी चारित्रने अंगीकार करुं छुं–आत्माना शुद्धोपयोगमां लीन थाउं छुं.
सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञानपूर्वकना चारित्रथी परमेष्ठीपद होय छे सम्यग्दर्शन–ज्ञानपूर्वकनुं चारित्र ते
धर्म छे. ते चारित्ररूपे आत्मा परिणमे छे, चारित्र परिणाममां परिणमेलो आत्मा ज चारित्र छे. सराग चारित्र
बंधनुं कारण छे ने वीतरागचारित्र मोक्षनुं कारण छे. वीतरागचारित्र ते शुद्धोपयोग छे. शुद्धोपयोग वखते
शुभ–अशुभ उपयोग होता नथी. आत्मा ते ते समयना पोताना उपयोग–परिणमनथी टके छे. जे वखते जे
परिणाम थाय छे ते वखते ते परिणाम रूपे आत्मा थाय छे. परिणाम रूपे त्रिकाळी वस्तु परिणमे छे. परिणाम
साथे ज परिणामी अभेद छे, परिणामनी एकता परिणामी द्रव्य साथे छे, कोई बीजा साथे तेने संबंध नथी.
आम जाणीने पोताना त्रिकाळी परिणामीस्वभावनो आश्रय करीने जीव परिणमे तो स्वभावना आश्रये
परिणमतां परिणमतां ते परमात्मा थाय छे.