दुरिततरुकुठारः शुद्धबोधावतारः सुखजलनिधिपुरः क्लेशवाराशिपारः।।
अज्ञानरूपी जे दुवित वृक्ष तेने कापवा माटे कुहाडा समान छे, शुद्धज्ञनानो अवतार छे, सुखथी भरेलो समुद्र छे
अने कलेशना समुद्रथी पार छे.
समयसार जयवंत वर्ते छे. शुद्ध आत्मामां नवतत्त्वना विकल्पनो अवकाश नथी. आवा शुद्ध आत्मस्वभावनो
ज्य हो, ने भेदना विकल्पनो क्षय हो. आ ज महान मांगळिक छे. जेने शुद्धात्मानी रुचि ने महिमा आव्यो होय
ते ज एम कहे छे के शुद्ध आत्मा समयसार जयवंत वर्ते छे. पहेलां तो आवा स्वभावनी रुचि अने ओळखाण
करवी जोईए. आत्मस्वभावनी ओळखाण थतां तरत ज पर्यायमांथी बधा पुण्य–पाप टळी जाय नहि, पण
नवतत्त्वना विचार ते राग छे, ते रहित एकलुं जाणनार ज मारुं स्वरूप छे, ए ज बधा तत्त्वनो सार छे. सर्व
तत्त्वमां साररूप भगवान आत्मा जयवंत वर्ते छे–शुद्धात्मा ज जयवंत वर्ते छे एटले अमारा पर्यायमां
शुद्धात्मानो ज उत्पाद थाव अने अशुद्धतानो व्यय थई जाव. जे शुद्धात्माने ज जयवंतपणे जुवे छे तेने पर्यायमां
शुद्धतानो ज उत्पाद थाय छे.
मारुं कर्तव्य नथी–आवा भेदज्ञानना जोरे जे विकारने जीते (नष्ट करे) ते जैन छे. एवा भेदज्ञान वगर जीवनो
अनंतकाळ गयो अने अनंत अवतार थया, महापाप करीने अनंतवार नरके गयो, अने जैननो ब्राह्यसाधु थईने
मोटा पुण्य करीने नवमी ग्रेवेयकमांय अनंतवार गयो, पण एककेय भव न घटयो केमके उपादेयरूप पोतानो
निश्चयस्वभाव शुं छे ते कदी जाण्युं नहि. व्यवहार तो बंधनमार्ग छे, बंधनमार्गथी त्रणकाळमां अबंधतत्त्व खूले
नहि. बंधभावोथी जे दूर छे एवा उत्कृष्ट चैतन्य स्वभावनी श्रद्धा करे तो बंध टळे ने मुक्ति प्रगटे.
ज्यां शुद्ध आत्मानी द्रष्टि थई त्यां साधक जीव कहे छे के अहो, आ शुद्धात्मा ज सदा जयवंत वर्ते छे. कदी
रागादिनो जय थयो ज नथी. पूर्वे अनंतकाळमां रागादि वखते पण एकरूप शुद्धात्मा ज जयवंत वर्ततो हतो.
एकरूप शुद्ध आत्मानो ज जय थाव ने पुण्य–पापनो विलय थाव. त्रिकाली स्वभावमां तो रागादिनो अभाव छे
ज, ते स्वभावनी भावनाथी वर्तमान पर्यायमां शुद्धआत्मा प्रगटो ने रागादिनो नाश थाव.
ज्यां आत्मा विकारनो य कर्ता नथी तो परनुं कांई करे ए वात तो कयां रही?
ज छे छतां अज्ञानीओ माने छे के अमे जडनी क्रिया करीए अने शुभराग अमारुं कर्तव्य छे.–एवा जीवोने माटे
बीजी लीटीमां आचार्यदेव कहे छे के ‘