Atmadharma magazine - Ank 061
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: १२ : आत्मधर्म : कारतक : २४७५ :
अपेक्षाए अजीवत्व छे, ए प्रमाणे पण अजीवत्वधर्म साधी शकाय छे–कही शकाय छे. आ प्रमाणे अनादिनिधन
अनंत जीव, अजीव वस्तुओ छे ते दरेकमां पोतपोतानां द्रव्यत्व, पर्यायत्व वगेरे अनंत धर्मो छे ते धर्मो सहित
सात भंगथी वस्तुने साधवी–सिद्ध करवी.
(३) वस्तुना स्थूळ पर्यायो छे ते पण चिरकालस्थायी अनेक धर्मरूप होय छे. जेम के–जीवमां संसारी
पर्याय अने सिद्ध पर्याय; वळी संसारीमां त्रस, स्थावर; तेमां मनुष्य, तिर्यंच ईत्यादि. पुद्गलमां अणु, स्कंध तथा
घट पट वगेरे. ते पर्यायोने पण कथंचित् वस्तुपणुं संभवे छे. ते पण उपर प्रमाणे ज सात भंगथी साधवुं; तेम
ज जीव अने पुद्गलना संयोगथी थयेला आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, पुण्य, पाप, मोक्ष वगेरे भावोमां पण,
घणा धर्मपणानी अपेक्षाए तथा परस्पर विधि–निषेध–वडे, अनेकधर्मरूप कथंचित् वस्तुपणुं संभवे छे; ते
सप्तभंग वडे साधवुं. जेवी रीते एक ज पुरुषमां पितापणुं, पुत्रपणुं, मामापणुं, भाणेजपणुं, काकापणुं,
भत्रीजापणुं वगेरे धर्मो संभवे छे ते धर्मो पोतपोतानी अपेक्षाथी विधिनिषेध वडे सात भंगथी साधवा.
(४) ए नियमपूर्वक जाणवुं के दरेक वस्तु अनेक धर्मस्वरूप छे, ते सर्वने अनेकान्तस्वरूप जाणीने जे
श्रद्धा करे अने ते प्रमाणे ज लोकने विषे व्यवहार प्रवर्तावे ते सम्यग्द्रष्टि छे. जीव, अजीव, आस्रव, बंध, पुण्य,
पाप, संवर, निर्जरा अने मोक्ष ए नव पदार्थो छे तेमने ते ज प्रमाणे सप्तभंग वडे साधवा. तेनुं साधन
श्रुतज्ञान–प्रमाणे छे.
नय
श्रुतज्ञानना बे भेद छे–द्रव्यार्थिक अने पर्यायार्थिक; वळी तेना (द्रव्यार्थिक अने पर्यायार्थिकना) नैगम,
संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ अने एवंभूतनय ए सात भेद छे; (तेमांना पहेला त्रण भेद
द्रव्यार्थिकना छे अने पछीना चार भेद पर्यायार्थिकना छे.) अने तेना पण उत्तरोत्तर भेद, जेटला वचनना प्रकार
छे तेटला छे. तेने प्रमाण–सप्तभंगी अने नय सप्तभंगीना विधानवडे साधवामां आवे छे. तेनुं कथन पहेला
लोकभावना–अधिकारमां कर्युं छे अने तेनुं विशेष कथन तत्त्वार्थ सूत्रनी टीकाथी जाणवुं. आ प्रमाणे प्रमाण अने
नयद्वारा जीवादि पदार्थोने जाणीने श्रद्धान करे ते शुद्ध सम्यग्द्रष्टि होय छे.
वळी अहीं एटलुं विशेष जाणवुं के, नय छे ते वस्तुना एक एक धर्मनो ग्राहक छे, ते दरेक नय
पोतपोताना विषयरूप धर्मने ग्रहण करवामां समान छे, तोपण पुरुष पोताना प्रयोजनवश तेमने मुख्य गौण
करीने कहे छे. जेम के जीव नामनी वस्तु छे, तेमां अनेक धर्मो छे तोपण चेतनपणुं प्राणधारणपणुं वगेरे धर्मो
अजीवथी असाधारण देखीने, जीवने अजीवथी जुदो दर्शाववाना प्रयोजनवश, ते धर्मोने मुख्य करीने वस्तुनुं
नाम ‘जीव’ राख्युं. ए ज प्रमाणे वस्तुना सर्व धर्मोमां प्रयोजनवश मुख्य गौण करवानुं जाणवुं.
शुद्ध पर्याय प्रगट करवा माटे निश्चयनी सदा मुख्यता ने व्यवहारनी सदा गौणता
अहीं आ ज आशयथी अध्यात्म कथनीमां मुख्यने तो निश्चय कह्यो छे अने गौणने व्यवहार कह्यो छे.
तेमां अभेदधर्मने तो मुख्य करीने तेने निश्चयनो विषय कह्यो अने भेद नयने गौण करीने तेने व्यवहार कह्यो.
द्रव्य तो अभेद छे तेथी निश्चयनो आश्रय द्रव्य छे अने पर्याय भेदरूप छे तेथी व्यवहारनो आश्रय पर्याय छे.
तेमां (अर्थात् निश्चयने मुख्य अने व्यवहारने गौण करवामां) प्रयोजन आ प्रमाणे छे के, भेदरूप वस्तुने सर्व
लोक जाणे छे तेथी जे जाणे ते ज तेने प्रसिद्ध छे (अर्थात् लोकोने भेदरूप वस्तु ज प्रसिद्ध छे), तेथी करीने लोक
पर्यायबुद्धि छे. जीवना नर, नारकादि पर्यायो छे तथा राग–द्वेष, क्रोध–मान–माया–लोभ आदि पर्यायो छे तेम ज
ज्ञानना भेदरूप मतिज्ञानादिक पर्यायो छे. ते पर्यायोने ज लोको जीव समजे छे; तेथी (ते पर्यायबुद्धि
छोडाववाना प्रयोजनथी) ते पर्यायमां अभेदरूप अनादिअनंत एक भाव जे चेतना धर्म छे तेने ग्रहण करी
निश्चयनयनो विषय कहीने जीवद्रव्यनुं ज्ञान कराव्युं, अने पर्यायाश्रित जे भेदनय तेने गौण कर्यो. तथा
अभेदद्रष्टिमां ते भेद देखाता नथी तेथी अभेदनयनी द्रढ श्रद्धा कराववा माटे कह्युं के–जे पर्यायनय छे ते व्यवहार
छे, अभूतार्थ छे, असत्यार्थ छे. भेदबुद्धिना एकांतनुं निराकरण करवा माटे आ कथन जाणवुं.
जे भेद छे तेने असत्यार्थ कह्या छे तेथी भेद ते वस्तुनुं स्वरूप ज नथी–एम नथी. ‘भेद नथी’ एम जो
सर्वथा माने तो ते अनेकान्तमां समज्या नथी, सर्वथा एकांत श्रद्धाथी ते मिथ्याद्रष्टि छे. अध्यात्मशास्त्रो विषे
ज्यां निश्चय–