नथी. शुद्धस्वभावमां अभेद थईने परिणमवुं जोईए तेने बदले अज्ञानने लीधे रागादिमां एकपणुं मानीने
परिणमे छे ते ज अधर्म छे.
परभावोने पोतानुं स्वरूप मानवुं ते मूढ अज्ञानी जीवोनो व्यवहार छे, आ व्यवहार ते ज अधर्म छे, पोताना
स्वभावमां तो विकार नथी छतां अज्ञानी जीव मोहथी गांडो थईने विकारने पोतानुं काम माने तेनुं शुं थाय?
पर्यायमां पण रागादि नथी.’ तो तेनी मान्यता खोटी छे. पर्यायमां विकार थाय छे तेने जो जाणे ज नहीं तो तो
गृहीतमिथ्यात्त्व छे. पोताना पर्यायमां विकार थाय छे तेने जाणीने शुद्धस्वभावनी द्रष्टिथी ते टाळवा माटेनी आ
वात छे. जो अवस्थामां विकार थतो ज न होय तो आत्मामां वर्तमान पूर्ण शुद्धदशा प्रगट होवी जोईए. अने जो
पूर्ण शुद्धदशा प्रगट होय तो पछी समजवानी के सांभळवानी शुं जरूर होय? अवस्थामां विकार थाय छे खरो,
पण त्रिकाळ वस्तुस्वरूपमां ते विकार नथी, उपर ने उपर रहे छे. विकारथी जुदा स्वभावनुं ज्ञान करवाथी धर्म
थाय छे, पण आत्माने विकार वाळो ज जाणे तो धर्म थतो नथी. पुण्य पाप ते विकारी क्रिया छे, तेमां एकाग्रता
स्वरूप छे. पर्यायमां जे संकल्प–विकल्प थाय छे ते तो उठाउगीरनी जेम पराश्रये नवा ऊभा करे छे. पोताना
स्वभावमां तो ते कामदेवनी वासनानो ने संकल्प–विकल्पनो अभाव छे. स्वभाव जयवंत छे ने विकारनो अस्त
छे. अभिप्रायमां ज्यां स्वभावनो आदर थयो त्यां कामनी वासनानो नाश ज थाय छे. ईंद्रियविषयोमां सुखनी
पण ते अस्त थई जाय छे. जेने त्रिकाळी चैतन्य स्वभावनी भावना नथी तेने पर्यायमांथी कदी विकारनो नाश
थतो नथी. पण विकार ज थया करे छे. बधा तत्त्वोमां उत्कृष्ट एवा पोताना परम पारिणामिक स्वभावनी भावना
करतां पर्यायमांथी विकारी वासनानो एवो अस्त थई जाय छे के फरीने कदी उदय पामे नहि.
अज्ञान अने पुण्य–पापरूप जे दुरितवृक्ष छे तेनो नाश करवा माटे कुहाडा समान छे. ज्यां समयसार
केवळज्ञानरूपी झाड प्रगटे छे ने पुण्य–पापरूपी दुरितवृक्ष नष्ट थाय छे.
वर्ते छे.
पृथगथ विलसंतं स्वं समालोक्य येन त्यजसि झगिति मूर्त्या साकमेकत्वमोहम्।।२३।।
परद्रव्योथी जुदो देखी आ शरीरादि मूर्तिक पुद्गलद्रव्य साथे एकपणाना मोहने तुं तुरत ज छोडशे.