Atmadharma magazine - Ank 061
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: १० : आत्मधर्म : कारतक : २००५ :
मोहोऽयं व्यवहारिणाम्’–आत्मा परभावनो कर्ता छे एम मानवुं ते व्यवहारी जीवोनो मोह छे–अज्ञान छे. मूढ
मिथ्याद्रष्टि जीव रागनी क्रियानो कर्ता थाय छे, पण रागरहित पोतानो सहजज्ञान स्वभाव छे तेने मानतो
नथी. शुद्धस्वभावमां अभेद थईने परिणमवुं जोईए तेने बदले अज्ञानने लीधे रागादिमां एकपणुं मानीने
परिणमे छे ते ज अधर्म छे.
आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, पोते ज्ञान ज छे; ज्ञानस्वरूपथी ज आत्मा त्रणेकाळे जयवंत छे, तेनामां राग के जडनी
क्रिया त्रणकाळ त्रणलोकमां नथी; छतां आवा भगवान आत्माने ज्ञान सिवाय परभावनो कर्ता मानवो अने रागादि
परभावोने पोतानुं स्वरूप मानवुं ते मूढ अज्ञानी जीवोनो व्यवहार छे, आ व्यवहार ते ज अधर्म छे, पोताना
स्वभावमां तो विकार नथी छतां अज्ञानी जीव मोहथी गांडो थईने विकारने पोतानुं काम माने तेनुं शुं थाय?
अहीं शुद्धभाव–अधिकारमां शुद्ध आत्मस्वभाव समजावे छे. स्वभावमां विकारनो अभाव छे परंतु
शुद्धस्वभावनी द्रष्टि प्रगट कर्या वगर कोई अज्ञानी जीवो एम माने के ‘आत्मा तो पर्यायथी पण शुद्ध ज छे,
पर्यायमां पण रागादि नथी.’ तो तेनी मान्यता खोटी छे. पर्यायमां विकार थाय छे तेने जो जाणे ज नहीं तो तो
गृहीतमिथ्यात्त्व छे. पोताना पर्यायमां विकार थाय छे तेने जाणीने शुद्धस्वभावनी द्रष्टिथी ते टाळवा माटेनी आ
वात छे. जो अवस्थामां विकार थतो ज न होय तो आत्मामां वर्तमान पूर्ण शुद्धदशा प्रगट होवी जोईए. अने जो
पूर्ण शुद्धदशा प्रगट होय तो पछी समजवानी के सांभळवानी शुं जरूर होय? अवस्थामां विकार थाय छे खरो,
पण त्रिकाळ वस्तुस्वरूपमां ते विकार नथी, उपर ने उपर रहे छे. विकारथी जुदा स्वभावनुं ज्ञान करवाथी धर्म
थाय छे, पण आत्माने विकार वाळो ज जाणे तो धर्म थतो नथी. पुण्य पाप ते विकारी क्रिया छे, तेमां एकाग्रता
छोडीने शुद्ध आत्मस्वभावमां एकाग्रता करवी ते ज्ञाननी अविकारी क्रिया छे, ते क्रिया ज मोक्षनुं कारण छे.
भगवान आत्मा मिथ्यात्व अने रागद्वेषरूप विलयथी दूर छे, त्रिकाळ स्वभावने विकार साथे एकता नथी
पण जुदाई छे. आत्माना स्वरूपमां कामनी वासना नथी, संकल्प विकल्प नथी. बधा य आत्माओनुं आवुंज
स्वरूप छे. पर्यायमां जे संकल्प–विकल्प थाय छे ते तो उठाउगीरनी जेम पराश्रये नवा ऊभा करे छे. पोताना
स्वभावमां तो ते कामदेवनी वासनानो ने संकल्प–विकल्पनो अभाव छे. स्वभाव जयवंत छे ने विकारनो अस्त
छे. अभिप्रायमां ज्यां स्वभावनो आदर थयो त्यां कामनी वासनानो नाश ज थाय छे. ईंद्रियविषयोमां सुखनी
कल्पना अस्त पामी जाय छे. शुद्ध आत्मामां तेनो त्रिकाळ अस्त छे ज, ने ते शुद्धात्माना आदरथी पर्यायमांथी
पण ते अस्त थई जाय छे. जेने त्रिकाळी चैतन्य स्वभावनी भावना नथी तेने पर्यायमांथी कदी विकारनो नाश
थतो नथी. पण विकार ज थया करे छे. बधा तत्त्वोमां उत्कृष्ट एवा पोताना परम पारिणामिक स्वभावनी भावना
करतां पर्यायमांथी विकारी वासनानो एवो अस्त थई जाय छे के फरीने कदी उदय पामे नहि.
वळी ते समयसार केवो छे?
अज्ञान अने पुण्य–पापरूप जे दुरितवृक्ष छे तेनो नाश करवा माटे कुहाडा समान छे. ज्यां समयसार
स्वभावनो आदर थयो त्यां अज्ञान अने पुण्य–पाप नाश थई जाय छे. शुद्ध स्वभावना आदरमांथी
केवळज्ञानरूपी झाड प्रगटे छे ने पुण्य–पापरूपी दुरितवृक्ष नष्ट थाय छे.
वळी ते आत्मस्वभाव शुद्धज्ञाननो अवतार छे, सुख समुद्रथी भरेलो छे ने कलेश समुद्रथी पार छे. एवो
आत्मा ज सर्व तत्त्वोमां सार छे तेथी ते ज उपादेय छे, आवो सर्व तत्त्वोमां उत्कृष्ट भगवान आत्मा जयवंत
वर्ते छे.
[श्री नियमसारना शुद्धभावअधिकार उपरना व्याख्यानोमांथी]
कतव्य
अयि! कथमपि मृत्वा तत्त्वकौतूहली सन् अनुभव मवमूर्तेः पार्श्ववर्ती मुहूर्तम्।
पृथगथ विलसंतं स्वं समालोक्य येन त्यजसि झगिति मूर्त्या साकमेकत्वमोहम्।।२३।।
हे भाई! तुं कोई पण रीते महा कष्टे अथवा मरीने पण तत्त्वोनो कौतूहली थई आ शरीरादि मूर्तद्रव्यनो
मेक मुहूर्त (बे घडी) पाडोशी थई आत्मानो अनुभव कर के जेथी पोताना आत्माने विलासरूप, सर्व
परद्रव्योथी जुदो देखी आ शरीरादि मूर्तिक पुद्गलद्रव्य साथे एकपणाना मोहने तुं तुरत ज छोडशे.
भावार्थ: जो आ आत्मा बे घडी पुद्गलद्रव्यथी भिन्न पोताना शुद्ध स्वरूपनो अनुभव करे (तेमां लीन
थाय), परिषह आव्ये पण डगे नहि, तो घातिकर्मनो नाश करी, केवळज्ञान उत्पन्न करी, मोक्षने प्राप्त थाय.