Atmadharma magazine - Ank 061
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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वशख वद : ६
मालिनी
जयति समयसारः सर्वतत्त्वैकसारः सकलविलयदूरः प्रास्तनिर्व्वारसारः
दुरिततरुकुठारः शुद्धबोधावतारः सुखजलनिधिपुरः क्लेशवाराशिपारः।।
(नियमसार टीका)
सर्व तत्त्वोमां सारभूत एक समयसार (अर्थात् शुद्धात्मा) जयवंत वर्ते छे. केवो छे समयसार? संपूर्ण
विलय अर्थात विकारोथी दूर छे, जेनो नाश करवो कठण छे एवा कामदेवने नष्ट करी दीधो छे, पुण्य पाप अने
अज्ञानरूपी जे दुवित वृक्ष तेने कापवा माटे कुहाडा समान छे, शुद्धज्ञनानो अवतार छे, सुखथी भरेलो समुद्र छे
अने कलेशना समुद्रथी पार छे.
आजे समवसरणमां श्री सीमंधर भगवान अने श्री कुंदकुंदाचार्य भगवाननी स्थापनानो मांगलिक
दिवस छे, ने आ श्लोक पण मंगळ आव्यो छे. श्री आचार्य देव कहे छे के बधाय तत्त्वोमां उत्कृष्ट रूप आ
समयसार जयवंत वर्ते छे. शुद्ध आत्मामां नवतत्त्वना विकल्पनो अवकाश नथी. आवा शुद्ध आत्मस्वभावनो
ज्य हो, ने भेदना विकल्पनो क्षय हो. आ ज महान मांगळिक छे. जेने शुद्धात्मानी रुचि ने महिमा आव्यो होय
ते ज एम कहे छे के शुद्ध आत्मा समयसार जयवंत वर्ते छे. पहेलां तो आवा स्वभावनी रुचि अने ओळखाण
करवी जोईए. आत्मस्वभावनी ओळखाण थतां तरत ज पर्यायमांथी बधा पुण्य–पाप टळी जाय नहि, पण
स्वभाव तो सदाय बधा विकारोथी दूर ज छे–एनी श्रद्धा ज्ञान थाय छे, अने विकारनो आदर टळी जाय छे.
नवतत्त्वना विचार ते राग छे, ते रहित एकलुं जाणनार ज मारुं स्वरूप छे, ए ज बधा तत्त्वनो सार छे. सर्व
तत्त्वमां साररूप भगवान आत्मा जयवंत वर्ते छे–शुद्धात्मा ज जयवंत वर्ते छे एटले अमारा पर्यायमां
शुद्धात्मानो ज उत्पाद थाव अने अशुद्धतानो व्यय थई जाव. जे शुद्धात्माने ज जयवंतपणे जुवे छे तेने पर्यायमां
शुद्धतानो ज उत्पाद थाय छे.
पोते एक परम उत्कृष्ट समयसार तत्त्व छे. अनंत परद्रव्योमां पोते कांई करी शके एम जे माने तेने
वीतराग भगवाने जैन कह्यो नथी. जैन एटले जीतनार; शुद्धचैतन्य स्वभाव ते हुं, पुण्य ते हुं नहि, विकार ते
मारुं कर्तव्य नथी–आवा भेदज्ञानना जोरे जे विकारने जीते (नष्ट करे) ते जैन छे. एवा भेदज्ञान वगर जीवनो
अनंतकाळ गयो अने अनंत अवतार थया, महापाप करीने अनंतवार नरके गयो, अने जैननो ब्राह्यसाधु थईने
मोटा पुण्य करीने नवमी ग्रेवेयकमांय अनंतवार गयो, पण एककेय भव न घटयो केमके उपादेयरूप पोतानो
निश्चयस्वभाव शुं छे ते कदी जाण्युं नहि. व्यवहार तो बंधनमार्ग छे, बंधनमार्गथी त्रणकाळमां अबंधतत्त्व खूले
नहि. बंधभावोथी जे दूर छे एवा उत्कृष्ट चैतन्य स्वभावनी श्रद्धा करे तो बंध टळे ने मुक्ति प्रगटे.
अनंतकाळथी शुद्धात्मानो महिमा जाण्यो नहि ने पुण्यनो–रागनो–व्यवहारनो आश्रय मान्यो, तेथी ते
पुण्यादिनो जय हतो अर्थात् ते पुण्यने अने रागने सदा टकावी राखवानी भावना हती, ते अज्ञान हतुं. हवे
ज्यां शुद्ध आत्मानी द्रष्टि थई त्यां साधक जीव कहे छे के अहो, आ शुद्धात्मा ज सदा जयवंत वर्ते छे. कदी
रागादिनो जय थयो ज नथी. पूर्वे अनंतकाळमां रागादि वखते पण एकरूप शुद्धात्मा ज जयवंत वर्ततो हतो.
एकरूप शुद्ध आत्मानो ज जय थाव ने पुण्य–पापनो विलय थाव. त्रिकाली स्वभावमां तो रागादिनो अभाव छे
ज, ते स्वभावनी भावनाथी वर्तमान पर्यायमां शुद्धआत्मा प्रगटो ने रागादिनो नाश थाव.
आ समयसार जयवंत वर्ते छे अने पुण्य–पापरूप विकारी भावो तो नाश थवा योग्य छे. ते नाश थवा
योग्य विकारी भावोथी समयसार दूर ज छे. आत्मा चैतन्य स्वभाव मात्र छे. विकार तेना स्वरूपमां छे ज नहि.
ज्यां आत्मा विकारनो य कर्ता नथी तो परनुं कांई करे ए वात तो कयां रही?
श्री अमृतचंद्राचार्यदेव समयसारनी टीकाना ६२ मां श्लोकमां कहे छे के ‘आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं
ज्ञानादन्यक्तरोतिकिम्’ आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, पोते ज्ञान ज छे. ते ज्ञान सिवाय बीजुं शुं करी शके? अरे
प्राणीओ! तमारो आत्मा ज्ञान सिवाय बीजुं कांई करी शकतो नथी, एम तमे समजो. आत्मा जाणनार स्वरूपी
ज छे छतां अज्ञानीओ माने छे के अमे जडनी क्रिया करीए अने शुभराग अमारुं कर्तव्य छे.–एवा जीवोने माटे
बीजी लीटीमां आचार्यदेव कहे छे के ‘
परभावस्य कर्तात्मा